स्मृतियां हिन्दुओं के धर्म का मूल उपादान है। जिस प्रकार श्रुति को वेद माना जाता है उसी प्रकार धर्मसूत्र भी स्मृति ग्रन्थ मानी जाती है।
स्मृतियां बहुपयोगी सामाजिक विषयों का सङ्ग्रह हैं, जिनमें आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त जैसे विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार श्रुति-स्मृतियों में प्रतिपादित आचार के पालन से ही समाज के सर्वाधिक कल्याण की आशा करते हैं।
स्मृति ग्रन्थों में कुछ विषयों के प्रतिपादन में भिन्नतायें प्रतीत होती हैं। मनुस्मृति तथा याज्ञवलक्य स्मृति में आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त तीनों ही विषयों का समावेश किया गया है जबकि नारद स्मृति मूलतः व्यवहार प्रधान है। मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। पञ्चम अध्याय में शौचाचार, स्त्री धर्म, अशौचाचार का वर्णन किया गया है। दशम अध्याय में आपद्धर्म, षट्कर्म, चतुवर्णों के कर्म आदि, एकादश अध्याय में पातक, महापातक, प्रायश्चित्त आदि तथा द्वादश अध्याय में दार्शनिक तत्त्वांे का विवेचन किया है।
याज्ञवल्क्य स्मृति में तीन अध्याय हैं - आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त। आचाराध्याय में तेरह प्रकरण हैं जिसमें चातुर्वण्र्य तथा आश्रम के आचार, विवाह आदि संस्कार तथा राजा के आचार का वर्णन है। व्यवहाराध्याय में पच्चीस प्रकरण है जिसमें कर व्यवस्था, ऋणादान, वेतनादान आदि व्यवहारों का वर्णन है। प्रायश्चित्ताध्याय में पांच प्रकरण हैं जिसमें अशौच प्रकरण, आथद्धर्म, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन किया गया है।
मनु का कथन है कि - ‘‘स्मृति तथा धर्मशास्त्र का अर्थ एक ही जानना चाहिए।’’ वेद को श्रुति तथा धर्मशास्त्र को स्मृति जानना चाहिए वे सभी विषयों में प्रतिकूल तर्क के योग्य नहीं हैं क्योंकि उन दोनों से ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है।
तै सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥ मनु 2.10
स्मृति के अन्तर्गत षड्वेदाङ, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण, अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र इन सभी विषयों का अन्तर्भाव किया गया है।
धर्मशास्त्र उन शास्त्रों को कहा जाता है जिनमें, प्रजा के अधिकार, कर्तव्य, सामाजिक आचार-विचार, वर्णाश्रम धर्म-व्यवस्था, नीति, सदाचार आदि शासन सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया जाता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि स्मृतियों की रचना धर्मसूत्रों के आधार पर की गई है।
स्मृतियां हमारी संस्कृति, आचार, व्यवहार को स्मरण रखने में सहायक है।
स्मृतियां व्यक्ति के कार्यों पर नियंत्रण लगाकर, अनुशासित करके, व्यक्ति को समाज से अलग नहीं रखती अपितु स्मृतियां व्यक्ति को सुसंस्कृत, सामाजिक प्राणी बनाने में सहायक होती है।
स्मृति ग्रन्थ का तात्पर्य उन रचनाओं से है जो प्रायः श्लोकों में है तथा उन्हीं विषयों का प्रतिपादन करती हैं जिनका विवेचन धर्मसूत्रों में किया गया है। स्मृतियां प्रायः पद्य में तथा धर्मसूत्र गद्य में हैं। भाषा की दृष्टि से धर्मसूत्रों की भाषा अत्यंत क्लिष्ट तथा विद्वज्जनों की भाषा है किन्तु स्मृति की भाषा अत्यन्त सरल एवं आमजन की बोलचाल की भाषा है। विषय वस्तु की दृष्टि से स्मृतियां धर्मसूत्रों से अधिक व्यवस्थित तथा सुगठित है।
स्मृतियों की सङ्ख्या
मुख्य स्मृतियों की संङ्ख्या 18 है - मनुस्मृति, बृहस्पति स्मृति, दक्ष स्मृति, गौतम स्मृति, यम स्मृति, अंग्रिा स्मृति, योगीश्वर स्मृति, प्रचेता स्मृति, शातातप स्मृति, पराशर स्मृति, संवर्त स्मृति, उशना स्मृति, लिखित स्मृति, शंख स्मृति, अत्रि स्मृति, विष्णु स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति तथा हारीत स्मृति।
अष्टादश स्मृति में निम्न प्रमुख स्मृतियों का समावेश किया गया है - अत्रि संहिता, विष्णु प्रोक्त धर्म, हारीत स्मृति, औशनस स्मृति, अंग्रिा रस स्मृति, संवर्त स्मृति, लघु यम स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति, बृहस्पति स्मृति, कात्यायन स्मृति, पराशर स्मृति, दक्ष स्मृति, गौतम स्मृति, शातातप स्मृति।
वीरमित्रोदय के अनुसार स्मृतिकारों की संङ्ख्या 21 है -
वसिष्ठो नारदश्चैव सुमन्तुश्च पितामहः।
विष्णु कार्णाजिनिः सत्यव्रतो गार्ग्यश्च देवल।।
जमदग्निर्भरद्वाजः पुलस्य पुलहः क्रतुः।
आत्रेयश्च गवेयश्च मरीचिर्वत्स एवच।।
पारस्करश्चर्ष्यशृंगे वैजावापस्तथैवच।
इत्येते स्मृतिकर्तारः एकविंशतिरीरिताः।।
इसके अतिरिक्त उप स्मृतियों के भी नाम गिनाये गये हैं -
जाबालिर्नाचिकेतश्च स्कन्दो लौगाक्षिकाश्यपौ।
व्यास सनत्कुमारश्च शन्तनुर्जनस्तथा।।
व्याघ्रः कात्यायश्चैव जातूमकण्र्य कपिञ्जलः।
बौधायनश्च काणादो विश्वामित्रस्तथैव च।।
पैठीनसिर्गोभिलश्चेत्युपस्मृति विधायकाः।
स्मृति सन्दर्भ के प्रथम भाग में - मनुस्मृति, नारदीय, अत्रि स्मृति, अत्रि संहिता, प्रथम विष्णु स्मृतिः (महात्म्यं), विष्णु स्मृति, द्वितीय भाग में - पराशर स्मृति, वृहत्पराशर स्मृति, लघुहारीत स्मृति, वृद्धहारीत स्मृति, तृतीय भाग में - याज्ञवल्क्य स्मृति, कात्यायन स्मृति, लिखित स्मृति, शंखलिखित स्मृति, वसिष्ठ स्मृति, लघुव्यास संहिता, (वेद) व्यास स्मृति, बौधायन स्मृति, चतुर्थ भाग में-गौतम स्मृति, वृद्ध गौतम स्मृति, यम स्मृति, लघुयम स्मृति, वृहद्यम स्मृति, अरूण स्मृति, पुलस्त्य स्मृति, बुध स्मृति, वसिष्ठ स्मृति नं. - 2, वृहद्योगियाज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रह्मोक्तयाज्ञवल्क्यसंहिता, काश्यम स्मृति, व्याघ्रपाद स्मृति पंचम भाग में - कपिल स्मृति, वाधूल स्मृति, विश्वामित्र स्मृति, लोहित स्मृति, नारायण स्मृति, शाण्डिल्य स्मृति, कण्व स्मृति, दाल्भ्य स्मृति, अंगिरस स्मृति नं-2, (क) पूर्वांगिरसम् (ख) उत्तरांगिरसम् षष्ठ भाग में - लौगाक्षि स्मृति तथा मार्कण्डेय स्मृति का संग्रह है।
स्मृतिचन्द्रिका के अनुसार -
तेषां मन्वङिगरोव्यासगौतमान्न्युशनोयमाः।
वसिष्ठदक्षसंवर्तशातातप शातातपपराशराः।।
विष्णवापस्तम्बहारीताः शंङ्ख कात्यायनो गुरुः।
प्रचेता नारदो योगी बौधायनपितमहौ।।
सुमन्तु कश्यपो बभ्रु पैठीनो व्याघ्र एव च।
सत्यव्रतो भारद्वाजो गाग्र्यः काष्र्णाजिनिस्तािा।।
जाबालिर्जमदग्निश्च लौगाक्षिब्र्रह्मसम्भवः।
इति धर्मप्रणेतारः षङिशदृषयस्मृताः।।
स्मृतियों की सङ्ख्या में एक मत नहीं है। स्मृतियों की संङ्ख्या 100 के समकक्ष मानी जाती है। जिनमें 18 स्मृतियां प्रमुख हैं। उपस्मृतियों की सङ्ख्या अधिकतम है।
वेदों में धर्म का कोई व्यवस्थित उल्लेख नहीं है। किन्तु स्मृतियाँ वेदों से अधिक सुगठित शास्त्र है। वेदों के समान ही स्मृतियों में भी धर्म, शिक्षा, संस्कार, आश्रम व्यवस्था, राजधर्म आदि विषयों का चरणबद्ध प्रतिपादन किया गया है। सामाजिक व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए मनु ने आश्रम व्यवस्था के समान वर्ण व्यवस्था को भी महत्त्वपूर्ण माना है।
जिस प्रकार स्मृतियों में आचार का अधिक वर्णन किया है उसी प्रकार वेदों में भी आचार की शिक्षा दी जाती है। ‘‘चरित्र रक्षा के बारे में यजुर्वेद में कहा गया है कि - ‘‘मैं तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे प्राणों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरी आंखों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे कानों को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरी नाभि को शुद्ध करता हूँ। मैं तेरे आचरण तथा पैरों को शुद्ध करता हूँ।’’
ऋग्वेद में दान का महत्त्व वर्णित किया गया है। दान सभी इष्ट सुखों को देने वाला है तथा मनुष्य की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है।
‘‘दान देने वालों को ही उत्तम धन प्राप्त होते हैं। दान देने वालों को द्युलोक में सूर्यलोक प्राप्त होते हैं। दान देने वाले अरत्व या मोक्ष को प्राप्त करते हैं। दान देने वाले ही अपनी आयु को निरन्तर बढ़ाते हैं।’’ मनु ने भी दान की प्रशंसा की है।
याज्ञवल्क्य स्मृति में दान को धर्म के मुख्य साधनों में गिनाया है।’’ उनका कथन है कि ‘‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, स्वच्छता, संयम, दान, मनोनिग्रह, दया, क्षमा ये सभी धर्म के साधन है।’’
महर्षि मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं - धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी (तत्वज्ञान), विद्या, सत्य, अक्रोध।
वेदों में हिंसा का निषेध करने के लिए कहा गया है।’’ गाय तथा मनुष्य का वध करने वाले दूर रहें।’’ इसी प्रकार प्राणियों की हिंसा कभी भी सुखदायक नहीं होती है।
इस चराचर जगत् में जो हिंसा वेद सम्मत है, उसे हिंसा नहीं समझना चाहिये क्योंकि वेद से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है।
वेदों में अतिथि को देवता स्वरूप माना गया है। ‘‘अतिथि मनुष्य को स्वर्ग (के सुख) तक पहुंचाते हैं।इसी प्रकार मनु ने कहा है कि ‘‘अतिथि का सत्कार सौभाग्य, यश, आयु तथा स्वर्ग देने वाला होता है।’’ अतिथि के भोजन कर लेने पर गृहस्थ भोजन करें।
मनु ने भी अतिथि से पहले भोजन करने का निषेध किया है।जो अतिथि से पहले खा लेता है, वह अपना यज्ञ तथा परोपकार का पुण्य खा जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदों में जो कर्म मनुष्य के लिए धर्मरूप में कहा गया वह सब स्मृतियों ‘चाहिए’ अर्थ में कहा गया है। अतः हम यह कह सकते हैं कि स्मृतियां वेदानुवर्ती हैं।
स्मृति-प्रतिपाद्य विषय
प्रायः सभी स्मृतिग्रन्थों में मुख्य रूप से आचार की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। वेदों, ब्राह्मण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत सम्पूर्ण संस्कृत वांङ्मय में विवेचित धर्म का वास्तविक रूप आचार ही है। उनके सभी नियम व्यक्ति के आचरण से सम्बद्ध है। मनुष्य को किन-किन अवस्थाओं में, परिस्थितियों में किस प्रकार का आचरण करना चाहिए यही स्मृतियांे में विवेचित है। शिष्टाचार को परम महत्त्व देने के कारण ही स्मृतिकारों ने प्रत्येक अवसर के लिए छोटे-छोटे आचार नियमों का भी निर्देश किया है। स्मृतियाँ मानव जीवन को समग्र रूप में ग्रहण करती हैं तथा इसी कारण आचरण को व्यवस्थित करने के लिए नियमों एवं निषेध नियमों का निर्देश करती हैं। स्मृतियों में आचार विषयक नियमों की ही अधिकता है तथा आचार का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसका स्पष्टीकरण कठिन है। स्मृतियों की विषय वस्तु को आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त शीर्षकों में विभक्त करते हुए आचार के अन्तर्गत वर्णाश्रम कर्तव्य, अकर्तव्य, सदाचार, संस्कार, श्राद्ध, शौचाचार, नैतिक-अनैतिक आचरण तथा विविध प्रकार के शुद्धि विषयक आचारों का वर्णन किया गया है
स्मृतियों में आचार के पश्चात् व्यवहार का उल्लेख किया गया है। स्मृतियों में वर्णित व्यवहार पक्ष न्याय व्यवस्था, दण्ड, नीति नाम से जाना जाता है। मनुष्य पर अंकुश लगाकर उन्हें अनुशासित करना व्यवहार के अन्तर्गत आता है।
आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक राजद्रोह तथा अन्य अपराधों के लिए दण्ड का निरूपण स्मृतियों ने व्यवहार पक्ष के माध्यम से किया है।
इसमें पापों के प्रायश्चित्त, पाप करने से नारकीय गति का विवरण, शुद्धि-अशुद्धि की प्रक्रिया, दुष्ट कर्मों का फल, प्रायश्चित्त का स्वरूप, पापी को सुधारने का उपाय, कामज, क्रोधज, अतिपाप, उपपातक, अतिदेश, संकरीकरण एवं मालिनीकरण को दिखाकर उन-उन पापकर्मों के प्रायश्चित्त की विधियां बताई गई है।
अन्त में सन्यास धर्म में संसार की अनित्यता एवं भगवान् की सत्यता बताकर मानव जगत को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जाती है अर्थात् जाने अनजाने में किए गए दुष्कर्मों को सुधारने हेतु जो मृत्यु या सरल दण्ड मिलता है वही प्रायश्चित्त हैं।
कुछ स्मृतियां मूलतः प्रायश्चित्त परक हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के व्रत उपवास एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है जिनमें देवल स्मृति, व्यास स्मृति, बौधायन स्मृति, शातातप स्मृति का विशेष महत्त्व है। बौधायन स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त न करने से नरक भोगने के अनन्तर देह में चिन्ह, शारीरिक विकृति एवं असाध्य रोग के अङ्कुर हो जाते हैं।
देवल ने विभिन्न प्रकार की शुद्धि, जाति, शुद्धि तथा समाज शुद्धि की व्यवस्था की है। साथ ही समाज से बहिष्कृत जनों की पुनः अपने ग्राम या समाज में सम्मिलित करने की विधि भी बतायी है।
आचार का अर्थ
आचार का शाब्दिक अर्थ है - अच्छा आचरण।
वामन शिवराम आप्टे ने आचार का अर्थ 1. आचरण, व्यवहार, कार्य करने की रीति, चाल-चलन, 2. प्रथा, रिवाज, प्रचलन, लोकाचार, प्रथा सम्बन्धी कानून।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार का सम्बन्ध ऐच्छिक क्रियाओं से है अनैच्छिक क्रियाओं से नहीं - जैसे छींकना, खांसना आदि। आचार का सम्बन्ध इच्छानुसार होने से किस प्रकार कार्य करना चाहिए ? क्या उपयुक्त है क्या अनुपयुक्त ? इसी उपयुक्त तथा अनुपयुक्त को परखने वाली कसौटी ही आचार शास्त्र हैं।
आचार को प्रायः कर्तव्य तथा धर्म से जोड़ा जाता है। यद्यपि आचार तथा धर्म मानव जीवन की दो अलग-अलग पूंजी है अपितु दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।
किसी देश विशेष में किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से एक दूसरे को विशिष्ट समाज के रूप में बांधने के लिए जो आचार नियम बनाये जाते हैं वे ही ‘रिलीजन’ के अन्तर्गत आते हैं। यह शब्द लातीनी भाषा के ‘रिलिजिओ’ शब्द से निष्पन्न है जो मूलतः ‘रेलिगारे’ (बांधना धातु से सम्बद्ध) है। फलतः ‘रिलीजन’ एक समाज विभिन्न मानवों को बांधने वाली अनुष्ठान विधियों का द्योतक है।’’
धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है - धारण करना, आलम्बन लेना या पालन करना। धर्मशब्द का बहुत शास्त्रकारों ने विभिन्न अर्थ प्रकट किये हैं। ऋग्वेद में धर्म धार्मिक क्रियाओं या धार्मिक संस्कारों के रूप में प्रयुक्त हुआ है।धर्म अलौकिक शक्ति का द्योतक है।कहीं-कहीं धर्म का अर्थ निश्चित नियम तथा आचार नियम के लिए प्रयुक्त हुआ है।इन नियमों से संसार के लोग सुखी तथा स्वच्छन्द पूर्वक रहते हैं।
भगवतगीता में धर्म शब्द से अभिप्राय है कि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करें।महाभारतानुसार हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
स्मृतिशास्त्र में धर्म को कर्तव्य के अर्थ में प्रयुक्त किया है।महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्म को कर्तव्य के अर्थ में प्रयुक्त किया है।मिताक्षरा में धर्म के छः स्वरूप बताये गये हैं।
धर्म की प्रेरणा से सदाचार उत्पन्न होता है।सदाचार का प्रत्यक्ष तथा साक्षात् आदर्श लोगों को एक सजीव प्रेरणा प्रदान करता है। धर्म सम्बन्धी विवाद में सदाचार का प्रत्यक्ष आदर्श निर्णायक कार्य करता है। धर्म के विधानों में विरोध होने से धर्म का निर्णय कठिन हो सकता है किन्तु सदाचार के आदर्शों में इतना अधिक विरोध कभी सम्भव नहीं है।
वेद, स्मृति तथा सदाचार धर्म के तीन मुख्य प्रमाण हैं।उनसे प्रमाणित आचार ही धर्म है। महाभारत धर्म के यही तीन प्रमाण माने गये हैं। अहिंसा, सत्य, दया आदि इन्हीं के अनुसार धर्म ठहरते हैं। स्मृतियों में इनका विधान है। मनु ने आत्मप्रियता अथवा आत्मतुष्टि को धर्म का एक चतुर्थ प्रमाण माना है।इस मर्यादा के अन्तर्गत अपने प्रिय तथा अनुकूल कर्म भी धर्म हो सकते हैं।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने लोक विरूद्ध आचार का पालन का निषेध करते हुए कहते हैं कि - ‘‘कर्म मन तथा वचन से यत्नपूर्वक धर्म का आचरण करे धर्म विहित होने पर लोकविरूद्ध कर्म हो तथा उससे स्वर्ग की प्राप्ति न हो तो उसे नहीं करना चाहिए।
याज्ञवल्क्य स्मृति में अहिंसा, सत्य, अचैर्य, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय संयम, दान, दम (अन्तःकरण का संयम), दया (दीनों पर) तथा (अपकार पर भी) क्षमा ये सभी के लिये (सामान्य रूप से) धर्म के साधन हैं।
छहों वेदांगों सहित वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते। आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।आचार सभी का धर्म है, आचार से हीन मनुष्य इस लोक तथा परलोक दोनों में नष्ट होता है।छल-कपट के साथ करने वाले मायावी पुरुष को पढ़े हुए वेद पाप से पार नहीं सकते हैं, किन्तु शुद्धाचारी मनुष्य को श्रद्धापूर्वक पढ़े हुए वेद के दो अक्षर भी पवित्र कर देते हैं।आचार से हीन मनुष्य लोक में निन्दित, सदा दुःखी, रोगी तथा अल्प अवस्था वाला होता है।जो द्विज मनु द्वारा कहे गये दस लक्षण वाले धर्मों को अध्ययन करते हैं तथा अध्ययन करके उसका आचरण करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी आचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि सभी लक्षणों से युक्त होने पर भी जो मनुष्य आचार से वर्जित है। वह विद्या तथा इच्छित फल को प्राप्त नहीं कर पाता है। आचारहीन पुरुष नरक को प्राप्त करते हैं। आचारहीन ब्राह्मण अल्पायु को प्राप्त करते हैं। आचारहीन राक्षस होते हैं। आचारहीन मनुष्य को छः अङगों सहित वेद भी पवित्र नहीं कर सकते हैं। आचारहीन मनुष्य द्वारा किये गये सभी धार्मिक कार्य मिथ्या होते हैं।
इस प्रकार विभिन्न ग्रन्थों के अनुशीलन से हमें ज्ञात होता है कि आचार ही जीवन का सर्वस्व है अर्थात आचार ही परम धर्म है
देश, काल तथा राष्ट्रीय आचार के सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य का कथन है कि जिस देश में काले मृग स्वच्छन्द विचरण करते हैं ,उस देश में सभी आचार फलित होते हैं।इससे प्रतीत होता है कि जिस स्थान पर सुखपूर्वक तथा शान्तिपूर्वक मनुष्य ही नहीं पशु भी निडर होकर निवास करते हैं वहां पर सभी आचार फलित होते हैं। सरस्वती तथा दृष्द्वती इन दोनों देव नदियों के बीच के देवनिर्मित देश को ब्रह्मावर्त देश कहते हैं। इस देश में चारों वर्ण तथा वर्णसङ्कर जातियों के बीच जो परम्परागत आचार है, उन्हें सदाचार कहते हैं।
यस्मिन् देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।। मनु 2.17
कुरूक्षेत्र, मत्स्य देश (जयपुर आदि), पांचाल देश (कन्नौज आदि) तथा शूरसेन (ब्रजभूमि) को जो ब्रह्मावर्त से कुछ न्यून हैं, ब्रह्मर्षिदेश कहते हैं, इन देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से पृथिवी के सब मनुष्यों को अपना-अपना आचार सीखना चाहिये। हिमालय, विन्ध्यगिरि, विनशन तथा प्रयाग देश मध्यदेश कहा जाता है।इस प्रकार देखते हैं कि राष्ट्र के चारों ही दिशाओं के भी स्व आचार हैं।
ब्रह्मचारी अधार्मिक ग्राम में निवास न करें, बहुत्याधियुक्त शूद्र के राज्य, अधर्मियों के देश तथा पाखण्डियों के वशवर्ती देश अथवा अन्त्यजातियों तथाउपद्रवयुक्त देश में निवास न करें।
वैश्विक आचरण
1. शौच- शौच दो प्रकार का होता है - वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है।आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं।जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है वह पुरुष हजार बार मट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते।मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये।शोचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे।
मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो।
शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है - जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त।
सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
2.. अहिंसा-अहिंसा का सामान्य अर्थ हिंसा न करना अर्थात् किसी के प्राण न लेना। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा परम सुख है।मनु ने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ अहिंसा को सभी आचार का मूल माना है। धर्म की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अहिंसा द्वारा ही अनुशासन करना चाहिए।अहिंसा द्वारा तपस्वी लोग इस संसार में ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं।गृहस्थ द्वारा सर्वदा पाँच हत्याऐं होती हैं - चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली तथा जल का घड़ा के द्वारा की गई हत्याओं की पाप निवृत्ति के लिये पंचयज्ञकर्म का प्रतिपादन किया गया है।
मनु ने आठ प्रकार के हिंसा का उल्लेख किया है। ‘‘अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अगें को काटने वाला), निहन्ता (मारने वाला), विक्रेता (मांस बेचने वाला), क्रेता (मांस को खरीदने वाला), संस्कत्र्ता (मांस को पकाने वाला), उपहत्र्ता (उपहार रूप में मांस को देने वाला), खादक (मांस खाने वाला) सभी घातक हिंसक होते हैं।मधुपर्क, यज्ञ (ज्योतिष्टोम आदि), पितृकार्य (श्राद्ध), देवकार्य में हिंसा करने की अनुमति दी गई है क्योंकि वेद सम्मत है (अन्यत्र कहीं नहीं)।आपत्तिकाल में भी हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है।अहिंसक जीवों की हत्या करने का निषेध करते हुये कहा गया है कि ‘‘जो अहिंसक जीवों का अपने सुख (जिव्हास्वाद - शरीरपुष्टि आदि) की इच्छा से वध करता है वह इहलोक तथा परलोक में सुखपूर्वक उन्नति नहीं कर सकता है।
जो देवता तथा पितरों को बिना तृप्त किये दूसरे (जीवों) के मांस से अपने शरीर के मांस को बढ़ाना चाहता है उससे बड़ा दूसरा कोई पापी नहीं है।मांस त्याग का फल सौ अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है।मांस भक्षण में छूट देते हुए मनु कहते हैं कि मदिरा सेवन तथा मैथुन करने मांस भक्षण करने में दोष नहीं है।
शरण में आये बालक तथा स्त्री की हिंसा करने वालों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने पर उनके साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये।
अन्न के अभाव में या रोग में मांस के बिना प्राण बचना कठिन हो, श्राद्ध में, प्रोक्षण नाम के (श्रौत संस्कार) में देवताओं की आहुति से अवशिष्ट, ब्राह्मण के भोजन या देवता तथा पितर के लिये बनाये गये मांस को देवता तथा पितरों की अर्चना करके खाने वाला पाप का दोषी नहीं होता है।
अत्रि मुनि ने हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्राश्चित्त का भी विधान किया है। जो मनुष्य काष्ठ, ढेला आदि से गौ को मारता है वह ‘‘कृच्छ’’ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह ‘‘अतिकृच्छ’’ व्रत करें।शम्भ ऊंट, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे।बिल्ली, गोह, नौला, मेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर फिर ‘‘पादकृच्छ्र को करै।मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे।
जो मनुष्य शिल्पी, कारीगर, शूद्र तथा स्त्री को मारता है वह दो ‘‘प्राजापत्य’’ करके ग्यारह बैलों का दान करे तब उसकी शुद्धि होती है।निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो ‘‘अतिकृच्छ्रव्रत’’ कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है।जो मनुष्य अधर्मी वैश्य, शूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है उसकी शुद्धि ‘‘चांद्रायण’’ व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है।यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह ‘‘कृच्छ्र तथा प्राजापत्य’’ व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है।क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है।
‘अहिंसा भावना’ प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। इसके बिना मानव जाति सहित समस्त प्राणियों के बीच सुख, शान्ति, स्थापित होना असम्भव है। प्रायः सभी धर्मों ने ‘अहिंसा’ को एक स्वर में स्वीकार किया है। प्राणी की हिंसा करना पाप माना गया है। इस प्रकार स्मृतियों में अहिंसा भावना को सुप्रतिष्ठित किया है तथा इसे अन्तर्जीवन की अमृतङ्गा माना गया है।
3.दान-दान को ही स्मृतियों में ‘‘इष्ट’’ तथा ‘‘पूर्त’’ भी कहा गया है। ‘‘इष्टाचार’’ अग्निहोत्रादि यज्ञों से सम्बन्धित कहे गये हैं तथा पूर्त धर्म के अन्तर्गत ‘‘दान’’ एवं ‘‘उत्सर्ग’’ का समावेश होता है।इस प्रकार इष्ट का तात्पर्य- ‘‘यज्ञ’’ तथा ‘‘दक्षिणा’’ तथा पूर्त का तात्पर्य- ‘‘दान’’ तथा ‘‘उत्सर्ग’’।
यम ने दान को गृहस्थ का परम धर्म बतलाया है। ‘‘इष्ट’’ का तात्त्पर्य (मण्डप के भीतर यज्ञादि का कार्य) तथा ‘‘पूर्त’’ का तात्पर्य (वापी, कूप, तड़ाग आदि का निर्माण) सदैव करवाना चाहिये क्योंकि ‘‘इष्ट’’ के माध्यम से स्वर्ग तथा पूर्त के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है।कलियुग में दान को ही श्रेष्ठ माना गया है।
जो दान आप जाकर दिया जाता है वह उत्तम है, बुलाकर जो दान दिया जाता है वह मध्यम है, दान याचना करने पर दिया जाता है वह निकृष्ट है तथा जो सेवा करा कर दान दिया जाता है वह निष्फल है।अशिक्षित तथा तप से हीन व्यक्ति को दान देने से दाता नरक को प्राप्त करता है।यथाशक्ति प्रतिदिन गौ दान देना चाहिए। (सूर्य या चन्द्रग्रहण) जैसे अवसरों पर विशेष रूपसे यथाशक्ति दान देना चाहिए।गोदान द्वारा मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करता
है।
वेद का दान सभी दानों में श्रेयस्कर है, इसका दान देने वाला ब्रह्मलोक में अचल होकर सतत निवास करता है।दान इतना ही देना चाहिए, जिससे अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में कठिनाई न हो। पुत्र तथा स्त्री को दान में नहीं देना चाहिए।पृथ्वी आदि का दान सबके समझ लेना चाहिए।
अन्न तथा वस्त्र का दाता परलोक में निवास करता है।सुवर्णदान, गोदान तथा पृथ्वी दान करने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पा लेता है।कन्या दान करके प्राप्त फल कभी भी नष्ट नहीं होता है।
श्राद्ध दान देने वाला व्यक्ति दीर्घायु, सन्तान, धन, विद्या, मोक्ष, सुख तथा राज्य को प्राप्त करते हैं।कुल में दानी पुरुषों की अधिकता हो ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए।बिना मांगे जो मिले उसे ‘‘अमृत’’ तथा मांगने पर जो मिले उसे ‘‘मृत’’ समझना चाहिये।शास्त्रोक्त दान के द्वारा प्राप्त धन धर्मयुक्त कहा गया है।
इससे प्रतीत होता है कि मनु द्वारा कथित धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध वैश्विक आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मनु ने अहिंसा तथा दान को दस धर्म के लक्षण के अन्तर्गत नहीं माना है तथापि अहिंसा तथा दान अन्य आचारों में परिलक्षित होते हैं।
मानव सम्पूर्ण सुख-शान्ति तभी पा सकता है जब वह दूसरों के साथ भी वैसा ही आचरण करे जैसा हम स्वयं के लिए चाहते हैं। आचार को ही दर्पण मानकर अपना परिष्कार करेंगे तभी हम मानवता को प्राप्त कर सकते हैं। स्मृतिकालीन समाज में जो आचार चलन में था, वर्तमान समय में वही आचार अब असाधारण हो गया है। असली सुख दान, पुण्य, परोपकार, दया, अनुकम्पा, सहायता आदि सदाचार द्वारा प्राप्त होता है। भौतिक सुख तो अस्थाई हैं। स्थाई सुख तो मोक्ष प्राप्त करने में है जो सदाचार के माध्यम से प्राप्त होता है।
स्मृतियों तथा अन्य ग्रन्थों में शुद्धि की प्रक्रिया
मृत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति ।
रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः ।।5/108
नासंवृत्तमुखः
सदसि जृम्भोद्गारकासश्वासक्षवथूनुत्सृजेत् । (सुश्रुतसंहिता, चिकित्सा २४/९४)
अर्थात् मुख
को बिना ढके सभा में उबासी, खांसी, छींक, डकार इत्यादि न लेवें ।
नाकारणाद् वा
निष्ठीवेत् । (कूर्मपुराण,उ.१६/६८)
अर्थात् बिना
कारण थूकना नहीं चाहिए ।
अनातुरः
स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः । (मनुस्मृति ४/१४४)
अर्थात् बिना
कारण अपनी इन्द्रियों (नाक, कान इत्यादि) को न छूएं ।
न
छिन्द्यान्नखलोमानि दन्तैर्नोत्पाटयेन्नखान् । (मनुस्मृति ४/६९)
दांतों से
नाखून,
रोम अथवा बाल चबाने या काटने नहीं चाहिये ।
नाभ्यङ्गितं
कायमुपस्पृशेच्च । (वामन
पुराण १४/५४)
अर्थात्
तेल-मालिश किये हुए व्यक्ति के शरीर का स्पर्श नहीं करना चाहिये ।
अकृत्वा
पादयोः शौचं मार्गतो न शुचिर्भवेत् । (पद्मपुराण, स्वर्ग.५२/१०)
अर्थात् कहीं
बाहर से आया हुआ व्यक्ति पैरों को धोये बिना शुद्ध नहीं होता ।
उपानहौ च
वासश्च धृतमन्यैर्न धारयेत् । (मनुस्मृति ४/६६)
अर्थात्
दूसरों के पहने हुए वस्त्र और जूते नहीं पहनने चहिए ।
शुद्ध सरसों
के तेल का नस्य लें क्योंकि यह कृमि नाशक होता है।
कटुतैलादि
नस्यार्थे नित्याभ्यासेन योजयेत् ।
व्यायाम भी
अत्यन्त उपयोगी हैं क्योंकि इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
व्यायामादृढगात्रः
व्याधिर्नास्ति कदाचन। प्राणायाम करें - क्योंकि रक्त प्रवाह से लेकर मल विसर्जन तक समस्त क्रियाएं
पञ्च वायु के द्वारा ही नियंत्रित होती हैं (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान ये पञ्चवायु हैं।
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हे कलमकार मनीषी आपकी जय हो
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