करोना के परिप्रेक्ष्य में स्मृति ग्रंथों में वर्णित आचरण की व्यवस्था




स्मृतियां हिन्दुओं के धर्म का मूल उपादान है। जिस प्रकार श्रुति को वेद माना जाता है उसी प्रकार धर्मसूत्र भी स्मृति ग्रन्थ मानी जाती है।
स्मृतियां बहुपयोगी सामाजिक विषयों का सङ्ग्रह हैं, जिनमें आचारव्यवहार तथा प्रायश्चित्त जैसे विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार श्रुति-स्मृतियों में प्रतिपादित आचार के पालन से ही समाज के सर्वाधिक कल्याण की आशा करते हैं।
         स्मृति ग्रन्थों में कुछ विषयों के प्रतिपादन में भिन्नतायें प्रतीत होती हैं। मनुस्मृति तथा याज्ञवलक्य स्मृति में आचारव्यवहारप्रायश्चित्त तीनों ही विषयों का समावेश किया गया है जबकि नारद स्मृति मूलतः व्यवहार प्रधान है। मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। पञ्चम अध्याय में शौचाचारस्त्री धर्मअशौचाचार का वर्णन किया गया है। दशम अध्याय में आपद्धर्मषट्कर्मचतुवर्णों के कर्म आदिएकादश अध्याय में पातकमहापातकप्रायश्चित्त आदि तथा द्वादश अध्याय में दार्शनिक तत्त्वांे का विवेचन किया है।
याज्ञवल्क्य स्मृति में तीन अध्याय हैं - आचारव्यवहार तथा प्रायश्चित्त। आचाराध्याय में तेरह प्रकरण हैं जिसमें चातुर्वण्र्य तथा आश्रम के आचारविवाह आदि संस्कार तथा राजा के आचार का वर्णन है। व्यवहाराध्याय में पच्चीस प्रकरण है जिसमें कर व्यवस्थाऋणादानवेतनादान आदि व्यवहारों का वर्णन है। प्रायश्चित्ताध्याय में पांच प्रकरण हैं जिसमें अशौच प्रकरणआथद्धर्मप्रायश्चित्त आदि का वर्णन किया गया है।

          मनु का कथन है कि - ‘‘स्मृति तथा धर्मशास्त्र का अर्थ एक ही जानना चाहिए।’’ वेद को श्रुति तथा धर्मशास्त्र को स्मृति जानना चाहिए वे सभी विषयों में प्रतिकूल तर्क के योग्य नहीं हैं क्योंकि उन दोनों से ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है।
                 श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ।
                 तै सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥ मनु 2.10
स्मृति के अन्तर्गत षड्वेदाङधर्मशास्त्रइतिहासपुराणअर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र इन सभी विषयों का अन्तर्भाव किया गया है।
धर्मशास्त्र उन शास्त्रों को कहा जाता है जिनमेंप्रजा के अधिकारकर्तव्यसामाजिक आचार-विचारवर्णाश्रम धर्म-व्यवस्थानीतिसदाचार आदि शासन सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया जाता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि स्मृतियों की रचना धर्मसूत्रों के आधार पर की गई है।
      स्मृतियां हमारी संस्कृतिआचारव्यवहार को स्मरण रखने में सहायक है।

स्मृतियां व्यक्ति के कार्यों पर नियंत्रण लगाकरअनुशासित करकेव्यक्ति को समाज से अलग नहीं रखती अपितु स्मृतियां व्यक्ति को सुसंस्कृतसामाजिक प्राणी बनाने में सहायक होती है।
स्मृति ग्रन्थ का तात्पर्य उन रचनाओं से है जो प्रायः श्लोकों में है तथा उन्हीं विषयों का प्रतिपादन करती हैं जिनका विवेचन धर्मसूत्रों में किया गया है। स्मृतियां प्रायः पद्य में तथा धर्मसूत्र गद्य में हैं। भाषा की दृष्टि से धर्मसूत्रों की भाषा अत्यंत क्लिष्ट तथा विद्वज्जनों की भाषा है किन्तु स्मृति की भाषा अत्यन्त सरल एवं आमजन की बोलचाल की भाषा है। विषय वस्तु की दृष्टि से स्मृतियां धर्मसूत्रों से अधिक व्यवस्थित तथा सुगठित है।
स्मृतियों की सङ्ख्या
मुख्य स्मृतियों की संङ्ख्या 18 है - मनुस्मृतिबृहस्पति स्मृतिदक्ष स्मृतिगौतम स्मृतियम स्मृतिअंग्रिा स्मृतियोगीश्वर स्मृतिप्रचेता स्मृतिशातातप स्मृतिपराशर स्मृतिसंवर्त स्मृतिउशना स्मृतिलिखित स्मृतिशंख स्मृतिअत्रि स्मृतिविष्णु स्मृतिआपस्तम्ब स्मृति तथा हारीत स्मृति।

अष्टादश स्मृति में निम्न प्रमुख स्मृतियों का समावेश किया गया है - अत्रि संहिताविष्णु प्रोक्त धर्महारीत स्मृतिऔशनस स्मृतिअंग्रिा रस स्मृतिसंवर्त स्मृतिलघु यम स्मृतिआपस्तम्ब स्मृतिबृहस्पति स्मृतिकात्यायन स्मृतिपराशर स्मृतिदक्ष स्मृतिगौतम स्मृतिशातातप स्मृति।
वीरमित्रोदय के अनुसार स्मृतिकारों की संङ्ख्या 21 है -
        वसिष्ठो नारदश्चैव सुमन्तुश्च पितामहः।
        विष्णु कार्णाजिनिः सत्यव्रतो गार्ग्यश्च देवल।।
        जमदग्निर्भरद्वाजः पुलस्य पुलहः क्रतुः।
        आत्रेयश्च गवेयश्च मरीचिर्वत्स एवच।।
        पारस्करश्चर्ष्यशृंगे वैजावापस्तथैवच।
        इत्येते स्मृतिकर्तारः एकविंशतिरीरिताः।।
इसके अतिरिक्त उप स्मृतियों के भी नाम गिनाये गये हैं -
         जाबालिर्नाचिकेतश्च स्कन्दो लौगाक्षिकाश्यपौ।
         व्यास सनत्कुमारश्च शन्तनुर्जनस्तथा।।
         व्याघ्रः कात्यायश्चैव जातूमकण्र्य कपिञ्जलः।
         बौधायनश्च काणादो विश्वामित्रस्तथैव च।।
         पैठीनसिर्गोभिलश्चेत्युपस्मृति विधायकाः।
स्मृति सन्दर्भ के प्रथम भाग में - मनुस्मृतिनारदीयअत्रि स्मृतिअत्रि संहिताप्रथम विष्णु स्मृतिः (महात्म्यं)विष्णु स्मृतिद्वितीय भाग में - पराशर स्मृतिवृहत्पराशर स्मृतिलघुहारीत स्मृतिवृद्धहारीत स्मृतितृतीय भाग में - याज्ञवल्क्य स्मृतिकात्यायन स्मृतिलिखित स्मृतिशंखलिखित स्मृतिवसिष्ठ स्मृतिलघुव्यास संहिता, (वेद) व्यास स्मृतिबौधायन स्मृतिचतुर्थ भाग में-गौतम स्मृतिवृद्ध गौतम स्मृतियम स्मृतिलघुयम स्मृतिवृहद्यम स्मृतिअरूण स्मृतिपुलस्त्य स्मृतिबुध स्मृतिवसिष्ठ स्मृति नं. - 2, वृहद्योगियाज्ञवल्क्य स्मृतिब्रह्मोक्तयाज्ञवल्क्यसंहिताकाश्यम स्मृतिव्याघ्रपाद स्मृति पंचम भाग में - कपिल स्मृतिवाधूल स्मृतिविश्वामित्र स्मृतिलोहित स्मृतिनारायण स्मृतिशाण्डिल्य स्मृतिकण्व स्मृतिदाल्भ्य स्मृतिअंगिरस स्मृति नं-2, (क) पूर्वांगिरसम् (ख) उत्तरांगिरसम् षष्ठ भाग में - लौगाक्षि स्मृति तथा मार्कण्डेय स्मृति का संग्रह है।
स्मृतिचन्द्रिका के अनुसार -
          तेषां मन्वङिगरोव्यासगौतमान्न्युशनोयमाः।
          वसिष्ठदक्षसंवर्तशातातप शातातपपराशराः।।
          विष्णवापस्तम्बहारीताः शंङ्ख कात्यायनो गुरुः।
          प्रचेता नारदो योगी बौधायनपितमहौ।।
          सुमन्तु कश्यपो बभ्रु पैठीनो व्याघ्र एव च।
          सत्यव्रतो भारद्वाजो गाग्र्यः काष्र्णाजिनिस्तािा।।
          जाबालिर्जमदग्निश्च लौगाक्षिब्र्रह्मसम्भवः।
          इति धर्मप्रणेतारः षङिशदृषयस्मृताः।।
स्मृतियों की सङ्ख्या में एक मत नहीं है। स्मृतियों की संङ्ख्या 100 के समकक्ष मानी जाती है। जिनमें 18 स्मृतियां प्रमुख हैं। उपस्मृतियों की सङ्ख्या अधिकतम है।
वेदों में धर्म का कोई व्यवस्थित उल्लेख नहीं है। किन्तु स्मृतियाँ वेदों से अधिक सुगठित शास्त्र है। वेदों के समान ही स्मृतियों में भी धर्मशिक्षासंस्कारआश्रम व्यवस्थाराजधर्म आदि विषयों का चरणबद्ध प्रतिपादन किया गया है। सामाजिक व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए मनु ने आश्रम व्यवस्था के समान वर्ण व्यवस्था को भी महत्त्वपूर्ण माना है।
        जिस प्रकार स्मृतियों में आचार का अधिक वर्णन किया है उसी प्रकार वेदों में भी आचार की शिक्षा दी जाती है। ‘‘चरित्र रक्षा के बारे में यजुर्वेद में कहा गया है कि - ‘‘मैं तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे प्राणों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरी आंखों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे कानों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरी नाभि को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे आचरण तथा पैरों को शुद्ध करता हूँ।’’
      ऋग्वेद में दान का महत्त्व वर्णित किया गया है। दान सभी इष्ट सुखों को देने वाला है तथा मनुष्य की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है।
   ‘‘दान देने वालों को ही उत्तम धन प्राप्त होते हैं। दान देने वालों को द्युलोक में सूर्यलोक प्राप्त होते हैं। दान देने वाले अरत्व या मोक्ष को प्राप्त करते हैं। दान देने वाले ही अपनी आयु को निरन्तर बढ़ाते हैं।’’  मनु ने भी दान की प्रशंसा की है।
 याज्ञवल्क्य स्मृति में दान को धर्म के मुख्य साधनों में गिनाया है।’’ उनका कथन है कि ‘‘अहिंसासत्यअस्तेयस्वच्छतासंयमदानमनोनिग्रहदयाक्षमा ये सभी धर्म के साधन है।’’
    महर्षि मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं - धृतिक्षमादमअस्तेयशौचइन्द्रियनिग्रहघी (तत्वज्ञान)विद्यासत्यअक्रोध।
    वेदों में हिंसा का निषेध करने के लिए कहा गया है।’’ गाय तथा मनुष्य का वध करने वाले दूर रहें।’’  इसी प्रकार प्राणियों की हिंसा कभी भी सुखदायक नहीं होती है।
     इस चराचर जगत् में जो हिंसा वेद सम्मत हैउसे हिंसा नहीं समझना चाहिये क्योंकि वेद से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है।
         वेदों में अतिथि को देवता स्वरूप माना गया है। ‘‘अतिथि मनुष्य को स्वर्ग (के सुख) तक पहुंचाते हैं।  इसी प्रकार मनु ने कहा है कि ‘‘अतिथि का सत्कार सौभाग्ययशआयु तथा स्वर्ग देने वाला होता है।’’  अतिथि के भोजन कर लेने पर गृहस्थ भोजन करें।
मनु ने भी अतिथि से पहले भोजन करने का निषेध किया है।  जो अतिथि से पहले खा लेता हैवह अपना यज्ञ तथा परोपकार का पुण्य खा जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदों में जो कर्म मनुष्य के लिए धर्मरूप में कहा गया वह सब स्मृतियों ‘चाहिए’ अर्थ में कहा गया है। अतः हम यह कह सकते हैं कि स्मृतियां वेदानुवर्ती हैं।
 स्मृति-प्रतिपाद्य विषय
प्रायः सभी स्मृतिग्रन्थों में मुख्य रूप से आचार की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। वेदोंब्राह्मणउपनिषद्रामायणमहाभारत सम्पूर्ण संस्कृत वांङ्मय में विवेचित धर्म का वास्तविक रूप आचार ही है। उनके सभी नियम व्यक्ति के आचरण से सम्बद्ध है। मनुष्य को किन-किन अवस्थाओं मेंपरिस्थितियों में किस प्रकार का आचरण करना चाहिए यही स्मृतियांे में विवेचित है। शिष्टाचार को परम महत्त्व देने के कारण ही स्मृतिकारों ने प्रत्येक अवसर के लिए छोटे-छोटे आचार नियमों का भी निर्देश किया है। स्मृतियाँ मानव जीवन को समग्र रूप में ग्रहण करती हैं तथा इसी कारण आचरण को व्यवस्थित करने के लिए नियमों एवं निषेध नियमों का निर्देश करती हैं। स्मृतियों में आचार विषयक नियमों की ही अधिकता है तथा आचार का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसका स्पष्टीकरण कठिन है। स्मृतियों की विषय वस्तु को आचारव्यवहारप्रायश्चित्त शीर्षकों में विभक्त करते हुए आचार के अन्तर्गत वर्णाश्रम कर्तव्यअकर्तव्यसदाचारसंस्कारश्राद्धशौचाचारनैतिक-अनैतिक आचरण तथा विविध प्रकार के शुद्धि विषयक आचारों का वर्णन किया गया है
स्मृतियों में आचार के पश्चात् व्यवहार का उल्लेख किया गया है। स्मृतियों में वर्णित व्यवहार पक्ष न्याय व्यवस्थादण्डनीति नाम से जाना जाता है। मनुष्य पर अंकुश लगाकर उन्हें अनुशासित करना व्यवहार के अन्तर्गत आता है।
आर्थिकराजनैतिकसामाजिकधार्मिक राजद्रोह तथा अन्य अपराधों के लिए दण्ड का निरूपण स्मृतियों ने व्यवहार पक्ष के माध्यम से किया है।
             इसमें पापों के प्रायश्चित्तपाप करने से नारकीय गति का विवरणशुद्धि-अशुद्धि की प्रक्रियादुष्ट कर्मों का फलप्रायश्चित्त का स्वरूपपापी को सुधारने का उपायकामजक्रोधजअतिपापउपपातकअतिदेशसंकरीकरण एवं मालिनीकरण को दिखाकर उन-उन पापकर्मों के प्रायश्चित्त की विधियां बताई गई है।
अन्त में सन्यास धर्म में संसार की अनित्यता एवं भगवान् की सत्यता बताकर मानव जगत को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जाती है अर्थात् जाने अनजाने में किए गए दुष्कर्मों को सुधारने हेतु जो मृत्यु या सरल दण्ड मिलता है वही प्रायश्चित्त हैं।
कुछ स्मृतियां मूलतः प्रायश्चित्त परक हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के व्रत उपवास एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है जिनमें देवल स्मृतिव्यास स्मृतिबौधायन स्मृतिशातातप स्मृति का विशेष महत्त्व है। बौधायन स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त न करने से नरक भोगने के अनन्तर देह में चिन्हशारीरिक विकृति एवं असाध्य रोग के अङ्कुर हो जाते हैं। 
      देवल ने विभिन्न प्रकार की शुद्धिजातिशुद्धि तथा समाज शुद्धि की व्यवस्था की है। साथ ही समाज से बहिष्कृत जनों की पुनः अपने ग्राम या समाज में सम्मिलित करने की विधि भी बतायी है।

आचार का  अर्थ

       आचार का शाब्दिक अर्थ है - अच्छा आचरण।

वामन शिवराम आप्टे ने आचार का अर्थ 1. आचरणव्यवहारकार्य करने की रीतिचाल-चलन, 2. प्रथारिवाजप्रचलनलोकाचारप्रथा सम्बन्धी कानून।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार का सम्बन्ध ऐच्छिक क्रियाओं से है अनैच्छिक क्रियाओं से नहीं - जैसे छींकनाखांसना आदि। आचार का सम्बन्ध इच्छानुसार होने से किस प्रकार कार्य करना चाहिए ? क्या उपयुक्त है क्या अनुपयुक्त ? इसी उपयुक्त तथा अनुपयुक्त को परखने वाली कसौटी ही आचार शास्त्र हैं।
आचार को प्रायः कर्तव्य तथा धर्म से जोड़ा जाता है। यद्यपि आचार तथा धर्म मानव जीवन की दो अलग-अलग पूंजी है अपितु दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।
किसी देश विशेष में किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से एक दूसरे को विशिष्ट समाज के रूप में बांधने के लिए जो आचार नियम बनाये जाते हैं वे ही ‘रिलीजन’ के अन्तर्गत आते हैं। यह शब्द लातीनी भाषा के ‘रिलिजिओ’ शब्द से निष्पन्न है जो मूलतः ‘रेलिगारे’ (बांधना धातु से सम्बद्ध) है। फलतः ‘रिलीजन’ एक समाज विभिन्न मानवों को बांधने वाली अनुष्ठान विधियों का द्योतक है।’’
धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है - धारण करनाआलम्बन लेना या पालन करना। धर्मशब्द का बहुत शास्त्रकारों ने विभिन्न अर्थ प्रकट किये हैं। ऋग्वेद में धर्म धार्मिक क्रियाओं या धार्मिक संस्कारों के रूप में प्रयुक्त हुआ है।  धर्म अलौकिक शक्ति का द्योतक है।  कहीं-कहीं धर्म का अर्थ निश्चित नियम तथा आचार नियम के लिए प्रयुक्त हुआ है।  इन नियमों से संसार के लोग सुखी तथा स्वच्छन्द पूर्वक रहते हैं।
भगवतगीता में धर्म शब्द से अभिप्राय है कि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करें।  महाभारतानुसार हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
स्मृतिशास्त्र में धर्म को कर्तव्य के अर्थ में प्रयुक्त किया है।  महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्म को कर्तव्य के अर्थ में प्रयुक्त किया है।  मिताक्षरा में धर्म के छः स्वरूप बताये गये हैं।
     धर्म की प्रेरणा से सदाचार उत्पन्न होता है।  सदाचार का प्रत्यक्ष तथा साक्षात् आदर्श लोगों को एक सजीव प्रेरणा प्रदान करता है। धर्म सम्बन्धी विवाद में सदाचार का प्रत्यक्ष आदर्श निर्णायक कार्य करता है। धर्म के विधानों में विरोध होने से धर्म का निर्णय कठिन हो सकता है किन्तु सदाचार के आदर्शों में इतना अधिक विरोध कभी सम्भव नहीं है।
       वेदस्मृति तथा सदाचार धर्म के तीन मुख्य प्रमाण हैं। उनसे प्रमाणित आचार ही धर्म है। महाभारत धर्म के यही तीन प्रमाण माने गये हैं। अहिंसासत्यदया आदि इन्हीं के अनुसार धर्म ठहरते हैं। स्मृतियों में इनका विधान है। मनु ने आत्मप्रियता अथवा आत्मतुष्टि को धर्म का एक चतुर्थ प्रमाण माना है।  इस मर्यादा के अन्तर्गत अपने प्रिय तथा अनुकूल कर्म भी धर्म हो सकते हैं।
                  वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।

                  एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥ मनु 2.12

 आचार क्षेत्र तथा प्रकार

आचार के दो भेद माने हैं - 1. सदाचार 2. अशौचाचार 
महर्षि अत्रि ने आचार के दो भेद किये हैं - यम तथा नियम
महर्षि शंङ्ख के अनुसार क्षमासत्यदम तथा पवित्रता चारों वर्णों का सामान्य नियम है।
मनु ने धृतिक्षमादमअस्तेयशौच (पवित्रता) इन्द्रियों को वश में करनाज्ञानविद्यासत्यक्रोध का त्याग ये धर्म के दस लक्षण हैं।
            धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

           धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनु 6.92
महर्षि याज्ञवल्क्य ने लोक विरूद्ध आचार का पालन का निषेध करते हुए कहते हैं कि - ‘‘कर्म मन तथा वचन से यत्नपूर्वक धर्म का आचरण करे धर्म विहित होने पर लोकविरूद्ध कर्म हो तथा उससे स्वर्ग की प्राप्ति न हो तो उसे नहीं करना चाहिए।
    याज्ञवल्क्य स्मृति में अहिंसासत्यअचैर्यशौच (पवित्रता)इन्द्रिय संयमदानदम (अन्तःकरण का संयम)दया (दीनों पर) तथा (अपकार पर भी) क्षमा ये सभी के लिये (सामान्य रूप से) धर्म के साधन हैं। 

छहों वेदांगों सहित वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते। आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।  आचार सभी का धर्म हैआचार से हीन मनुष्य इस लोक तथा परलोक दोनों में नष्ट होता है।  छल-कपट के साथ करने वाले मायावी पुरुष को पढ़े हुए वेद पाप से पार नहीं सकते हैंकिन्तु शुद्धाचारी मनुष्य को श्रद्धापूर्वक पढ़े हुए वेद के दो अक्षर भी पवित्र कर देते हैं।  आचार से हीन मनुष्य लोक में निन्दितसदा दुःखीरोगी तथा अल्प अवस्था वाला होता है।  जो द्विज मनु द्वारा कहे गये दस लक्षण वाले धर्मों को अध्ययन करते हैं तथा अध्ययन करके उसका आचरण करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी आचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि सभी लक्षणों से युक्त होने पर भी जो मनुष्य आचार से वर्जित है। वह विद्या तथा इच्छित फल को प्राप्त नहीं कर पाता है। आचारहीन पुरुष नरक को प्राप्त करते हैं। आचारहीन ब्राह्मण अल्पायु को प्राप्त करते हैं। आचारहीन राक्षस होते हैं। आचारहीन मनुष्य को छः अङगों सहित वेद भी पवित्र नहीं कर सकते हैं। आचारहीन मनुष्य द्वारा किये गये सभी धार्मिक कार्य मिथ्या होते हैं।
इस प्रकार विभिन्न ग्रन्थों के अनुशीलन से हमें ज्ञात होता है कि आचार ही जीवन का सर्वस्व है अर्थात आचार ही परम धर्म है
        देश, काल तथा राष्ट्रीय आचार के सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य का कथन है कि जिस देश में काले मृग स्वच्छन्द विचरण करते हैं ,उस देश में सभी आचार फलित होते हैं।  इससे प्रतीत होता है कि जिस स्थान पर सुखपूर्वक तथा शान्तिपूर्वक मनुष्य ही नहीं पशु भी निडर होकर निवास करते हैं वहां पर सभी आचार फलित होते हैं। सरस्वती तथा दृष्द्वती इन दोनों देव नदियों के बीच के देवनिर्मित देश को ब्रह्मावर्त देश कहते हैं। इस देश में चारों वर्ण तथा वर्णसङ्कर जातियों के बीच जो परम्परागत आचार है, उन्हें सदाचार कहते हैं।
           यस्मिन् देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः ।

           वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।। मनु 2.17
 कुरूक्षेत्रमत्स्य देश (जयपुर आदि)पांचाल देश (कन्नौज आदि) तथा शूरसेन (ब्रजभूमि) को जो ब्रह्मावर्त से कुछ न्यून हैंब्रह्मर्षिदेश कहते हैंइन देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से पृथिवी के सब मनुष्यों को अपना-अपना आचार सीखना चाहिये। हिमालयविन्ध्यगिरिविनशन तथा प्रयाग देश मध्यदेश कहा जाता है।  इस प्रकार देखते हैं कि राष्ट्र के चारों ही दिशाओं के भी स्व आचार हैं।
ब्रह्मचारी अधार्मिक ग्राम में निवास न करेंबहुत्याधियुक्त शूद्र के राज्यअधर्मियों के देश तथा पाखण्डियों के वशवर्ती देश अथवा अन्त्यजातियों तथा उपद्रवयुक्त देश में निवास न करें।

वैश्विक आचरण
1. शौच - शौच दो प्रकार का होता है - वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है।  आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं।  जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है वह पुरुष हजार बार मट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते।  मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये।  शोचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे।
मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो।
शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है - जन्ममरणजीवनपर्यन्त।
सद्यः शौचएक दिनदो दिनतीन दिनचार दिनछः दिनदस दिनबारह दिनपन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। 
इस प्रकार हम देखते हैं कि वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
2.. अहिंसा -   अहिंसा का सामान्य अर्थ हिंसा न करना अर्थात् किसी के प्राण न लेना। अहिंसा परम धर्म हैअहिंसा परम संयम हैअहिंसा परम दान हैअहिंसा परम तप हैअहिंसा परम यज्ञ हैअहिंसा परम फल हैअहिंसा परम मित्र हैअहिंसा परम सुख है।  मनु ने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ अहिंसा को सभी आचार का मूल माना है। धर्म की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अहिंसा द्वारा ही अनुशासन करना चाहिए।  अहिंसा द्वारा तपस्वी लोग इस संसार में ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं।  गृहस्थ द्वारा सर्वदा पाँच हत्याऐं होती हैं - चूल्हाचक्कीझाड़ूओखली तथा जल का घड़ा के द्वारा की गई हत्याओं की पाप निवृत्ति के लिये पंचयज्ञकर्म का प्रतिपादन किया गया है।
          मनु ने आठ प्रकार के हिंसा का उल्लेख किया है। ‘‘अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला)विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अगें को काटने वाला)निहन्ता (मारने वाला)विक्रेता (मांस बेचने वाला)क्रेता (मांस को खरीदने वाला)संस्कत्र्ता (मांस को पकाने वाला)उपहत्र्ता (उपहार रूप में मांस को देने वाला)खादक (मांस खाने वाला) सभी घातक हिंसक होते हैं।  मधुपर्कयज्ञ (ज्योतिष्टोम आदि)पितृकार्य (श्राद्ध)देवकार्य में हिंसा करने की अनुमति दी गई है क्योंकि वेद सम्मत है (अन्यत्र कहीं नहीं)।  आपत्तिकाल में भी हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है।  अहिंसक जीवों की हत्या करने का निषेध करते हुये कहा गया है कि ‘‘जो अहिंसक जीवों का अपने सुख (जिव्हास्वाद - शरीरपुष्टि आदि) की इच्छा से वध करता है वह इहलोक तथा परलोक में सुखपूर्वक उन्नति नहीं कर सकता है।
          जो देवता तथा पितरों को बिना तृप्त किये दूसरे (जीवों) के मांस से अपने शरीर के मांस को बढ़ाना चाहता है उससे बड़ा दूसरा कोई पापी नहीं है।  मांस त्याग का फल सौ अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है।  मांस भक्षण में छूट देते हुए मनु कहते हैं कि मदिरा सेवन तथा मैथुन करने मांस भक्षण करने में दोष नहीं है।
     शरण में आये बालक तथा स्त्री की हिंसा करने वालों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने पर उनके साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये।
          अन्न के अभाव में या रोग में मांस के बिना प्राण बचना कठिन होश्राद्ध मेंप्रोक्षण नाम के (श्रौत संस्कार) में देवताओं की आहुति से अवशिष्टब्राह्मण के भोजन या देवता तथा पितर के लिये बनाये गये मांस को देवता तथा पितरों की अर्चना करके खाने वाला पाप का दोषी नहीं होता है।
          अत्रि मुनि ने हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्राश्चित्त का भी विधान किया है। जो मनुष्य काष्ठढेला आदि से गौ को मारता है वह ‘‘कृच्छ’’ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह ‘‘अतिकृच्छ’’ व्रत करें।  शम्भ ऊंटअश्वहाथीसिंहव्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे।  बिल्लीगोहनौलामेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर फिर ‘‘पादकृच्छ्र को करै।  मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे।
          जो मनुष्य शिल्पीकारीगरशूद्र तथा स्त्री को मारता है वह दो ‘‘प्राजापत्य’’ करके ग्यारह बैलों का दान करे तब उसकी शुद्धि होती है।  निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो ‘‘अतिकृच्छ्रव्रत’’ कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है।  जो मनुष्य अधर्मी वैश्यशूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है उसकी शुद्धि ‘‘चांद्रायण’’ व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है।  यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह ‘‘कृच्छ्र तथा प्राजापत्य’’ व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है।  क्षत्रियवैश्यशूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है।
          ‘अहिंसा भावना’ प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। इसके बिना मानव जाति सहित समस्त प्राणियों के बीच सुखशान्तिस्थापित होना असम्भव है। प्रायः सभी धर्मों ने ‘अहिंसा’ को एक स्वर में स्वीकार किया है। प्राणी की हिंसा करना पाप माना गया है। इस प्रकार स्मृतियों में अहिंसा भावना को सुप्रतिष्ठित किया है तथा इसे अन्तर्जीवन की अमृतङ्गा माना गया है।
3. दान -   दान को ही स्मृतियों में ‘‘इष्ट’’ तथा ‘‘पूर्त’’ भी कहा गया है। ‘‘इष्टाचार’’ अग्निहोत्रादि यज्ञों से सम्बन्धित कहे गये हैं तथा पूर्त धर्म के अन्तर्गत ‘‘दान’’ एवं ‘‘उत्सर्ग’’ का समावेश होता है।  इस प्रकार इष्ट का तात्पर्य- ‘‘यज्ञ’’ तथा ‘‘दक्षिणा’’ तथा पूर्त का तात्पर्य- ‘‘दान’’ तथा ‘‘उत्सर्ग’’
          यम ने दान को गृहस्थ का परम धर्म बतलाया है।  ‘‘इष्ट’’ का तात्त्पर्य (मण्डप के भीतर यज्ञादि का कार्य) तथा ‘‘पूर्त’’ का तात्पर्य (वापीकूपतड़ाग आदि का निर्माण) सदैव करवाना चाहिये क्योंकि ‘‘इष्ट’’ के माध्यम से स्वर्ग तथा पूर्त के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है।  कलियुग में दान को ही श्रेष्ठ माना गया है।
          जो दान आप जाकर दिया जाता है वह उत्तम हैबुलाकर जो दान दिया जाता है वह मध्यम हैदान याचना करने पर दिया जाता है वह निकृष्ट है तथा जो सेवा करा कर दान दिया जाता है वह निष्फल है।  अशिक्षित तथा तप से हीन व्यक्ति को दान देने से दाता नरक को प्राप्त करता है।  यथाशक्ति प्रतिदिन गौ दान देना चाहिए। (सूर्य या चन्द्रग्रहण) जैसे अवसरों पर विशेष रूप       से यथाशक्ति दान देना चाहिए।  गोदान द्वारा मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करता
है।
          वेद का दान सभी दानों में श्रेयस्कर हैइसका दान देने वाला ब्रह्मलोक में अचल होकर सतत निवास करता है।  दान इतना ही देना चाहिएजिससे अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में कठिनाई न हो। पुत्र तथा स्त्री को दान में नहीं देना चाहिए।  पृथ्वी आदि का दान सबके समझ लेना चाहिए।
          अन्न तथा वस्त्र का दाता परलोक में निवास करता है।  सुवर्णदानगोदान तथा पृथ्वी दान करने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पा लेता है।  कन्या दान करके प्राप्त फल कभी भी नष्ट नहीं होता है।
          श्राद्ध दान देने वाला व्यक्ति दीर्घायुसन्तानधनविद्यामोक्षसुख तथा राज्य को प्राप्त करते हैं।  कुल में दानी पुरुषों की अधिकता हो ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए।  बिना मांगे जो मिले उसे ‘‘अमृत’’ तथा मांगने पर जो मिले उसे ‘‘मृत’’ समझना चाहिये।  शास्त्रोक्त दान के द्वारा प्राप्त धन धर्मयुक्त कहा गया है। 
          इससे प्रतीत होता है कि मनु द्वारा कथित धृतिक्षमादमअस्तेय,  शौचइन्द्रियनिग्रहधीविद्यासत्यअक्रोध वैश्विक आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मनु ने अहिंसा तथा दान को दस धर्म के लक्षण के अन्तर्गत नहीं माना है तथापि अहिंसा तथा दान अन्य आचारों में परिलक्षित होते हैं।     
       मानव सम्पूर्ण सुख-शान्ति तभी पा सकता है जब वह दूसरों के साथ भी वैसा ही आचरण करे जैसा हम स्वयं के लिए चाहते हैं। आचार को ही दर्पण मानकर अपना परिष्कार करेंगे तभी हम मानवता को प्राप्त कर सकते हैं। स्मृतिकालीन समाज में जो आचार चलन में थावर्तमान समय में वही आचार अब असाधारण हो गया है। असली सुख दानपुण्यपरोपकारदयाअनुकम्पासहायता आदि सदाचार द्वारा प्राप्त होता है। भौतिक सुख तो अस्थाई हैं। स्थाई सुख तो मोक्ष प्राप्त करने में है जो सदाचार के माध्यम से प्राप्त होता है।

स्मृतियों तथा अन्य ग्रन्थों में शुद्धि की प्रक्रिया 


मृत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति ।
रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः ।।5/108

नासंवृत्तमुखः सदसि जृम्भोद्गारकासश्वासक्षवथूनुत्सृजेत् । (सुश्रुतसंहिता, चिकित्सा २४/९४)
अर्थात् मुख को बिना ढके सभा में उबासी, खांसी, छींक, डकार इत्यादि न लेवें ।
नाकारणाद् वा निष्ठीवेत् । (कूर्मपुराण,उ.१६/६८)
अर्थात् बिना कारण थूकना नहीं चाहिए ।
अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः । (मनुस्मृति ४/१४४)
अर्थात् बिना कारण अपनी इन्द्रियों (नाक, कान इत्यादि) को न छूएं ।
न छिन्द्यान्नखलोमानि दन्तैर्नोत्पाटयेन्नखान् । (मनुस्मृति ४/६९)
दांतों से नाखून, रोम अथवा बाल चबाने या काटने नहीं चाहिये ।
नाभ्यङ्गितं कायमुपस्पृशेच्च । (वामन पुराण १४/५४)
अर्थात् तेल-मालिश किये हुए व्यक्ति के शरीर का स्पर्श नहीं करना चाहिये ।
अकृत्वा पादयोः शौचं मार्गतो न शुचिर्भवेत् । (पद्मपुराण, स्वर्ग.५२/१०)
अर्थात् कहीं बाहर से आया हुआ व्यक्ति पैरों को धोये बिना शुद्ध नहीं होता ।
उपानहौ च वासश्च धृतमन्यैर्न धारयेत् । (मनुस्मृति ४/६६)
अर्थात् दूसरों के पहने हुए वस्त्र और जूते नहीं पहनने चहिए ।
नासंवृत्तमुखः सदसि जृम्भोद्गारकासश्वासक्षवथूनुत्सृजेत्
अर्थात मुख को बिना ढँके जम्हाई, खाँसी, छींक व डकार आदि न लें।
नाप्राक्षालित पाणिपादो भुञ्जीत । (सुश्रुत संहिता )
विना हाथ पैर धोए भोजन नहीं करना चाहिए।
हाथ से सम्पर्क न करें बल्कि हाथ जोड़कर अभिवादन करें।
स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फला क्रियाः। (वाधूलस्मृति 69)
स्नान और शुद्ध आचार के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते है अतः सभी कार्य स्नान करके शुद्ध आचार से करने चाहिये ।
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम। अन्यद् रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि । (महाभारत अनु0 104/86)
सोने की समय, घर से बाहर घूमने के समय तथा पूजन के समय अलग-अलग वस्त्र होने चाहिये।
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम ।। १३९ ।। अन्यदर्चासु देवानामन्यद्धार्यं सभासु च ।।
भविष्यपुराणम् /पर्व ४ (उत्तरपर्व)/अध्यायः २०५
हाथ से छुए गए तरल पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिए-
न वार्यञ्जलिना पिबेत् । मनुस्मृति
नाञ्जलिपुटेनापः पिबेत्। सुश्रुत संहिता
शुद्ध सरसों के तेल का नस्य लें क्योंकि यह कृमि नाशक होता है।
कटुतैलादि नस्यार्थे नित्याभ्यासेन योजयेत् ।
व्यायाम भी अत्यन्त उपयोगी हैं क्योंकि इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
व्यायामादृढगात्रः व्याधिर्नास्ति कदाचन। प्राणायाम करें - क्योंकि रक्त प्रवाह से लेकर मल विसर्जन तक समस्त क्रियाएं पञ्च वायु के द्वारा ही नियंत्रित होती हैं (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान ये पञ्चवायु हैं।
घ्राणास्ये वाससाच्छाद्य मलमूत्रं त्यजेत् बुधः । (वाधूलस्मृति ९)
नियम्य प्रयतो वाचं संवीताङ्गोऽवगुण्ठितः । (मनुस्मृति ४/४९)
अर्थात् अपने नाक-मुंह तथा सिर को ढककर और मौन होकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये ।

लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च ।

लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत् ।।

    धर्म सिन्धु ३पू. आह्निक

हाथ से दिया गया नमकघीतेलचाटने वाला पदार्थ और पेय पदार्थ हाथ नहीं खायें ।

अपमृज्यान्न च स्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभिः ।। मार्कण्डेय पुराण ३४/५२

स्नान किया व्यक्ति जल युक्त हाथ से शरीर को नहीं रगड़े। अर्थात् गीले वस्त्र से शरीर नहीं पोछे।

हस्तपादे मुखे चैव पञ्चाद्रे भोजनं चरेत् ।। पद्म०सृष्टि.५१/८८

नाप्रक्षालितपाणिपादो भुञ्जीत ।। सुश्रुतसंहिता चिकित्सा २४/९८

विना हाथ पांव धोएं भोजन नहीं करें।

न धारयेत् परस्यैवं स्न्नानवस्त्रं कदाचन ।। पद्म० सृष्टि.५१/८६

दूसरे व्यक्ति द्वारा उपयोग किए गये वस्त्र (तौलिया आदि) को स्नान के बाद शरीर पोछने के लिए उपयोग न करें।

तथा न अन्यधृतं धार्यम् ।। महाभारत अनु १०४/८६

दूसरे द्वारा पहने हुए वस्त्र को न धारण करें।

न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं विधृयाद् ।। विष्णुस्मृति ६४

बिना धोये तथा पूर्व में पहनें कपड़े को दोबारा न पहनें।

न आद्रं परिदधीत ।।  गोभिलगृह्यसूत्र ३/५/२४

गीले कपड़े न पहनें।


महाभारत के अनुशासनपर्व अध्याय 161 में आहार विहार के बारे में विस्तार से बताया गया है।
भीष्म उवाच।
अत्र तेऽहं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
अल्पायुर्य्येन भवति दीर्घायुर्वाऽपि मानवः।
येन वा लभते कीर्त्तिं येन वा लभते श्रियम्।
यथा वर्त्तयन् पुरुषः श्रेयसा सम्प्रयुज्यते।
आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते श्रियम्।
आचाराल्लभते कीर्त्तिं पुरुषः प्रेत्य चेह च।
दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत्।
यस्मात्त्रस्यन्ति भूतानि तथा परिभवन्ति च।
तस्मात् कुर्य्या-दिहाचारं यदीच्छेद्भूतिमात्मनः।
अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम्।
आचारलक्षणो धर्म्मः सन्तश्चारित्रलक्षणाः।
साधूक्तञ्च यथा वृत्तमेतदाचारलक्षणम्।
अप्यदृष्टं श्रवादेव पुरुषं धर्म्म चारिणम्।
भूतिकर्माणि कुर्व्वाणं तं जनाः कुर्व्वते प्रियम्।
ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्राभिलङ्घिनः।
अधर्मज्ञा दुराचारास्ते चरन्ति गतायुषः।
विशोका भिन्नमर्य्यादा नित्यं सङ्कीर्णमैथुनाः।
अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः।
सर्व्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान्नरः।
श्रद्धधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।
अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः।
अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति।
लोष्टमर्द्दी तृणच्छेदो नखखादी च यो नरः।
नित्योच्छिष्टः सङ्कशुको नेहायुर्व्विन्दते महत्।
ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
उत्थायाचस्य तिष्ठेत पूर्ब्बां सन्ध्यां कृताञ्जलिः।
एवमेवापरां सन्ध्यां समुपासीत वाग्यतः।
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं नास्तं यान्तं कदाचन।
नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसोगतम्।
 ऋषयो नित्यसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुवन्।
तस्मात्तिष्ठेत्सदा पूर्ब्बां पश्चिमाञ्चैव वाग्यतः।
 ये न पूर्ब्बामुपासीरन्द्विजाः सन्ध्यां न पश्चिमाम्।
सर्व्वांस्तान् धार्मिको राजा शूद्रकर्म्माणि कारयेत्।
परदारा न गन्तव्याः सर्व्ववर्ण्णेषु कर्हिचित्।
नहीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते।
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्।
यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः।
तावद्वर्षसहस्राणि नरकं पर्य्युपासते।
प्रसाधनञ्च केशानामञ्जनं दन्तधावनम्।
पूर्ब्बाह्णएव कार्य्याणि देवतानाञ्च पूजनम्।
पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत् कदाचन।
नातिकल्यं नातिसायं न च मध्यन्दिने स्थिते।
नाज्ञातैः सह गच्छेत नैकोन वृषलैः सह।
पन्थादेयो ब्राह्मणाय नीभ्यो राजभ्य एव च।
वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्ब्बलाय च।
प्रदक्षिणं प्रकुर्व्वीत परिज्ञातान् वनस्पतीन्।
चतुष्पथान् प्रकुर्वीत सर्व्वानेव प्रदक्षिणान्।
मध्यन्दिने निशाकाले अर्द्धरात्रे च सर्व्वदा।
चतुष्पथं न सेवेत उभे सन्ध्ये तथिव च।
उपानहौ च वस्त्रञ्च धृतमन्यैर्न धारयेत्।
ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात् पादं पादेन नाक्रमेत्।
अमावास्या पौर्ण्णमास्यां चतुर्द्दश्याञ्च सर्व्वशः।
अष्टम्यां सर्वपक्षाणां व्रह्मचारी सदा भवेत्।।
वृथा मांसं न खादेत पृष्ठमांसं तथैव च।
आक्रोशं परिवादञ्च पैशुन्यञ्च विवर्ज्जयेत्।
नारुन्तुदः स्यान्न मृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत।
ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पारलोक्याम्।
वाक्सायका वदजान्निष्पतन्ति तैराहतः शोचति रात्र्यहाणि।
परस्य नो मर्म्मसु निष्पतन्ति तान् पाण्डितो नावसृजेत् परेषु।
रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्। वाचा दुरुक्तया विद्धं न संरोहति वाक्क्षतम्।
कर्ण्णिनालिका नाराचान्निर्हरन्ति शरीरतः।
वाक्शल्यस्तु न निर्हर्त्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।
हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान् विद्याहीनान् विगर्हितान्।
रूपद्रविणहीनांश्च सत्त्वहीनांश्च नाक्षिपेत्।
नास्तिक्यं वेदनिन्दाञ्च देवतानाञ्च कुत्सनम्।
द्वेषस्तम्भाभिमानञ्च तैक्ष्ण्यञ्च परिवर्ज्जयेत्।
परस्य दण्डं नोद्यच्छेत् क्रुद्धो नैनं निपातयेत्।
अन्यत्र पुत्त्राच्छिष्याच्च शिष्टार्थं ताडनं स्मृतम्।
न ब्राह्मणान् परिवदेत् नक्षत्राणि न निर्द्दिशेत्।
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात्तथाऽस्यायुर्न रिष्यते।
कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः।
पादप्रक्षालनं कुर्य्यात् स्वाध्याये भोजने तथा।
त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्।
अदृष्टमद्भिर्नि र्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते।
संयावं कृशरं मांसं शष्कुलीम्पायसन्तथा।
आत्मार्थं न प्रकर्त्तव्यं देवार्थन्तु प्रकल्पयेत्।
नित्यमग्निं परिचरेद्भिक्षां दद्याच्च नित्यदा।
वाग्यतो दन्तकाष्ठञ्च नित्यमेव समाचरेत्।
 न चाभ्युदितशायी स्यात् प्रायश्चित्ती तथा भवेत्।
मातापितरमुत्थाय पूर्ब्बमेवाभिवादयेत्।
आचार्य्यमथ वाप्यन्यं तथायुर्व्विन्दते महत्।
 वर्ज्जयेद्दन्तकाष्ठानि वर्ज्जनीयानि नित्यशः।
भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्व्वस्वपि विवर्ज्जयेत्।
 उदङ्मुखश्च सततं शौचं कुर्य्यात् समाहितः।
अकृत्वा पादशौचञ्च नाचरेद्दन्तधावनम्।
अकृत्वा देवपूजाञ्च नाभिगच्छेत् कदाचन।
अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम्।
अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः।
 न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद्गर्भिणीं वाऽकदाचन।
उदक्शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्शिरा न च।
प्राकशिरास्तु स्वपेद्विद्वानथवा दक्षिणाशिराः।
न भग्ने नावशीर्णे च शयने प्रस्वपीत च।
नान्तर्द्धाने न संयुक्ते न च तिर्य्यक्कदाचन।
न चापि गच्छेत् कार्य्येण समयाद्वाऽपि नास्तिके।
आसनन्तु पदाकृष्य न प्रसज्येत्तथा नरः।
 न नग्नः कर्हिचित् स्नायान्न निशायां कदाचन।
स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः।
 न चानुलिम्पेदस्नात्वा स्नात्वा वासो न निर्द्धुनेत्।
 न चवार्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानवः।
स्रजश्च नावकृष्येत न बहिर्द्धारयीत च।
उदक्यया च संभाषां न कुर्व्वीत कदाचन।
नोत्सृजेत पुरीषञ्च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिके
उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्य्यात् कदाचन।
अन्नं बुभुक्षमाणस्तु त्रिर्मुखेन स्पृशेदपः।
 भुक्त्वा चान्नं तथैव त्रिर्द्विः पुनः परिमार्ज्जयेत्।
प्राङ्मुखो नित्यमश्नीयाद्वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।
प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत्।।
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
धन्यं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते उदङ्मुखः।
 अग्निमालभ्य तोयेन स र्व्वान् प्राणानुपस्पृशेत्।
 गात्राणि चैव सर्व्वाणि नाभिं प्राणितले तथा।
नाधितिष्ठेत्तुषं जातु केशभस्मकपालिकाः।
अन्यस्य चाप्यवस्नातं दूरतः परिवर्ज्जयेत्।
शान्तिहोमांश्च कुर्व्वीत सावित्राणि च धारयेत्।
निषण्णश्चापि खादेत न तु गच्छन् कदाचन।
 मूत्रं नोत्तिष्ठता कार्य्यं न भस्मनि न गोव्रजे।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्दपादस्तु संविशेत्।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो वर्षाणां जीवते शतम्।
त्रीणि तेजासि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन।
अग्निं गां ब्राह्मणञ्चैव तथा ह्यायुर्न हीयते।
त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन।
सूर्य्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्व्वशः।
ऊर्द्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति।
अभ्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते।
अभिवादयेत वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वयम्।
कृताञ्जलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात्।
न चासीतासने भिन्ने भिन्नकांस्यञ्च वर्ज्जयेत्।
नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं नग्नः स्नातुमर्हति।
स्वप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोऽपि संविशेत्।
उच्छिष्टो न स्प्शेच्छीर्षं सर्व्वे प्राणास्तदाश्रयाः।
केशग्रहं प्रहारांश्च शिरस्येतान् विवर्ज्जयेत्।
न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेतात्मनः शिरः।
 न चाभीक्ष्णं शिरःस्नायात्तथाऽस्यांयुर्नरिच्यते।
शिरःस्नातैश्च तैलैश्च नाङ्गं किञ्चिदपि स्पृशेत्।
तिलभृष्टं न चाश्नीयात्तथाऽस्यार्नरिष्यते।
नाध्यापयेत्तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन।
वाते च पूतिगन्धे च मनसाऽपि न चिन्तयेत्।
अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्त्तयन्ति पुराविदः।
आयुरस्य निकृन्तामि प्रजास्तस्याददे तथा ।
य उच्छिष्टः प्रवदति स्वाध्यायञ्चाधिगच्छति।
यश्चानन्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः।
 तस्य वेदः प्रणश्येत आयुश्च परिहीयते।
तस्नाद्युक्तो ह्यनध्याये नाधीयीत कदाचन।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रति गाञ्च प्रति द्विजान्।
ये मेहन्ति च प्रन्थानं ते भवन्ति गतायुषः।
उभेमूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्य्यादुदङ्मुखः।
दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथा ह्यायुर्नरिष्यते।
त्रीन् कृशान्नावजानीयाद्दीर्घमायुर्जिजीविषुः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्पं सर्वे ह्याशीविषास्त्रयः।
दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत् पश्यति चक्षुषा।
क्षत्रियोऽपिदहेत् क्रुद्धोयावत् पश्यति तेजसा।
ब्राह्मणस्तु कुलं हन्याद्ध्यानेनावेक्षितेन च।
तस्मादेतत्त्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः।
गुरुणा चैव निर्ब्बन्धो न कर्त्तव्यः कदाचन।
अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युधिष्ठिर!।
सम्यङ्मिय्याप्रवृत्तेऽपि वर्त्तितव्यं गुराविह।
गुरुनिन्दादहत्यायुर्म्मनुष्याणां न संशयः।
दूरादावसथान्मूत्रं दूरात् पादावसेचनम्।
उच्छिष्टोत्सर्ज्जनं चैव दूरे कार्य्यं हितैषिणा।
रक्तमाल्यं न धार्य्यं स्यात् शुक्लं धार्य्यन्तु पण्डितैः।
वर्ज्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं प्रभो!।
रक्तं शिरसि धार्य्यन्तु तथा वानेयमित्यपि।
काञ्चनीयाऽपि माला या न सा दुष्यति कहिचित्।
स्नातस्य वर्णकं नित्यमार्द्रं दद्याद्विशाम्पते!।
विपर्य्ययं न कुर्व्वीत वाससो बुद्धिमान्नरः।
तथा नान्यधृतं धार्य्यं न चापदशमेव च।
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम!।
अन्यद्रथ्यासु देवानामर्च्चायामन्यदेव हि।
प्रियङ्गुचन्दनाभ्याञ्च विल्वेन तगरेण च।
पृथगेवानुलिम्पेत केशरेण च बुद्धिमान्।
उपवासञ्च कुर्व्वीत स्नातः शुचिरलङ्कृतः।
पर्व्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत्।
समानमेकपात्रे तु भुञ्जेन्नान्नं जनेश्वर!।
आलीढया परिवृतं न शयीत कदाचन।
तथा नोद्धृतसाराणि प्रोक्षितं नाप्रदाय च।
न सन्निकृष्टो मेधावी नाशुचेर्न च सत्मू च।
प्रतिषिद्धान्न धर्मेषु भक्ष्यान् भुञ्जीत पृष्ठतः।
पिप्पलञ्च वटञ्चैव शणशाकं तथैव च।
उडुम्बरं न खादेच्च भवार्थी पुरुषोत्तम!।
आव्यं गव्यं तथा मांसं मायूरञ्चैव वर्ज्जयेत्।
वर्ज्जयेच्छुष्कमासिञ्च तथा पर्य्युषितञ्च यत्।
न पाणौ लवणं विद्वान् प्राश्नीयान्न च रात्रिषु।
दधिसक्तून्न भुञ्जीत वृथामांसञ्च वर्ज्जयेत्।
सायं प्रातश्च भुञ्जीत नान्तराले समाहितः।
बालेन तु नभुज्ञीत परश्राद्धं तथैव च।
वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचनै।
भूमौ सदैव नाश्नीयान्नानासीनो न शब्दवत्।
तोयपूर्ब्बं प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशेषतः।
पश्चाद्भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः।
समानमेकपङ्क्त्यान्तु भोज्यमन्नं नरेश्वर!।
विषं हलाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने।
पानीयं पायसं सक्तून् दधि सर्पिर्म्मधून्यपि।
निरश्य शेषमेतेषां न प्रदेयन्तु कस्यचित्।
भुञ्जानो मनुजव्याघ्र! नैव शङ्कां समाचरेत्।
दधि चाप्यनुपानं वै कर्त्तव्यञ्च भवार्थिना।
आचम्य चैकहस्तेन परिप्लाव्यं तथोदकम्।
अङ्गुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत्।
पाणिं मूर्द्ध्नि समाधाय स्मृष्ट्वा चाग्निं समाहितः।
ज्ञातिश्रैष्ट्यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः।
अद्भिः प्राणान् समालभ्य नाभिं पाणितले तथा।
स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्यार्द्रेण पाणिना।
अङ्गुष्ठस्यान्तराले च ब्राह्मं तीर्थमुदाहृतम्।
कनिष्टिकायाः पश्चात्तु देवतीर्थमिहोच्यते।
अङ्गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत!।
तेन पित्र्याणि कुर्व्वीत स्पृष्ट्वापो न्यायतस्तथा।
परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियञ्च कदाचन।
न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेण भवार्थिना।
पतितैस्तु कथां नेच्छेद्दर्शनञ्च विवर्ज्जयेत्।
संसर्गं न च गच्छेत तथायुर्विन्दते महत्।
न दिवा मैथुनं गच्छेन्न कन्यां न च बन्धकीम्।
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत्तथायुर्व्विन्दते महत्।
स्वेरो तोर्थे समाचम्य कार्य्ये समुपकल्पिते।
त्रिः पीत्वापो द्विः प्रमृज्य कृतशौचो भवेन्नरः।
 इन्द्रियाणि सकृत् स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः।
कुर्व्वीत पित्र्यं दैवञ्च वेददृष्टेन कर्मणा।
ब्राह्मणार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव!।
पवित्रञ्च हितञ्चैव भोजनाद्यन्तयोस्तया।
सर्व्वशौचेषु ब्राह्मेण तीर्थेन समुपस्पृशेत्।
निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत्।
वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रं दरिद्र्यो भवेदपि।
गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च।
गृहे पारावता धन्याः शुकाश्च सहसारिकाः।
गृहेष्वेते तु पापाय तथा वै तैलपायिकाः।
उद्दीपकाश्च गृध्राश्च कपोता भ्रमरास्तथा।
निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाचरेत्।
 अमङ्गल्यानि चैतानि तथोत्क्रोशा महात्मनाम्।
महात्मनोऽतिगुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्।
अगम्याश्च न गच्छेत राज्ञः पत्नीं सखीं तथा।
वैद्यानां वालवृद्धानां भृत्यानाञ्च युधिष्ठिर!।
बन्धूनां ब्राह्मणानाञ्च तथा शारणिकस्य च।
सम्बन्धिनाञ्च राजन्द्र! तथायुर्विन्दते महत्।
ब्राह्मणस्थपतिभ्याञ्च निर्मितं यन्निवेशनम्।
तदावसेत् सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर!।
सन्ध्यायां न स्वपेद्राजन्! विद्यां न च समाचरेत्।
न भुञ्जोत च मेधाधी तथायुर्व्विन्दते महत्।
नक्तं न कुर्यात्पित्र्याणि भुक्त्वा चैव प्रसाधनम्।
पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता।
वर्ज्जनीयाश्च वै नित्यं सक्तवो निशि भारत!।
शेषाणि चाव- दातानि पानीयञ्चापि भोजने।
सौहित्यं न च कर्त्तव्यं रात्रौ न च समाचरेत्।
द्विजच्छेदं न कुर्व्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत्।
महाकुले प्रसूताञ्च प्रशस्तां लक्षणैस्तथा।
वयस्थाञ्च महाप्राज्ञः कन्यामावोडुमर्हति।
अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं ततः।
पुत्त्राः प्रदेया ज्ञानेषु कुलधर्मेषु भारत!।
कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते।
पुत्त्रा निवेश्याश्च कुलाद्वृत्त्या लभ्याश्च भारत!।
शिरःस्नातोऽथ कुर्व्वीत दैवं पित्र्यमथापि वा।
नक्षत्रे न च कुर्व्वीत यस्मिन् जातो भवेन्नरः।
न प्रौष्ठपदयोः कार्य्यं तथाग्नेये च भारत!।
दारुणेषु च सर्व्वेषु प्रत्यरिञ्च विवर्ज्जयेत्।
ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्व्वाणि भारत!।
प्राङ्मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत् सुसमाहितः।
उदङ्मुखो वा राजेन्द्र! तथायुर्व्विन्दतेमहत्।
परिवादं न च ब्रूयात्परेषामात्मनस्तथा।
परिवादो ह्यधर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ!।
वर्जयेद्व्यङ्गिनीं नारीं तथा कन्यां नरोत्तम!।
समार्षां व्यङ्गिताञ्चैव मातुः सकुलजां तथा।
वृद्धां प्रव्रजिताञ्चैव तथैव च पतिव्रताम्।
अयोनिञ्च वियोनिञ्च न च गच्छेद्विचक्षणः।
पिङ्गलां कुष्ठिनीं नारीं न त्वमावोढुमर्हसि।
अपस्मारिकुले जातां निहीनाञ्चैव वर्जयेत्।
श्वित्रिणाञ्च कुले जातां क्षयिणां मनुजेश्वर!।
लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः।
मंनोज्ञा दर्शनीया च तां भवान् वोढुमर्हति।
महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर!।
अपरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता।
आनीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः।
वेदे च ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्व्वाः समाचरेत्।
न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्त्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्व्वशः।
अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यां विवर्ज्जयेत्।
 अनायुष्यं दिवा स्वप्नं तथाऽभ्युदितशायिता।
प्रगे निशामाशु तथा ये चोच्छिष्ठाः स्वपन्ति वै।
पारदार्य्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा।
यत्नतो नैव कर्त्तव्यमभ्यासश्चैव भारत!।
सन्ध्यायां न च भुञ्जीत न स्नायान्न पठेत्तथा।
प्रयतश्च भवेत्तस्यां न च किञ्चित् समाचरेत्।
ब्राह्मणान् पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप!।
देवांश्च प्रणमेत् स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत्।
 अनिमन्त्रितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत दर्शकः।
अनर्चिते ह्यनायुष्यंगमनं तत्र भारत!।
न चैकेन परिव्रज्यं न गन्तव्यं तथा निशि।
अनागतायां सन्ध्यायामातत्य च गृहे वसेत्।
मातुः पितुर्गुरूणाञ्च कार्य्यमेवानुशासनम्।
हितं वाऽप्यहितं वाऽपि न विचार्य्यं कथञ्चन।
धनुर्वेदे च वेदेऽथ यत्नः कार्य्यो नराधिप!।
हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्य्यासु चैव ह।
यत्नवान् भव राजेन्द्र! यत्नवान् सुखमेधते।
अप्रधृष्यश्च शत्रूणां भृत्यानां स्वजनस्य च।
प्रजापालनयुक्तश्च न क्षतिं लभते क्वचित्।
युक्तिशास्त्रञ्च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रञ्च भारत!।
गान्धर्ब्बशास्त्रञ्च कलाः परिज्ञेया नराधिप!।
पुराणमितिहासाश्च तथाख्यानानि यानि च।
महात्मनाञ्च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव च।
पत्नी रजस्वला या च नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत्।
स्नाताञ्चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद्विचक्षणः।
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान् भवेत्।
एतेन विधिना पत्नीमुपागच्छेत पण्डितः।
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि पूजनीयानि सर्व्वशः।
यष्टव्यञ्च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
अत ऊर्द्ध्वमरण्यञ्च सेवितव्यं नराधिप!।
 एष ते लक्षणोद्देश आयुष्याणां प्रकीर्त्तितः।
शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर!।
आचारो भूतिजनन आचारः कीर्त्तिवर्द्धनः।
आचाराद्वर्द्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम्।
आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्द्धते।
एतद्यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
अनुकम्प्य सर्व्ववर्णान् ब्रह्मणा समुदाहृतम्

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