मोक्षदा एकादशी गीता जयंती

मोक्षदा एकादशी मार्गशीर्ष (अगहन) महिना के शुक्ल पक्ष के एकादशी को होता है। हिन्दू धर्म में हर तिथि एवं हर दिन का अपना एक अलग महत्व होता है। मोक्षदा एकादशी का भी अपना एक अलग महत्व है, क्योंकि इस तिथि को गीता जयंती भी मनाया जाता है।

गीता जयंती

हिंदू धर्म में गीता को बेहद पवित्र ग्रंथ माना गया है। ऐसा माना जाता है कि मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ही गीता की उत्पत्ति हुई थी। इसे श्रीमद्भागवत गीता भी कहा जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ गीता की जयंती मनाई जाती है। पूरे विश्व में यही एक ग्रंथ है जिसकी जयंती मनाई जाती है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, द्वापर युग में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को श्रीकृष्ण ने इसी दिन गीता का उपदेश दिया था। गीता का उपदेशकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था. इसीलिए इस दिन को गीता जंयती के रूप में मनाया जाता है। गीता का उपदेश मनुष्य को जीवन में श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रेरित करता है। गीता में कुल 18 अध्याय है। इस दिन गीता का पाठ करने से भगवान श्रीकृष्ण का आर्शीवाद प्राप्त होता है। मार्गशीर्ष मास को भगवान श्रीकृष्ण का सबसे प्रिय महीना भी माना जाता है।

गीता का उपदेश मोह का क्षय करने के लिए है, इसीलिए एकादशी को मोक्षदा कहा गया। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र अर्जुन के मन में महाभारत के युद्ध के दौरान पैदा होने वाले भ्रम को दूर करते हुए जीवन को सुखी और सफल बनाने के लिए उपदेश दिए थे। धर्म और कर्म के महत्व को बताते हुए भगवान कृष्ण के इन उपदेशों को गीता में संग्रहित किया गया। महाभारत युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने जो उपदेश अर्जुन के मन में धर्म और कर्म को लेकर पैदा हुई दुविधा को दूर किया था, वही आज मनुष्य के तमाम समस्याओं के समाधान और सफल जीवन जीने की कला के रूप में गीता के उपदेशों में समाहित है। गीता महाभारत ग्रंथ का एक हिस्सा है, जिसमें कुल 18 अध्याय है। इसके 6 अध्याय कर्मयोग, 6 अध्याय ज्ञानयोग और अंतिम 6 अध्याय में भक्तियोग के उपदेश दिए गए हैं।

कुरुक्षेत्र में अर्जुन को श्रीकृष्ण ने ज्ञान का पाठ पढ़ाया था। कृष्ण जी ने उन्हें सही और गलत का अंतर भी बताया था। कृष्ण जी चाहते थे कि वो सही फैसला ले पाए और जीवन का सुदपयोग कर पाएं।जीवन जीने की अद्भुत कला गीता में वर्णित श्लोक में सिखाई गई है। हर परिस्थिति में धैर्य से काम लेना चाहिए, यह गीता में ही सिखाया गया है। किस तरह हर परिस्थिति में धैर्य से काम लेना चाहिए, यह सिखाया गया है। इसी के चलते आज भी हजार वर्षों से गीता जयंती प्रासंगिक है। इसके जरिए ही श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता लोगों को अच्छे-बुरे कर्मों का फर्क समझाती है।

क्यों मनाया जाता है यह दिन-

गीता जयंती पर हिंदू धर्म के महाग्रंथ गीता, भगवान श्रीकृष्ण और वेद व्यासजी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि दुनिया में किसी भी पवित्र ग्रंथ का जन्मदिन नहीं मनाया जाता है। लेकिन श्रीमद्भगवत् गीता की जयंती मनाई जाती है। इसके पीछे का कारण यह है कि अन्य ग्रंथ इंसानों द्वारा संकलित किए गए हैं लेकिन गीता का जन्म स्वयं भगवान श्री कृष्ण के मुंह से हुआ है। बस इतना ही।

आप सभी को गीता जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।

Usha Kiran के फेसबुक वॉल से साभार।

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ऐतरेय उपनिषद् तथा ऐतरेय ब्राह्मण

 ऐतरेय उपनिषद्

यह, ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक का चौथा, पांचवां और, छठा अध्याय है। इसमें 3 अध्याय हैं और संपूर्ण ग्रंथ गद्यात्मक है। इसका प्रतिपाद्य विषय आत्मा के स्वरूप का निरूपण है ।

प्रथम अध्याय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि आत्मा से ही संपूर्ण जड़ चेतनात्मक सृष्टि की रचना हुई है। प्रारंभ में केवल आत्मा ही था और उसी ने सर्व प्रथम सृष्टि-रचना का संकल्प किया (1-1-2)

द्वितीय अध्याय में जन्म, जीवन व मृत्यु (मनुष्य की 3 अवस्थाओं) का वर्णन है।

अंतिम अध्याय में "प्रज्ञान" की महिमा का आख्यान करते हुए, आत्मा को उसका (प्रज्ञान का) रूप माना गया है। यह प्रज्ञान ब्रह्म है। 'प्रज्ञाननेत्रो लोकः। प्रज्ञानं प्रतिष्ठा। प्रज्ञानं ब्रह्म।

इसमें मानव शरीर में आत्मा के प्रवेश का सुंदर वर्णन है। परमात्मा ने मनुष्य के शरीर की सीमा (शिर) को विदीर्ण कर उसके शरीर में प्रवेश किय। उस द्वार को "विदृति' कहते हैं। यही आनंद या ब्रह्म-प्राप्ति का स्थान है। इस उपनिषद् में पुनर्जन्म की कल्पना का प्रतिपादन, निश्चयात्मक रूप से है।

"प्रज्ञानं ब्रह्म" इसी उपनिषद् का महावाक्य है।

ऐतरेय ब्राह्मण -

ऋग्वेद के उपलब्ध दो ब्राह्मणों में 'ऐतरेय ब्राह्मण' अत्यधिक प्रसिद्ध है। शाकल शाखा को मान्य इस ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं। 5 अध्यायों की 'पंचिका' कहलाती हैं। अर्थात् इसमें कुल 8 पंचिकाएँ हैं। प्रत्येक पंचिका में आठ अध्याय और कुछ कंडिकाएं होती हैं। यथा पंचिका 1 में 30, 2 में 41, 3 में 50, 4 में 32, 5 में 34, 6 में 36, 7 में 34 और 8 में 28 कण्डिकाएं हैं। कुल 285 कण्डिकाएं हैं।

इस ब्राह्मण में अधिकतर सोमयाग का विवरण है।

1-16 अध्यायों में एक दिन में सम्पन्न होने वाले 'अग्निष्टोम' नामक सोमयाग का विवरण है।

17-18 अध्यायों में 360 दिनों के गवाममयन' का,

19-24 अध्यायों में "द्वादशाह" का,

25-32 अध्यायों में अग्निहोत्रदि का और 33 से 40 के राज्याभिषेक महोत्सव में राजपुरोहितों के अधिकार का वर्णन है।

30-40 अध्याय उपाख्यान और इतिहास दृष्टि से महत्त्वपुर्ण है। इसी भाग में 33 वें अध्याय में हरिश्चोद्रोपाख्यान है. जिसमें हरिश्चंद्र की प्रकृति, परिवार, उसके द्वारा सम्पन्न यज्ञ से सम्बद्ध देवता, पुरोहित ऋत्विज आदि का परिचय है। अन्तिम तीन अध्यायों में भारत की चतुर्दिक भौगोलिक सीमाएं, वहां के निवासी और शासकों का परिचय है।

ब्राह्मण की पंचिका 1 खंड (या कंडिका) 27 में सोमाहरण की कथा,

2.28 में मुख्यतः 33 देवताओं का प्रतिपादन,

(3.44 में आकाश की सूर्य से उपमा),

3.23 में संतानोत्पत्ति के लिए अनेक विवाह।

4.27 (5/6) में प्रेम विवाह पर बल।

5.33 में ऋगादि तीन वेदों को तथा अथर्व वेद को मन कहा गया है। इसी स्थल पर अथर्व वेद को 'ब्रह्मदेव' कहकर उसका महत्त्व प्रतिपादित है। इसको सर्वश्रेष्ठ देवता माना गया है। ऋग्वेद के ऐतरेय तथा कौषीतकी इन दोनों ब्राह्मण ग्रंथों का ज्ञान यास्क को था। यास्कपूर्व शाकल्य भी इनसे परिचित थे। इस आधार पर इसका काल ईसापूर्व 600 वर्ष का होगा ऐसा अनुमान है। ऐ. ब्राह्मण में जनमेजय राजा के राज्याभिषेक का वर्णन है। जनमेजय राजा का काल, संहिताकरण के प्राचीन काल का अंतिम काल है। अतः कुरुयुद्ध के तुंरत बाद ही इसका रचना मानी जाती है। इस ब्राह्मण की गद्यभाषा बोझिल है। उपमा-उत्प्रेक्षा नजर नहीं आती। कुछ स्थान ऐसे हैं जहां भाषा सरल, सीधी प्रतीत होती है। शुनःशेप की कथा इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। गद्य की अपेक्षा गाथा, भाषा की दृष्टि से उच्च श्रेणी की है। इस के प्रारंभ में कहा है कि :

अग्नि सभी देवताओं में समीप एवं विष्णु सर्वश्रेष्ठ है। अन्य देवतागण बीच में है। इस ग्रंथ के काल में इन दोनों देवताओं को महत्त्व प्राप्त था । सभी देवताओं को अग्नि का रूप माना गया है। देवासुर युद्ध का उल्लेख आठ बार है। यज्ञ की उत्क्रांति का दिग्दर्शन इस ग्रंथ से होता है। इस ब्राह्मण के प्रवक्ता "महिदास ऐतरेय" है । चरणव्यूह कण्डिका 2 के अनुसार इस ब्राह्मण के पढने वाले तुंगभद्रा, कृष्णा और गोदावरी वा सह्याद्रि से लेकर आन्ध्र देश पर्यंन्त रहते थे।

इसके अंतिम 10 अध्याय प्रक्षिप्त माने जाते हैं।

इस पर 3 भाष्य लिखे गये है।

[1] सायणकृत भाष्य । यह आनंदाश्रम संस्कृत सीरीज, पुणे से 1896 में दोनों भागों में प्रकाशित हुआ है।

[2] षड्गुरुशिष्य-रचित "सुखप्रदानामक लघु व्याख्या [इसका प्रकाशन अनंतशयन ग्रंथमाला सं. 149 त्रिवेंद्रम से 1942 ई. में हुआ है।

[3] और गोविन्द स्वामी की व्याख्या [अप्रकाशित] |

ऐतरेय ब्राह्मणम् मार्टिन हाग द्वारा सम्पादित - मुंबई गव्हर्नमेंट द्वारा प्रकाशित सन 1863 [भाग 1]

[4] ऐतरेय ब्राह्मण- सायणभाष्यसमेतम् सत्यव्रत सामश्रमी द्वारा सम्पादित एशियाटिक सोसायटी बंगाल कलकत्ता सम्वत् 1952-1963 1 भाग 9-41

[5] ऐतरेयब्राह्मण-सायणभाष्य समेतम् [सम्पादक - काशिनाथ शास्त्री] आनंदाश्रम, पुणे - 1896 भाग- 1-2

ऐतरेय ब्राह्मण-आरण्यक कोश- संपादक -केवलानन्द

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त्रिविक्रम भट्ट विरचित नलचम्पू

लेखक- त्रिविक्रमभट्ट।

पिता- नेमादित्य।

ई.-10 वीं शती।

विषय- महाराज नल व भीमसुता दमयंती की प्रणय कथा ।

प्रस्तुत काव्य का विभाजन 7 उच्छ्वासों में किया गया है।

 प्रथम उच्छ्वास- इसका प्रारंभ चंद्रशेखर भगवान् शंकर व कवियों के वाग्विलास की प्रशंसा से हुआ है। सत्काव्य-प्रशंसा, खल-निंदा व सज्जन प्रशंसा के पश्चात् वाल्मीकि व्यास, गुणाढ्य व बाण की प्रशंसा की गई है। तदनंतर वर्षा वर्णन के बाद एक उपद्रवी शूकर का कथन किया गया है, जिसे मारने के लिये राजा नल आखेट के लिये प्रस्थान करता है। आखेट के कारण थके हुए नल का शालवृक्ष के नीचे विश्राम करना वर्णित है। इसी बीच दक्षिण देश से आया हुआ पथिक दमयंती का वर्णन करता है। पथिक ने यह भी सूचना दी कि दमयंती के समक्ष राजा नल की भी प्रशंसा किसी पथिक द्वारा हो रही थी। उसके रूपसौंदर्य का वर्णन सुनकर दमयंती के प्रति नल का आकर्षण होता है और पथिक चला जाता है।

द्वितीय उच्छ्वास - इसमें वर्षा काल की समाप्ति व शरद् ऋतु का आगमन, विनोद के हेतु घूमते हुए नल के समक्ष हंसों की मंडली उतरती है। उनमे से एक को नल पकड लेता है। आकाशवाणीद्वारा यह सूचना प्राप्त होती है कि दमयंती को आकृष्ट करने के लिये यह हंस दूतत्व करेगा राजा दमयंती के विषय में हंस से पूछता है। हंस कुंडिनपुर के राजा भीम व उनकी रानी प्रियंगुमंजरी का वर्णन करता हैं।

तृतीय उच्छ्वास- रानी प्रियंगुमंजरी को दमनक मुनि के वरदान से दमयंती कन्या होती है। उसके शैशव, शिक्षा एवं तारुण्य का वर्णन है।

चतुर्थ उच्छ्वास- हंस द्वारा दमयंती के सौंदर्य का वर्णन सुनकर राजा नल की उत्कंठा बढती है। हंस-विहार, हंस का कुंडिनपुर जाना व नल के रूप-गुण का वर्णन सुनकर दमयंती रोमांचित होती है। नल के लिये सालंकायन का उपदेश, वीरसेन द्वारा सालंकायन की नीति का समर्थन, नल का राज्याभिषेक वर्णन, पत्नी के साथ वीरसेन का वानप्रस्थ अवस्था व्यतीत करने हेतु वन-प्रस्थान व पिता के अभाव में नल की उदासीनता का वर्णन है।

पंचम उच्छ्वास- नल के गुणों का वर्णन श्रवण कर दमयंती के मन में नल विषयक उत्कंठा होती है। वह नल को देने के लिए हंस को अपनी हारलता देती है। दमयंती के स्वयंवर की तैयारी, उत्तर दिशा में निमंत्रण देने जाने वाले दूत से दमयंती की श्लिष्ट शब्दों में बातचीत, सेना के साथ नल का विदर्भ देश से लिये प्रस्थान, नर्मदा के तट पर इंद्रादि लोकपालों द्वारा दमयंती- दौत्य-कार्य में नल की नियुक्ति। लोकपालों का दूत बनने के कारण नल चिंतित होता है, श्रुतशील नल को सांत्वना देता है।

षष्ठ उच्छ्वास- इसमें प्रभात काल और विंध्याटवी का वर्णन है। विदर्भ देश के मार्ग में दमयंती का दूत पुष्कराक्ष दमयंती का प्रणयपत्र नल को अर्पित करता है। नल व पुष्कराक्षसंवाद। पयोष्णी-तट पर सेना का विश्राम, दमयंती द्वारा प्रेषित किन्नरमिथुन द्वारा दमयंती वर्णन- विषयक गीत, रात्रि में नल का विश्राम, प्रातः अग्रिम यात्रा की तैयारी व कुंडिनपुर में नल के आगमन के उपलक्ष्य में हर्ष।

सप्तम उच्छ्वास- इसमें नल के समीप विदर्भराज का आगमन, अन्यान्य कुशल-प्रश्न. दमयंती द्वारा भेजी गई किरात कन्याओं का नल के समीप आगमन। नलद्वारा प्रवर्तक, पुष्कराक्ष व किन्नरमिथुन दमयंती के पास भेजे जाते हैं। नल का मनोविनोद व औत्सुक्य, दमयंती के यहां से पर्वतक लौट कर अंतःपुर एवं दमयंती का वर्णन करता है। इंद्र के वर प्रभाव से कन्यांतःपुर में नल का प्रकट होना व दमयंती तथा उसकी सखियों का विस्मय। नल-दमयंती का अन्योन्य दर्शन व तन्मूलक रसानुभूति। नलद्वारा दमयंती के समक्ष इन्द्र का संदेश सुनाया जाता है। दमयंती विषण्ण होती है। दयमंती के भवन से नल प्रस्थान करता है और उत्कंठापूर्ण स्थिति में हर-चरण-सरोजध्यान के साथ किसी भांति नल रात्रि यापन करता है।

प्रस्तुत सुप्रसिद्ध चंपू में नल-दमयंती की पूरी कथा वर्णित न होकर आधे वृत्त का ही वर्णन किया गया है। यह श्रृंगारप्रधान रचना है, अतः इसकी सिद्धि के लिये अनेक काल्पनिक मनोरंजक घटनाओं की इसमें योजना की गई है।
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संस्कृत की पुस्तकों से परिचय

 16 जनवरी 2018


डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री संस्कृत के जाने-माने हास्य लेखक और कथाकार हैं। अनभीप्सितम्, आषाढस्य प्रथमदिवसे तथा अनाघ्रातं पुष्पं के बाद मामकीनं गृहम् कथा संग्रह वर्ष 2016 में अक्षयवट प्रकाशन 26 बलरामपुर हाउस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है । संस्कृत में पद्य की अपेक्षा गद्य साहित्य कम लिखा जा रहा है। कथा लेखकों में प्रो. प्रभुनाथ द्विवेदी तथा बनमाली विश्वाल के बाद डॉ. शास्त्री मेरे पसंदीदा लेखक है। इनकी कथाओं में सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक समस्याओं का संघर्ष, वैयक्तिक उलझन, वृद्धजनों के प्रति उपेक्षा, संकीर्ण चिंतन आदि विषय वर्णित होते हैं। कथानक में सहसा मोड़ आता है जिससे पाठक रोमांचित हो उठता है।

मामकीनं गृहम् में कुल 14 दीर्घ कथायें तथा 7 लघु कथाएं हैं।

इसमें एक दीर्घ कथा है-  विजाने भोक्तारं ।

इस कथानक में एक संस्कृत के धोती तथा शिखाधारी छात्र को विदेश से आई हुई एक छात्रा को पढ़ाने के लिए ट्यूशन मिल जाता है। इसकी जोरदार चर्चा कक्षा में होती है। एक दिन उसे अपने घर जाना पड़ता है । वह अपने स्थान पर दूसरे छात्र को ट्यूशन पढ़ाने हेतु भेजता है। यहां पर अभिज्ञानशाकुंतलम् और कालिदास पर रोचक चर्चा मिलती है । कहानी पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विदेश से आई हुई छात्रा अपने दूसरे ट्विटर को पसंद करेगी, लेकिन अंततः धोतीधारी ट्विटर से उसकी शादी हो जाती है। पूरी कहानी संस्कृत शिक्षा, रूप सौंदर्य और सफलता के इर्द-गिर्द घूमती है। अंत में लेखक रूप-सौंदर्य के स्थान पर सफलता को प्रतिष्ठित करता है। यही कथा का सार है। आप भी इस प्रकार के संस्कृत में लिखी हुई कथाओं को पढ़ें।

"परिहास - विजल्पितम्"

लेखक - डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री

ISBN 978-93-80634-50-0

         संस्कृत भाषा में हास्य-व्यंग्य पर आधृत साहित्य प्रायः कम ही दृष्टिगत होता है। आज भी प्रायः धार्मिक या पौराणिक कथाओं को ही आधार बनाकर काव्य, महाकाव्य या नाटक आदि लिखे जा रहे हैं। हास्य या व्यंग्य के माध्यम से साम्प्रतिक सामाजिक या वैयक्तिक समस्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास अत्यल्प ही परिलक्षित हुआ है। संस्कृत में हास्य-व्यंग्य को नवीन आयाम देने वाले डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री की रचनाओं से मैं परिचित कराता आया हूं।


"हास्यं सुध्युपास्यम्" नामक काव्य संग्रह तथा अन्य काव्य संग्रह की तरह ही"परिहास-विजल्पितम्" नामक यह काव्य-संग्रह उसी रचनाशीलता का दूसरा परिणाम है, जिसमें हिन्दी पद्यानुवाद भी साथ ही प्रस्तुत किया गया है। इसके 'दाम्पत्य' तथा 'प्रेमिका-परिहास' नामक प्रकरण जहाँ अत्यन्त रोचक हैं वहीं वे आधुनिक जीवनशैली तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक विद्रूपताओं को भी सरस एवं सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। 'छात्र' एवं 'माणवक' नाम से प्रदत्त परिहासों को पढ़कर आपको संस्कृतभाषा में व्यंग्य एवं हास्य का अद्भुत अनुभव प्राप्त होगा। इसी प्रकार पुस्तक के 'विप्रकीर्ण परिहास' में अनेक सामाजिक एवं राष्ट्रिय समस्याओं पर भी रोचक मनोरञ्जक एवं गम्भीर कटाक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसका एक पद्यमय प्रसंग देखें -

स्त्रीलिङ्गता जलेबीषु

एकदा यज्ञदत्तो वै

देवदत्तं स्मिताननम्।

मिष्ठान्नस्याऽऽपणे प्रश्नं

प्राह किञ्चिद् विचार्य यत् ।।

जलेबी'-व्यञ्जनं तावत्

स्त्रीलिङ्गे हि कथं मतम्?

तदहं ज्ञातुमिच्छामि

कृपया वद चोत्तरम्।।

तस्य तत्प्रश्नमाकर्ण्य

देवदत्तोऽपि सस्मितः।

मित्रं सम्बोधयंस्तावद्

वाक्यमेवं ब्रवीति यत् ।।

प्रकृत्या सरला नाऽस्ति

वक्रा चक्राsऽकृतिस्तथा।

परं सदैव स्वादिष्टा

जलेबी मधुरा भवेत्।।

तस्मादेव स्वभावेन

तस्याः स्त्रीलिङ्गता मता।

स्त्रीणां गुणं सदा धत्ते

जलेबी माधुरी यतः।।

यह गौरव की बात है कि अन्य भारतीय भाषाओं के समान ही संस्कृतभाषा में भी इस विधा में नए विषयों एवं सामयिक समस्याओं पर लेखन कार्य किया जा रहा है। अभी हाल फिलहाल में लेखक की एक गद्य रचना "मामकीनं गृहम्" के ५ कथाओं का तमिल में अनुवाद हुआ है। इस कथा को तमिल भाषा में सूर्या टेलीविजन पर प्रसारित किया गया है। इस पुस्तक के बारे में मैंने यहां सूचना दी थी। अभी संस्कृतभाषी ब्लॉग के पुस्तक परिचय में पढ़ सकते हैं।

लेखक परिचय

नाम-डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री।

जन्म-

१९४७ की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी। 

शिक्षा-

संस्कृत की प्रारम्भिक शिक्षा स्वामी त्यागानन्द जी के सानिध्य में गुरुकुल महाविद्यालय, अयोध्या तथा वाराणसी में श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु एवं युधिष्ठिर मीमांसक के सान्निध्य में वेद-वेदाङ्गों का अध्ययन।

उपाधियाँ-

शास्त्री (सं०सं०वि०वि०, वाराणसी) स्वर्णपदक प्राप्त-१९७०, एम०ए० (कानपुर वि०वि०) स्वर्णपदक प्राप्त-१९७२, आचार्य (सं०सं0वि०वि०)- १९७५, पी- एच०डी० (महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी)- १९८०।

अध्यापन-कार्य-

१९७३ से २०११ तक स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन-फीरोज़ गाँधी स्नातकोत्तर कॉलेज, रायबरेली- (उ०प्र० )।

प्रकाशित-रचनाएँ-

अभिनव-संस्कृत-गीतमाला- १९७५, आचार्य महीधर एवं स्वामी दयानन्द का माध्यन्दिन-भाष्य- १९८४,

हासविलासः (पद्य रचना)- १९८६ (उ०प्र० संस्कृत-अकादमी का विशेष पुरस्कार प्राप्त),

संस्कृतव्यंग्यविलासः - (संस्कृत-भाषा में सर्वप्रथम सचित्र व्यंग्यनिबन्ध)-१९८९,

कोमल-कण्टकावलिः - (संस्कृत व्यंग्य काव्यरचना, हिन्दी पद्यानुवाद सहित)- १९९०; द्वितीय संस्करण-२००७,

अनाघ्रातं पुष्पम् - (कथा-संग्रह)- १९९४ (दिल्ली-संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार),

नर्मदा - (संस्कृत-काव्यसंग्रह)-१९९७ (उ०प्र० संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार)

आषाढस्य प्रथमदिवसे - (कथा-संग्रह)-२००० (राजस्थान संस्कृत-अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार)

अनभीप्सितम् - (आधुनिक कथा-संग्रह)- २००७ (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत)

व्यंग्यार्थकौमुदी - (हिन्दी- पद्यानुवाद सहित)- २००८ (मoप्रo शासन द्वारा अखिल भारतीय 'कालिदास-पुरस्कार' से पुरस्कृत)

हास्यं सुध्युपास्यम् - (हिन्दी-पद्यानुवाद सहित) २०१३,

मामकीनं गृहम् - (आधुनिक कथा-संग्रह)-२०१६

प्रकाशनाधीन-रचनाएँ- अनिर्वचनीयम् (संस्कृत-कथा- संग्रह)।

पं. वासुदेव द्विवेदी प्रणीत अद्यापि

संस्कृत सेवकों के लिए पं. वासुदेव द्विवेदी प्रणीत अद्यापि पुस्तक गीता की तरह ही है। आदरणीय गुरुवर ने इस पुस्तक में विभिन्न प्रदेशों में किए गए प्रवास का संस्मरण लिखा है। जब भी मेरा मन अशांत होता है, मैं इस पुस्तक को सामने रखकर बैठ जाता हूं। आदरणीय द्विवेदी जी के जीवन चरित को पढ़ने के बाद पुनः नई ऊर्जा आ जाती है। उन्होंने अकेले दम पर संस्कृत जगत के लिए क्या कुछ किया है, उसका संक्षिप्त विवरण इस पुस्तक को पढ़ने से ज्ञात हो जाता है। यह पुस्तक अनुभव में उतारने के लिए है।

आज मैं इस पुस्तक को लेकर बैठा था। एक प्रेरक प्रसंग सामने आ गया। वे किस प्रकार संस्कृत छात्रों का संकलन कर, उसे गढ़कर नई ऊँचाई तक ले जाते थे, उसका एक प्रसंग पुस्तक से उद्धृत कर यहां लिख देता हूं।

माजुली -

अद्यापि भाषणकृते मम माजुलीयां

यात्रां स्मरामि सफलां सततं प्रसन्नः।

यस्यामलभ्यत मया खलु कृष्णकान्त-

श्छात्रो मदीयतरणेर्नवकर्णधारः॥१७॥

असम के माजुली नामक स्थान पर कृष्णकांत नामक छात्र मिले, जिसे लेकर वे वाराणसी आ गये। पुस्तक में वे लिखते हैं कि असम के लोग केवल चावल खाते हैं। इस कारण वाराणसी में कोई असम का निवासी टिक नहीं पाता, फिर भी कृष्णकांत ने रोटी खाते हुए उनके सान्निध्य में रहकर संस्कृत सीखी। ज्ञातव्य है कि प्रोफेसर कृष्ण कान्त शर्मा काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में संकाय प्रमुख पद तक पहुंच पाए।


अद्यापि में पं. वासुदेव द्विवेदी जी का सुकोमल हृदय अश्रुपात कर उठा। मिथिला में विवाह के बाद पुत्री के बिदाई के समय गाया जाने वाला गीत उनके चित्त का हरण कर लिया था । मिथिला में कन्या को सीता के रूप में तथा वर को राम के रूप में देखा जाता है। विवाह के गीत सीता और राम के नाम से ही गाये जाते हैं।

अद्यापि मैथिलकरग्रहणाऽवसाने

कन्याविदायगमनाऽवसरे श्रुतानि।

गीतान्यतीव करुणाजनकानि मत्कं

चेतो हरन्ति जनयन्ति तथाऽश्रुपातम्॥२६॥

बेटी की शादी के बाद विदाई के समय गाया जाने वाला इस मैथिली गीत 'समदन' को सुनकर करुण क्रन्दन करने लगेंगे।

एतना जतन सो सिया जी के पोसलहुसेहो सिया राम नेने जाय।

विद्यापति कृत पुरुष परीक्षा

आपने विद्या की महिमा पर अनेक श्लोक सुने होंगे। विद्यापति कृत पुरुष परीक्षा में उन्हीं बातों को दूसरे शब्दों में कहा गया है।

पुरुष परीक्षा का कुछ श्लोक देखें -

उत्तमं हि धनं विद्या दीयमानं न हीयते।

राजदायादचौराद्यैर्ग्रहीतुं नापि शक्यते ॥3

विद्या उत्तम धन है। जो देने पर भी कम नहीं होता। न ही राजा, बन्धुओं, चोरों आदि द्वारा छीना जा सकता है।

पुरुषं साहसक्लेशाद्यर्जनायासकारिणम्।

लक्ष्मीर्विमुञ्चति क्वापि विद्याऽभ्यस्यता न मुञ्चति ॥4

पुरुष, साहस अथवा कष्ट सहकर जिस लक्ष्मी को प्राप्त करता है, वह कभी भी साथ छोड़ देती है, किन्तु जिसने विद्या का अभ्यास किया हो, उसे विद्या कभी नहीं छोड़ती ।

किं तस्य मानुषत्वेन बुद्धिर्यस्य न निर्मला।

बुद्ध्याऽपि किं फलं तस्य येन विद्या न सञ्चिता ॥5

ऐसे मनुष्य के होने से क्या लाभ जिसकी बुद्धि निर्मल नहीं हो। उस बुद्धि का भी क्या फल, जिससे विद्या का अर्जन नहीं किया गया हो।

संविद्यः पुरुषः श्रेष्ठो यत्र कुत्रापि तिष्ठति।

तत्रैव भवति श्रीमान् पूजापात्रं च भूभुजाम् ॥6

विद्या से भरपूर पुरुष श्रेष्ठ होता है। वह जहाँ कहीं भी रहता है, वहीं पर धनवान् तथा राजाओं द्वारा पूज्य हो जाता है।

आसङ्गो धृतिरभ्यासो देवताशक्तिरेव च।

चत्वारो मुनिभिः प्रोक्ता विद्योपायाः पुरातने ॥7

संगति, धैर्य, अभ्यास तथा देवताओं की शक्ति, पुरातन काल में मुनियों ने विद्या प्राप्ति के ये चार उपाय बताए हैं।

पिता ददाति पुत्रेभ्यः सर्वस्वं परितोषवान् ।

नतु भाग्यं च बुद्धिश्च दातुं तेनापि शक्यते ॥3

पिता अपने पुत्र को अपना सर्वस्व देता है, किन्तु उसके द्वारा भी अपना भाग्य व बुद्धि नहीं दिया जा सकता।

नीतिशतकम्

आज मैं नीतिशतकम् के मूल पाठ को लेकर बैठ गया। इंटरनेट पर उपलब्ध 1909 में मुरादाबाद से प्रकाशित ज्वाला दत्त शर्मा के संस्करण को लेकर बैठा था।

डॉ.राजेश्वर शास्त्री मूसलगांवकर जी संस्कृत परिवार से आते हैं। वे स्वयं विद्वान हैं अतः उनकी टीका को भी सामने रखा। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें पाठ भेद भी दिया गया है। लगभग 2 घंटे तक माथापच्ची करने के बाद नीतिशतकम् के श्लोक संख्या 104 पर जाकर पाया कि डॉ. मूसलगांवकर अपने नीतिशतकम् में 'मालतीकुसुमस्येव द्वे गती स्तो मनस्विनः। श्लोक उद्धृत किया है। कई पाठ (संस्करण) में यह श्लोक नहीं मिलता। मैंने इंटरनेट पर इस श्लोक को खोजना आरंभ किया। सबसे पहले मेरा ब्लॉग संस्कृतभाषी खुलकर सामने आया। मैं चौंक गया। मैं भूल चुका था कि मैं नीतिशतकम् पर काम कर चुका हूं। फिलहाल फिर से नीतिशतकम् को गहराई से पढ़ने का सुख मिल गया। लेकिन मेरी समस्या यही नहीं रुकी। क्योंकि इस पुस्तक को पाठ्यक्रम में रखा गया है। यह पाठभेद आने वाले समय में बच्चों के लिए भी समस्या है। डॉ. प्रद्युम्न द्विवेदी ने अपने नीतिशतकम् में कुल 140 श्लोक दिए हैं। मैंने पाठ्यक्रम में रखने हेतु उन्हीं श्लोकों को स्वीकार किया है, जो सभी संस्करणों में उपलब्ध होते हैं। आने वाले दिनों में इस पुस्तक पर विस्तृत व्याख्या तथा ऑडियो वीडियो देखने सुनने को मिलेंगे।

महर्षि रमण की गीता

योग विद्या की कड़ी में आज महर्षि रमण की गीता पढ़ने का सुअवसर मिला। इस पुस्तक को एक सज्जन ने आज ही उपहार में दिया है। इस गीता के पांचवें तथा छठे अध्याय में मन को निग्रह करने के साधन वर्णित हैं।

चपलं तन्निगृह्णीयात्प्राणरोधेन मानवः ।

पाशबद्धो यथा जन्तुस्तथा चेतो न चेष्टते ॥३॥

मानवः चपलं चञ्चलं तन्मनः प्राणरोधेन प्राणवायुसंयमनेन निगृह्णीयाध्नीयात् वशयेदिति यावत्। तथा क्रियमाणे पाशबद्धो जन्तुः रज्ज्वा बन्धं प्राप्तस्तिर्यग्विशेषो यथा न चेष्टते तथा चेतो मनः प्राणरुध्दं न चेष्टते। अचञ्चलं भवतीत्यर्थः॥

अथ कथमिदं प्राणेन मनोनिग्रहमुपदिशति सहजात्मनिष्ठागुरुर्भगवान् महर्षिः ? मनसो नेतृत्वं प्राणस्य नीयमानत्वं हि मनोमयः प्राणशरीरनेतेत्यादिश्रुतिवाक्यनि प्रतिपादयन्ति। अपक्वस्य देहात्माभिमानिनः पुरुषस्य मनो देहे प्राणनिघ्नं भवति। क्षुत्पिपासाबहुलस्य बुभुक्षोः प्राणस्य स्वभावतो भोगाय विषयेषु प्रवृत्तौ सत्यां, शारीरं प्राकृतं मनस्तद्वशङ्गतं तेन नीयमानं जडवच्चेष्टते। प्राणस्य रोधेन तस्यावश्यकः संस्कारः सम्पादितो भवति। संस्कृतेन प्राणेन तद्वशगं मनोऽपि परिपक्वं भवति। एवं प्राणरोधेन मनोनिग्रहः साध्यत्वेनोपपादितः। अथ प्राणरोधेन वृत्तिनिरोधस्य प्रयोजनमाह-

प्राणरोधेन वृत्तीनां निरोधः साधितो भवेत्।

वृत्तिरोधेन वृत्तीनां जन्मस्थाने स्थितो भवेत् ॥४॥

योग में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाता है। मधुमेह जैसे रोग की उत्पत्ति में मन की विशिष्ट भूमिका होती है। योग शिक्षा के समय इस प्रकार के ग्रन्थों की उपयोगिता बढ़ जाती है।

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कालिदास की कृतियों से परिचय

 

शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ

                        शेषान्मासान्गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा ।

पश्चादावां विरहगुणितं तं तमात्माभिलाषं

                        निर्विक्ष्याव: परिणतसरच्चन्द्रिकासु क्षपासु ॥

आज कालिदास याद आ रहे हैं। कालिदास अपने शाप से मुक्ति के प्रति आश्वस्त हैं परन्तु हमें बंधन से मुक्त नहीं करा सके।

खैर मैं कालिदास को अपनी इच्छा के अनुकूल याद नहीं कर सका परंतु आपको कालिदास की कृतियों से परिचय करा देता हूं ।

 महाकवि कालिदास महाकाव्य, खण्ड-काव्य तथा नाट्य-तीनों काव्यविधाओं की रचना में कुशल थे। कालिदास के परवर्ती संस्कृत-साहित्य पर इनका प्रभाव पड़ा है। यहां तक कि कई कवियों ने अमरता प्राप्त करने के लिये अपनी रचनाओं के साथ कालिदास का नाम भी जोड़ दिया। परिणामस्वरूप यह विषय निर्विवाद नहीं रह सका कि कालिदास की वास्तविक रचनायें कितनी हैं ? कालिदास के नाम पर विरचित जिन कृतियों का नाम लिया जाता है, उनमें प्रमुख कृतियाँ निम्नाङ्कित हैं

१. ऋतुसंहार २. कुमारसम्भव ३. मेघदूत ४. रघुवंश ५. मालविकाग्निमित्र ६. विक्रमोर्वशीय ७. अभिज्ञानशाकुन्तल ८. श्रुतबोध ९. राक्षसकाव्य १०. शृङ्गारतिलक ११. गङ्गाष्टक १२. श्यामलादण्डक १३. नलोदयकाव्य १४.पुष्पबाणविलास १५. ज्योतिर्विदाभरण १६. कुन्तलेश्वरदौत्य १७. लम्बोदर प्रहसन १८. सेतु-बन्ध तथा १९. कालिस्तोत्र आदि।

उक्त कृतियों में संख्या दो से लेकर संख्या सात तक की रचनायें निर्विवाद रूप से कालिदास की मानी जाती हैं। प्रथम कृति 'ऋतु-संहार' के बारे में विद्वान् एकमत नहीं है, परन्तु परम्परा उसे भी कालिदास की कृति स्वीकार करती है । अतः इन्हीं सात कृतियों को कालिदास की रचना मानकर उनका परिचय दिया जा रहा है।

काव्य-विधा की दृष्टि से उक्त सात कृतियों को तीन श्रेणियों में रखा जाता है -

१. गीति-काव्य अथवा खण्ड काव्य-(क) ऋतुसंहार (ख) मेघदूत । २. महाकाव्य-(क) कुमारसम्भव (ख) रघुवंश ।

३. नाट्य अथवा दृश्य काव्य—(क) मालविकाग्निमित्र (ख) विक्रमोर्वशीय (ग) अभिज्ञानशाकुन्तल।

इन सात कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

१. ऋतुसंहार- यह कालिदास की प्रथम रचना मानी जाती है । इसमें कुल छ: सर्ग हैं और उनमें क्रमश: ग्रीष्म, वर्षा, शरद् , हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त इन छ: ऋतुओं का अत्यन्त स्वाभाविक, सरस एवं सरल वर्णन है । इसमें ऋतुओं का सहृदयजनों के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का भी हृदयग्राही चित्रण है । प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण हृदय को अत्यन्त आह्लादित करता है। इस काव्य में कालिदास की कमनीय शैली के दर्शन होने के कारण कुछ विद्वान् इसे कालिदास की रचना नहीं मानते।

२. मेघदूतम्- यह एक खण्ड-काव्य अथवा गीति-काव्य है । इसके दो भाग हैं(१) पूर्वमेघ (२) उत्तरमेघ । इसमें अपनी वियोग-विधुरा कान्ता के पास वियोगी यक्ष मेघ के द्वारा अपना प्रणय-संदेश भेजता है। पूर्वमेघ में महाकवि, रामगिरि से लेकर अलका तक के मार्ग का विशद वर्णन करते समय, भारतवर्ष की प्राकृतिक छटा का एक अतीव हृदयग्राही चित्र खडा कर देता है। वस्तुतः पूर्वमेघ में बाह्य-प्रकृति का सजीव चित्र आँखों के नाचने लगता है । उत्तरमेघ में मानव की अन्तः प्रकृति का ऐसा विशद चित्रण सहदय का चित्त-चञ्चरीक नाच उठता है।

इस खण्ड-काव्य ने कालिदास को सहृदय जनों के मानस मन्दिर में महनीय स्थान का भागी बना दिया है। इसकी महत्ता का आकलन इसी से किया जा सकता है कि इस पर लगभग ७० टीकायें लिखी गयीं और इसको आदर्श मानकर प्रचूर मात्रा में सन्देश काव्यों की रचनायें की गयीं। आलोचकों ने 'मेघे माघे गतं वयः' कहकर इसकी महत्ता प्रदर्शित की।

३. कुमारसम्भवम्- यह एक महाकाव्य है। इसमें कुल सत्रह सर्ग हैं। मल्लिनाथ ने प्रारम्भिक आठ सर्गों पर ही टीका लिखी है और परवर्ती अलङ्कारशास्त्रियों ने इन्हीं आठ सर्गों के पद्यों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। इसलिए विद्वान् प्रारम्भिक आठ सर्गों को ही कालिदास द्वारा विरचित मानते हैं । इस महाकाव्य में शिव के पुत्र कुमार की कथा वर्णित है। कुमार को षाण्मातुर, कार्तिकेय तथा स्कन्द भी कहा जाता है । इसकी शैली मनोरम एवं प्रभावशाली है । भगवान् शङ्कर के द्वारा मदनदहन, रतिविलाप, पार्वती की तप:साधना तथा शिव-पार्वती के प्रणय-प्रसंग आदि का वृत्तान्त बड़े ही कमनीय ढंग से वर्णित है जिससे सरसजनों का मन इसमें रमता है।

४. रघुवंशम्- उन्नीस सर्गों में रचित कालिदास का यह सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशी राजाओं की कथाओं का काव्यात्मक वर्णन है । सूर्यवंशी राजाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वर्णन हेतु महाकवि ने छः सर्गों ( १०-१५ ) को निबद्ध किया है।

            कालिदास की इस कृति में लक्षण ग्रन्थों में प्रतिपादित महाकाव्य का सम्पूर्ण लक्षण घटित हो जाता है । इस महाकाव्य में कालिदास की काव्यप्रतिभा एवं काव्य-शैली दोनों को खुलकर खेलने का अवसर प्राप्त हुआ है । इसकी रसयोजना, अलङ्कार-विधान, चरित्र-चित्रण तथा प्रकृति-सौन्दर्य आदि सभी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच कर सहृदय समाज का रसावर्जन करते हुए कालिदास की कीर्ति-कौमुदी को चतुर्दिक बिखेरते हैं। रघुवंश की व्यापकता एव लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस पर लगभग ४० टीकायें लिखी गयी हैं और इसकी रचना करने के कारण कालिदास को 'रघुकार' की पदवी से विभूषित किया जाता है।

५. मालविकाग्निमित्रम्- यह पाँच अंकों का एक नाटक हैं। इसमें शुङ्गवंशीय राजा अग्निमित्र तथा मालविका की प्रणय कथा का मनोहर तथा हृदयहारी चित्रण है। इस गवलासा राजाओं के अन्त:पर में होने वाली कामक्रीडाओं तथा रानियों की पारस्परिक यथार्थ तथा सजीव चित्रण है।

फेसबुक 25 अक्टूबर 2017

#कालिदास

विदिशा नरेश अग्निमित्र वस्तुतः मालविका के रूप यौवन का मतवाला है। तभी तो उसे मालविका के गीतअभिनयनृत्य उतना नहीं लुभाताजितना उसका खड़ा रहनाक्योंकि इसी स्थानक में वह मालविका के अंग प्रत्यंगों का उभार भली-भांति देख सकता था और अपनी सतृष्ण आंखों की प्यास बुझा सकता था। वह तो उस श्यामा नायिका की रूप माधुरी का पान करके चरम निवृत्ति का सौभाग्य पाना चाहता था। मालविकाग्निमित्रम् में अग्निमित्र का उद्गार देखिए -

अहो सर्वास्ववस्थासु चारुता शोभान्तरं पुष्यति। तथाहि-

                        वामं संधिस्तिमितवलयं न्यस्य हस्तं नितम्बे

                                    कृत्वा श्यामाविटपसदृशं स्रस्तमुक्तं द्वितीयम् ।

                        पादाङ्गुष्ठालुलितकुसुमे कुट्टिमे पातिताक्षं

                                    नृत्तादस्याः स्थितमतितरां कान्तमृज्वायतार्धम् ।। 2-6।।

 मालविका ने बाँया हाथ नितंब पर तथा  दाहिना हाथ श्यामा लता की तरह शिथिल कर लटकाये है,जिससे कलाई में कंगन निश्चल निस्पंद है। बिखरे हुए कुसम को पैर के अंगूठे से मचलती हुई, आखें फर्श पर गड़ाए हुएजिसमें उसके शरीर का ऊपरी आधा भाग सीधा और लंबा हो रहा था। ऐसा उसका खड़ा होने का अन्दाजनृत्य से भी अधिक मोहक लग रहा था।

६. विक्रमोर्वशीयम्- इस नाटक में कुल पाँच अङ्ग है । प्राग्वेद आदि में वर्णित चन्द्रवंशीय राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी का प्रेमाख्यान इस नाटक का इतिवृत्त है। परोपकार-परायण पुरूरवा द्वारा अप्सरा उर्वशी का राक्षसों के चंगुल से उद्धार से ही इसकी कथा का प्रारम्भ होता है। तदनन्तर उर्वशी की पुरूरवा के प्रति कामासक्ति और उर्वशी के वियोग में राजा की मदोन्मत्तता प्रतिपाद्य विषय है।

७. अभिज्ञानशाकुन्तलम्- कालिदास की नाट्य कला की चरम परिणति शाकुन्तल में हुई है। यह भारतीय तथा अभारतीय दोनों प्रकार के आलोचकों में समान आदर का भाजन है। जहाँ एक ओर भारतीय परम्परा 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' कहकर इसकी महनीयता का गुणगान करती है वहीं पाश्चात्त्य जर्मन विद्वान् महाकवि गेटे ऐश्वर्यं यदि वाञ्छसि प्रियसखे शाकुन्तलं सेव्यताम्' कहकर उसके रसास्वाद हेतु सम्पूर्ण जगत् का आह्वान करते हैं। शाकुन्तल में सब मिलाकर सात अङ्क हैं और इसमें पुरुवंशीय नरेश दुष्यन्त तथा कण्व-दुहिता शकुन्तला की प्रणय-कथा का अतीव चित्ताकर्षक एवं मनोरम वर्णन है ।

फेसबुक 1 नवंबर 2017

#कालिदास जयन्ती

            मेघदूतम् में कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी को यक्ष शाप विमुक्त हुआ था। उसे कालिदास के जन्म का संकेत माना जाता है और उसी को आधार मानकर पूरे देश में कालिदास जयंती मनाई जाती है। इसी प्रकार महर्षि व्यास, वाल्मीकि भवभूति आदि कवियों की जयंती भी हम अंतःसाक्ष्य  में से किसी एक प्रतीक को लेकर मनाते हैं।

            आषाढ़ एकादशी के बाद भगवान विष्णु क्षीर सागर में जाकर सो जाते हैं। इसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है।  देवशयनी एकादशी के चार माह बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी मनाई जाती है। देवोत्थान एकादशी, जिसे प्रबोधनी एकादशी भी कहा जाता है। इसे पापमुक्त करने वाली एकादशी माना जाता है। इस श्लोक में यक्ष अपने प्रियतमा से देवशयनी एकादशी को कहता है कि इन बचे हुए चार माह को भी तुम किसी प्रकार आँख मूँदकर काट लो। अगली देवोत्थान एकादशी को जब शेषनाग की शय्या से विष्णु उठेंगें उसी दिन मेरा शाप भी बीत जाएगा।

            शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ

                        शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा

            पश्चादावां विरहगुणितं तं तमात्माभिलाषं

                        निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु।।  मेघदूतम् 2-53

कुबेर ने जब यह बात सुनी कि बादल ने यक्ष की स्त्री को ऐसा संदेश दिया है, तब उसके मन में भी दया उमड़ आयी, उनका क्रोध उतर गया। उन्होंने अपना शाप लौटाकर उन दोनों पति पत्नी को फिर मिला दिया। इस मिलन से उनका सारा दुख जाता रहा और वह फिर बड़ी प्रसन्न हो उठे। कुबेर ने उन दोनों के लिए सुख लूटने का ऐसा प्रबंध कर दिया कि उन्हें फिर कभी दुख मिला ही नहीं।

            श्रुत्वा वार्तां जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्यः

                        शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायास्तकोपः।

            संयोज्यैतौ विगलितशुचौ दंपती दृष्टचित्तौ

                        भोगानिष्टानविरतसुखं भोजयामास शश्वत्।। 62।।

 धार्मिक मान्यता है कि इस दिन श्री हरि, राजा बलि के राज्य से चातुर्मास का विश्राम पूरा करके बैकुंठ लौटे थे। इस दिन तुलसी विवाह भी किया जाता है। इस वर्ष यह शुभ दिन 31 अक्टूबर 2017 यानि मंगलवार को था।

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