शापान्तो
मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ
शेषान्मासान्गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा ।
पश्चादावां
विरहगुणितं तं तमात्माभिलाषं
निर्विक्ष्याव:
परिणतसरच्चन्द्रिकासु क्षपासु ॥
आज
कालिदास याद आ रहे हैं। कालिदास अपने शाप से मुक्ति के प्रति आश्वस्त हैं परन्तु
हमें बंधन से मुक्त नहीं करा सके।
खैर
मैं कालिदास को अपनी इच्छा के अनुकूल याद नहीं कर सका परंतु आपको कालिदास की
कृतियों से परिचय करा देता हूं ।
महाकवि कालिदास महाकाव्य,
खण्ड-काव्य तथा नाट्य-तीनों काव्यविधाओं की रचना में कुशल थे।
कालिदास के परवर्ती संस्कृत-साहित्य पर इनका प्रभाव पड़ा है। यहां तक कि कई कवियों
ने अमरता प्राप्त करने के लिये अपनी रचनाओं के साथ कालिदास का नाम भी जोड़ दिया।
परिणामस्वरूप यह विषय निर्विवाद नहीं रह सका कि कालिदास की वास्तविक रचनायें कितनी
हैं ? कालिदास के नाम पर विरचित जिन कृतियों का नाम लिया
जाता है, उनमें प्रमुख कृतियाँ निम्नाङ्कित हैं
१.
ऋतुसंहार २. कुमारसम्भव ३. मेघदूत ४. रघुवंश ५. मालविकाग्निमित्र ६. विक्रमोर्वशीय
७. अभिज्ञानशाकुन्तल ८. श्रुतबोध ९. राक्षसकाव्य १०. शृङ्गारतिलक ११. गङ्गाष्टक
१२. श्यामलादण्डक १३. नलोदयकाव्य १४.पुष्पबाणविलास १५. ज्योतिर्विदाभरण १६.
कुन्तलेश्वरदौत्य १७. लम्बोदर प्रहसन १८. सेतु-बन्ध तथा १९. कालिस्तोत्र आदि।
उक्त
कृतियों में संख्या दो से लेकर संख्या सात तक की रचनायें निर्विवाद रूप से कालिदास
की मानी जाती हैं। प्रथम कृति 'ऋतु-संहार'
के बारे में विद्वान् एकमत नहीं है, परन्तु
परम्परा उसे भी कालिदास की कृति स्वीकार करती है । अतः इन्हीं सात कृतियों को
कालिदास की रचना मानकर उनका परिचय दिया जा रहा है।
काव्य-विधा
की दृष्टि से उक्त सात कृतियों को तीन श्रेणियों में रखा जाता है -
१.
गीति-काव्य अथवा खण्ड काव्य-(क) ऋतुसंहार (ख) मेघदूत । २. महाकाव्य-(क) कुमारसम्भव
(ख) रघुवंश ।
३.
नाट्य अथवा दृश्य काव्य—(क)
मालविकाग्निमित्र (ख) विक्रमोर्वशीय (ग) अभिज्ञानशाकुन्तल।
इन
सात कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
१.
ऋतुसंहार- यह कालिदास की प्रथम रचना मानी जाती है
। इसमें कुल छ: सर्ग हैं और उनमें क्रमश: ग्रीष्म, वर्षा, शरद् , हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त इन छ: ऋतुओं का अत्यन्त स्वाभाविक, सरस
एवं सरल वर्णन है । इसमें ऋतुओं का सहृदयजनों के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का भी
हृदयग्राही चित्रण है । प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण हृदय को अत्यन्त आह्लादित
करता है। इस काव्य में कालिदास की कमनीय शैली के दर्शन होने के कारण कुछ विद्वान्
इसे कालिदास की रचना नहीं मानते।
२.
मेघदूतम्- यह एक खण्ड-काव्य अथवा गीति-काव्य है ।
इसके दो भाग हैं(१) पूर्वमेघ (२) उत्तरमेघ । इसमें अपनी वियोग-विधुरा कान्ता के
पास वियोगी यक्ष मेघ के द्वारा अपना प्रणय-संदेश भेजता है। पूर्वमेघ में महाकवि,
रामगिरि से लेकर अलका तक के मार्ग का विशद वर्णन करते समय, भारतवर्ष की प्राकृतिक छटा का एक अतीव हृदयग्राही चित्र खडा कर देता है।
वस्तुतः पूर्वमेघ में बाह्य-प्रकृति का सजीव चित्र आँखों के नाचने लगता है ।
उत्तरमेघ में मानव की अन्तः प्रकृति का ऐसा विशद चित्रण सहदय का चित्त-चञ्चरीक नाच
उठता है।
इस
खण्ड-काव्य ने कालिदास को सहृदय जनों के मानस मन्दिर में महनीय स्थान का भागी बना
दिया है। इसकी महत्ता का आकलन इसी से किया जा सकता है कि इस पर लगभग ७० टीकायें
लिखी गयीं और इसको आदर्श मानकर प्रचूर मात्रा में सन्देश काव्यों की रचनायें की
गयीं। आलोचकों ने 'मेघे माघे गतं वयः'
कहकर इसकी महत्ता प्रदर्शित की।
३.
कुमारसम्भवम्- यह एक महाकाव्य है। इसमें कुल सत्रह
सर्ग हैं। मल्लिनाथ ने प्रारम्भिक आठ सर्गों पर ही टीका लिखी है और परवर्ती
अलङ्कारशास्त्रियों ने इन्हीं आठ सर्गों के पद्यों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत
किया है। इसलिए विद्वान् प्रारम्भिक आठ सर्गों को ही कालिदास द्वारा विरचित मानते
हैं । इस महाकाव्य में शिव के पुत्र कुमार की कथा वर्णित है। कुमार को षाण्मातुर,
कार्तिकेय तथा स्कन्द भी कहा जाता है । इसकी शैली मनोरम एवं
प्रभावशाली है । भगवान् शङ्कर के द्वारा मदनदहन, रतिविलाप,
पार्वती की तप:साधना तथा शिव-पार्वती के प्रणय-प्रसंग आदि का
वृत्तान्त बड़े ही कमनीय ढंग से वर्णित है जिससे सरसजनों का मन इसमें रमता है।
४.
रघुवंशम्- उन्नीस सर्गों में रचित कालिदास का यह
सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक के
सूर्यवंशी राजाओं की कथाओं का काव्यात्मक वर्णन है । सूर्यवंशी राजाओं में मर्यादा
पुरुषोत्तम राम के वर्णन हेतु महाकवि ने छः सर्गों ( १०-१५ ) को निबद्ध किया है।
कालिदास की इस कृति में
लक्षण ग्रन्थों में प्रतिपादित महाकाव्य का सम्पूर्ण लक्षण घटित हो जाता है । इस
महाकाव्य में कालिदास की काव्यप्रतिभा एवं काव्य-शैली दोनों को खुलकर खेलने का
अवसर प्राप्त हुआ है । इसकी रसयोजना, अलङ्कार-विधान, चरित्र-चित्रण तथा प्रकृति-सौन्दर्य आदि सभी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच कर
सहृदय समाज का रसावर्जन करते हुए कालिदास की कीर्ति-कौमुदी को चतुर्दिक बिखेरते
हैं। रघुवंश की व्यापकता एव लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस
पर लगभग ४० टीकायें लिखी गयी हैं और इसकी रचना करने के कारण कालिदास को 'रघुकार' की पदवी से विभूषित किया जाता है।
५.
मालविकाग्निमित्रम्- यह पाँच अंकों का एक नाटक
हैं। इसमें शुङ्गवंशीय राजा अग्निमित्र तथा मालविका की प्रणय कथा का मनोहर तथा
हृदयहारी चित्रण है। इस गवलासा राजाओं के अन्त:पर में होने वाली कामक्रीडाओं तथा
रानियों की पारस्परिक यथार्थ तथा सजीव चित्रण है।
फेसबुक 25 अक्टूबर 2017
#कालिदास
विदिशा नरेश अग्निमित्र वस्तुतः मालविका के रूप यौवन का मतवाला है। तभी तो उसे मालविका के गीत, अभिनय, नृत्य उतना नहीं लुभाता, जितना उसका खड़ा रहना, क्योंकि इसी स्थानक में वह मालविका के अंग प्रत्यंगों का उभार भली-भांति देख सकता था और अपनी सतृष्ण आंखों की प्यास बुझा सकता था। वह तो उस श्यामा नायिका की रूप माधुरी का पान करके चरम निवृत्ति का सौभाग्य पाना चाहता था। मालविकाग्निमित्रम् में अग्निमित्र का उद्गार देखिए -
अहो सर्वास्ववस्थासु चारुता शोभान्तरं पुष्यति। तथाहि-
वामं संधिस्तिमितवलयं न्यस्य हस्तं नितम्बे
कृत्वा श्यामाविटपसदृशं स्रस्तमुक्तं द्वितीयम् ।
पादाङ्गुष्ठालुलितकुसुमे कुट्टिमे पातिताक्षं
नृत्तादस्याः स्थितमतितरां कान्तमृज्वायतार्धम् ।। 2-6।।
मालविका ने बाँया हाथ नितंब पर तथा दाहिना हाथ श्यामा लता की तरह शिथिल कर लटकाये है,जिससे कलाई में कंगन निश्चल निस्पंद है। बिखरे हुए कुसम को पैर के अंगूठे से मचलती हुई, आखें फर्श पर गड़ाए हुए, जिसमें उसके शरीर का ऊपरी आधा भाग सीधा और लंबा हो रहा था। ऐसा उसका खड़ा होने का अन्दाज, नृत्य से भी अधिक मोहक लग रहा था।
६.
विक्रमोर्वशीयम्- इस नाटक में कुल पाँच अङ्ग है ।
प्राग्वेद आदि में वर्णित चन्द्रवंशीय राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी का
प्रेमाख्यान इस नाटक का इतिवृत्त है। परोपकार-परायण पुरूरवा द्वारा अप्सरा उर्वशी
का राक्षसों के चंगुल से उद्धार से ही इसकी कथा का प्रारम्भ होता है। तदनन्तर
उर्वशी की पुरूरवा के प्रति कामासक्ति और उर्वशी के वियोग में राजा की मदोन्मत्तता
प्रतिपाद्य विषय है।
७.
अभिज्ञानशाकुन्तलम्- कालिदास की नाट्य कला की चरम
परिणति शाकुन्तल में हुई है। यह भारतीय तथा अभारतीय दोनों प्रकार के आलोचकों में
समान आदर का भाजन है। जहाँ एक ओर भारतीय परम्परा 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' कहकर
इसकी महनीयता का गुणगान करती है वहीं पाश्चात्त्य जर्मन विद्वान् महाकवि गेटे ‘ऐश्वर्यं यदि वाञ्छसि प्रियसखे शाकुन्तलं सेव्यताम्' कहकर उसके रसास्वाद हेतु सम्पूर्ण जगत् का आह्वान करते हैं। शाकुन्तल में
सब मिलाकर सात अङ्क हैं और इसमें पुरुवंशीय नरेश दुष्यन्त तथा कण्व-दुहिता
शकुन्तला की प्रणय-कथा का अतीव चित्ताकर्षक एवं मनोरम वर्णन है ।
फेसबुक 1
नवंबर 2017
#कालिदास जयन्ती
मेघदूतम्
में कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी को यक्ष शाप विमुक्त हुआ था। उसे कालिदास के
जन्म का संकेत माना जाता है और उसी को आधार मानकर पूरे देश में कालिदास जयंती मनाई
जाती है। इसी प्रकार महर्षि व्यास, वाल्मीकि भवभूति आदि कवियों की जयंती भी हम अंतःसाक्ष्य में से किसी एक प्रतीक को लेकर मनाते हैं।
आषाढ़
एकादशी के बाद भगवान विष्णु क्षीर सागर में जाकर सो जाते हैं। इसे देवशयनी एकादशी
कहा जाता है। देवशयनी एकादशी के चार माह
बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी मनाई जाती है। देवोत्थान एकादशी, जिसे प्रबोधनी एकादशी भी कहा जाता है। इसे
पापमुक्त करने वाली एकादशी माना जाता है। इस श्लोक में यक्ष अपने प्रियतमा से देवशयनी
एकादशी को कहता है कि इन बचे हुए चार माह को भी तुम किसी प्रकार आँख मूँदकर काट
लो। अगली देवोत्थान एकादशी को जब शेषनाग की शय्या से विष्णु उठेंगें उसी दिन मेरा
शाप भी बीत जाएगा।
शापान्तो
मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ
शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने
मीलयित्वा
पश्चादावां
विरहगुणितं तं तमात्माभिलाषं
निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु
क्षपासु।। मेघदूतम् 2-53
कुबेर ने जब यह बात सुनी कि बादल ने यक्ष की स्त्री को ऐसा
संदेश दिया है, तब उसके
मन में भी दया उमड़ आयी, उनका क्रोध उतर गया। उन्होंने अपना
शाप लौटाकर उन दोनों पति पत्नी को फिर मिला दिया। इस मिलन से उनका सारा दुख जाता
रहा और वह फिर बड़ी प्रसन्न हो उठे। कुबेर ने उन दोनों के लिए सुख लूटने का ऐसा
प्रबंध कर दिया कि उन्हें फिर कभी दुख मिला ही नहीं।
श्रुत्वा
वार्तां जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्यः
शापस्यान्तं सदयहृदयः
संविधायास्तकोपः।
संयोज्यैतौ
विगलितशुचौ दंपती दृष्टचित्तौ
भोगानिष्टानविरतसुखं भोजयामास
शश्वत्।। 62।।
धार्मिक मान्यता है
कि इस दिन श्री हरि, राजा बलि के राज्य से चातुर्मास का विश्राम पूरा करके बैकुंठ लौटे थे। इस
दिन तुलसी विवाह भी किया जाता है। इस वर्ष यह शुभ दिन 31 अक्टूबर 2017 यानि
मंगलवार को था।