शंकरं
शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।
सूत्रभाष्यकृतौ
वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणानाम्
आलयं करुणालयम्।
नमामि
भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम् ॥
सदाशिव-समारम्भां
शङ्कराचार्यमध्यमाम्।
अस्मदाचार्य-पर्यन्तां
वन्दे गुरु परम्पराम् ॥
शंकराचार्य अलौकिक मेधा संपन्न व्यक्ति थे। इनके असाधारण तर्क को देख कर आलोचक उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं। शंकराचार्य का जन्म केरल प्रांत के मालाबार क्षेत्र के कालडी नामक ग्राम में 788 ई. में नम्बूदरी ब्राह्मण के घर में हुआ। इनका जन्म के समय अवैदिक वातावरण था, उससे इन्होंने उद्धार किया और जनमानस में वैदिक धर्म को स्थापित किया। वैदिक धर्म की संरक्षा के लिए उन्होंने चारों दिशाओं जोशी, श्रृंगेरी, द्वारिका और पुरी में संरक्षक के तौर पर चार मठों की स्थापना की। इस प्रकार के इनके अद्वितीय और महनीय कर्म को देखकर लोग कहते हैं कि आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के साक्षात अवतार है । शंकरो शंकरः साक्षात्। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में करते हैं जब जब अधर्म का नाश होता है तब मैं आविर्भाव लेता हूं । भगवान शंकर स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में वैदिक धर्म के उद्धार के लिए अवतार लिए। आप जानते होंगे यदि आचार्य शंकर नहीं होते तो ब्रह्म सूत्र का अर्थबोध भी नहीं हो पाता। पूरा का पूरा ब्रह्मसूत्र संकेतात्मक है । वह सूत्र रूप में है । उसके प्रथम भाष्यकर्ता, प्रथम व्याख्याता शंकराचार्य हुए । शंकराचार्य का जन्म यद्यपि मालाबार केरल के क्षेत्र में हुआ परंतु कर्मक्षेत्र काशी रहा । इनके दीक्षागुरु भगत्पाद गोविंदाचार्य नर्मदा के ओंकारेश्वर के तट पर थे, जो कि मध्य प्रदेश में अवस्थित है । शंकराचार्य केरल से चलकर नर्मदा के तट पर आए । वहां पर गोविंदाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य भी थे । गोविंदाचार्य से उन्होंने शिक्षा पायी। आचार्य शंकर के बारे में एक श्लोक प्राप्त होता है-
अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित् ।
षोडशे कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् ॥
अष्टवर्षे चतुर्वेदी- जब यह 8 वर्ष के
थे तब यह चारों वेद तो जान चुके थे और 12 वर्ष में सभी
शास्त्रों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त कर लिया था। 16 वर्ष की अवस्था में इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा
और 32 वर्ष की अवस्था में प्रस्थान कर गए। इन्होंने
कम समय में ही अनेक ग्रंथों की रचना की। गीता का भाष्य, ब्रह्मसूत्र का भाष्य, विष्णु सहस्त्रनाम पर भाष्य, सनत्सुजातीय, सौंदर्यलहरी, उपदेशसाहस्त्री तथा विवेक
चूड़ामणि ग्रंथ पर इन्होंने शांकर भाष्य लिखा। इनकी रचनाशैली अद्वितीय है । इनकी रचनाओं
में अपूर्व साहित्य भी है। सौंदर्य लहरी स्तोत्र काव्य का अनुपम उदाहरण है। सौंदर्य लहरी
में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक के हजारों उदाहरण देखने को
मिलते है।
शंकराचार्य जी के जीवन परिचय तथा कृतियों के संक्षिप्त परिचय कराने के बाद उनके सिद्धान्त की चर्चा
की जा रही है।
शंकराचार्य का
सिद्धांत - अद्वैतवाद
दर्शन के क्षेत्र में शंकराचार्य के पहले भारत में अद्वैतवाद
का सिद्धांत रहा है। माध्यमिकों का शून्यवाद, योगाचारों का
विज्ञानाद्वैतवाद, शक्त्यद्वैतवाद, भर्तृहरि
का शब्दाद्वैत अथवा विवर्तवाद शंकराचार्य के पहले से ही उपलब्ध था। शंकराचार्य यह भी जानते
थे कि बौद्धों का शून्यवाद अभी प्रचलित है। इस विषय में एक श्लोक है, जिसमें बौद्धों के चारों मतों को प्रदर्शित किया गया है।-
मुख्यो माध्यमिको
विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत् ।
योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः ।।
अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकाः ।
प्रत्यक्षं क्षणभङगुरञ्च सकलं वैभाषिको भाषते ।।
-सर्वदर्शन संग्रह, बौद्ध प्र० ।
इस श्लोक के 4 पदों में चार संप्रदाय हैं । माध्यमिक आत्मा के कहता है कि कुछ भी नहीं है। सब कुछ शून्य है । शून्य के अतिरिक्त और कोई तत्व इस संसार में नहीं है। सब असत् है। वह यह नहीं समझा कि जब असत् है तभी सत् है और जब सत् है तभी असत् है। प्रतियोगी के कहने से अनुयोगी स्वतः सिद्ध हो जाता है । जब हम अभाव कहेंगे तो किस का अभाव? यहीं अपने आप सिद्ध हो जाएगा कि कोई वस्तु है,जिसके
अभाव की चर्चा की जा रही है। वह कहते हैं शून्य है और परमार्थिक रूप से कुछ भी नहीं है, जबकि योगाचार्य कहते हैं कि नहीं विज्ञान है । वह विज्ञान क्षणिक है और वह विज्ञान ही परमार्थिक सत् है और उसके अलावा कोई पदार्थ नहीं है । उन्होंने थोड़ी से सत्ता तो मानी भले ही वह
क्षणिक हो।
सौत्रान्तिक कहते हैं - अर्थ भी है। परन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं है। वह अनुमान द्वारा जाना जा सकता है। प्रश्न यह है कि जब कोई पदार्थ प्रथम चरण में उत्पन्न और नष्ट हो जाएगा तब द्वितीय चरण में इंद्रिय जब जाएगी तो वह पदार्थ
नष्ट होने के कारण नहीं दिखेगी। इस प्रकार सौत्रान्तिक अनुमान के द्वारा पदार्थ की सिद्धि करते हैं । इसके बाद वैभाषिक कहता है कि वह प्रत्यक्ष भी है परंतु
क्षणभंगुर है । इस प्रकार बौद्ध के जो चार संप्रदाय हैं, वह शून्य से चलकर पूरे जगत तक आ जाए। जगत् की सत्ता स्वीकार
करने लगे।
शंकराचार्य इस बात को जानते थे कि इस प्रकार का अद्वैतवाद की स्थापना नहीं हो सकती। वे अद्वैतवाद के इस सिद्धांतों से परिचित थे। भर्तहरि का शब्दार्थवाद जो स्फोट के सिद्धांत को मानते हैं, वे शब्द को ही ब्रह्म मानते हैं। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी ये 4 शब्द की
स्थितियां हैं। इसमें परा ब्रह्मा का रूप है। अक्षरों की उत्पत्ति से लेकर संसार तक की उत्पत्ति उसी से होती है। इन सिद्धांतों से अलग हटकर शंकराचार्य का अद्वैतवाद अभूतपूर्व और
अद्वितीय है। शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवाद में उपनिषद्, गीता, ब्रह्मसूत्र इन तीनों का समन्वय करके जो एक अद्वैतवाद का प्रदर्शन किया वह
समन्वयात्मक
है। वह
तर्कपूर्ण और व्यावहारिक है। वह वैदिक है। वहां परमार्थिक सत्ता की स्वीकृति है । इस प्रकार वह वैदिक, व्यवहारिक और समन्वयत्मकता लिये है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद पूर्व के अद्वैतवाद से अलग हुआ। जबसे शंकराचार्य का अद्वैतवाद स्थापित हुआ, तभी से सभी विचारों का कंठाहार बन गया। आज शंकर के अद्वैतवाद पर जितने ग्रंथों की उपस्थिति है, उतनी अन्य दर्शनों की समृद्धि नहीं है। शंकराचार्य के अद्वैतवाद की तरह अन्य दार्शनिकों का सिद्धांत प्रचलित
नहीं हुआ।
अद्वैत का अर्थ होता है एक अखंड ब्रह्म । उनके विचार तत्व में ब्रह्म ही अखंड तत्व है, उसी की परमसत्ता है। वही परमार्थिक सत् है। संसार है परंतु वह सत् नहीं है । अब प्रश्न उठता है कि उस ब्रह्म का स्वरूप क्या है? उसके लिए तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा - सत्यम् ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म। वह ब्रह्म सत्य ज्ञान स्वरूप है और अनंत है। अनंत का अर्थ है उसका कोई अंत ही नहीं है। जब उसका अंत होगा तभी आदि हो सकेगा। यहां पर आदि और अनादि की चर्चा नहीं होती । यहां 3 शब्द हैं। इनमें बीच का जो ज्ञान शब्द है, उस पर थोड़ा ध्यान दिया जाए। ब्रह्म को किसी ने देखा नहीं है । इसीलिए ज्ञान पर चर्चा हो । यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है, जो निर्गुण, निर्विकार और अखंड रूप है। उस ब्रह्म का स्वरूप क्या है? उस स्वरूप को बताने वाला सत्
ज्ञान है और अनंत है। ज्ञान सभी जीव जंतुओं को होता है, सभी कोई अनुभूति करते हैं। यह जगत की अनुभूति है। अर्थात् ज्ञान हो रहा है । यह ज्ञान किसको हो रहा है? इंद्रियों को? मन को? कहा, नहीं। इंद्रियां जरा है। इंद्रियों को ज्ञान नहीं होता है। यह इंद्रियाँ ज्ञान का आश्रय नहीं है । जिसका आंख फूट गया हो वह यही कहेगा कि मैंने यह जाना। गूंगा, बहरा भी अपने ज्ञान का अनुभव करता है। मन को, बुद्धि को भी ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान का आश्रय आत्मा है । आत्मा इन सभी से भिन्न है । आत्मा जिसे चैतन्य कहा जाता है, उसी को ज्ञान होता है। ज्ञान का
आश्रय आत्मा है । वही ज्ञाता है । ज्ञान हमेशा अपने आश्रय में रहेगा। हम लोग ज्ञान और ज्ञाता को जानते हैं । यह ज्ञान और ज्ञाता दोनों नित्य है। विषय का जो ज्ञान होता है वह अनित्य होता है । सामने देखे जाने वाले वस्तुएं चित्तवृत्ति में
अंकित हो जाती है। यह जो ज्ञान है यह विषय ज्ञान है। यदि स्थान परिवर्तन कर लिया जाए तो दूसरा विषय आ
जाए। एक
विषय समाप्त होकर और दूसरा विषय आ जाता है। विषय
का जो ज्ञान होता है, वह अन्य होता है। वृत्ति का ज्ञान अनित्य है । ज्ञान नित्य है । यह संशय नहीं करना चाहिए कि ज्ञाता भी मर जाता है। ज्ञाता आत्मा नहीं मरती।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति
पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति
मारुतः।।2.23।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव
च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं
सनातनः।।2.24।।
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता। तलवार आदि
शस्त्र इसके अङ्गोंके टुकड़े नहीं कर सकते। अग्नि इसको जला नहीं सकता । जल इसे
गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न
गलनेवाला, और न सूखनेवाला है, इसलिये यह नित्य है। सर्वगत है। सर्वव्यापी होने से
स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल
है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारण से नया उत्पन्न नहीं हुआ है।
आत्मा सनातन है। सनातन इसका धर्म है । इसी ने धारण किया हुआ है । यही आत्मा, यही ज्ञान, यही चैतन्य इस 11 इंद्रियों को धारण कर लिया है। धारण करके शरीर रूपी एक पिंजरे में बंद हो गया है। पिंजरा बदलते रहता है, परन्तु आत्मा कहीं भी आता जाता नहीं है । प्रौढ़ नैयायिक
उदयनाचार्य ईश्वर
की सिद्धि करते हैं-
क्षित्यंकुरादिकं सकर्तृकं
कार्यत्वात् घटवत्।
शंकराचार्य कहते हैं -अनुमान प्रमाण के चक्कर में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा, ज्ञान, ब्रह्म स्वयं सिद्ध है। हम उसे प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं ।उसे अनुमान से जानने की क्या आवश्यकता है? ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। वह आत्मा है, वह अजर अमर है। यही तत्वमसि, अहम् ब्रह्मास्मि, तक पहुंचने के लिए हमको उपासना करने की आवश्यकता है।
हम संसार में जीव और ब्रह्म को अलग-अलग देख रहे हैं । वह दो न होकर एक ही है । यहां जितने वस्तुएँ हैं। यह वह सभी भ्रम नहीं है। हम कार्य कारण भाव को जानते हैं। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है। कारण के अतिरिक्त कार्य नहीं है। तेल कार्य है उसका कारण तिल है। यदि तिल नहीं
हो तो तेल भी नहीं होगा।
तेल का सांख्य
यहां आकर रुक जाता है। जैसे मिट्टी अपने स्वरूप में परिवर्तन करके घड़ा बन जाता है. यह मिट्टी ही है जो विभिन्न आकारों में बदल गया है । सभी वस्तुओं में एक सामान्य चीज मिट्टी है । इस प्रकार यदि देखा जाए तो संसार के समस्त
पदार्थों में पांच पदार्थ ही रहते हैं और यह रहना अर्थात् सत्ता के पीछे कारण रहता है। वह कारण सत् है । उसी परम सत् में कार्य और कारण निहित होते हैं । इसी को विवर्त कहा जाता है। सांप में रज्जू का भान की तरह। जब तक हम रस्सी को उलट पलट कर देख नहीं लेते हैं
तब तक हमें सत् ज्ञान नहीं होता है । इसी प्रकार जीवात्मा जैसे ब्रह्म रूप है, वैसे ही जीव जगत ब्रह्म रूप ही है। यही अद्वैतवाद है। ब्रह्म
का एक तटस्थ लक्षण भी है वह तटस्थ लक्षण निर्गुण ब्रह्म का नहीं होगा। वह सगुण ब्रह्म का होगा। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते... तद्
ब्रह्म।
जिस तत्व से इस संसार की उत्पत्ति होती है। वह तटस्थ लक्षण है और सगुण ब्रह्म का लक्षण है। जैसे सांप रहने पर ही रस्सी में सांप ही भ्रांति
होगी।
यदि सांप होता ही नहीं तो रस्सी में सांप की भ्रांति ही नहीं होती। जैसे सांप और रस्सी है, वैसे ही ईश्वर इस संसार को बनाया है । जब ईश्वर को आनंद लीला करने की इच्छा होती है
अर्थात् माया से युक्त होने की इच्छा होती है तब वह संसार की सृष्टि करता है।
धन्यवाद
जवाब देंहटाएंभर्तृहरि का शब्दार्थवाद करता हैॽ
जवाब देंहटाएंशंकराचार्य जी को भगवान शंकर का साक्षात तो कहा जाता है ,
जवाब देंहटाएंपर उनको लोगों ने भगवान की उपाधि नहीं दी।