लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते अपत्याधिकारः)

अथापत्‍याधिकारः

१००६ स्‍त्रीपुंसाभ्‍यां नञ्स्‍नञौ भवनात्
धान्‍यानां भवन इत्‍यतः प्रागर्थेषु स्‍त्रीपुंसाभ्‍यां क्रमान्नञ्स्‍नञौ स्‍तः । स्‍त्रैणः । पौंस्‍नः ।।

धान्यानां भवने क्षेत्रे खञ् (5.2.1) इससे पहले के अर्थों में स्त्री तथा पुंस शब्द से क्रमशः नञ् तथा खञ् प्रत्यय होंगें। स्त्री-पुंसाभ्यां सूत्र से धान्यानां भवने सूत्र से पहले तक अपत्य, भव, रक्त,समूह,निवृत्त,निवास, जात, भव,विकार आदि अनेक अर्थों में प्रत्यय होते हैं, उन सभी अर्थों में नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होंगें।

स्त्रियाः अपत्यं पुमान्। स्त्रीषु भवः तथा स्त्रीषु समूहः इन अर्थों में स्त्री शब्द से नञ् प्रत्यय हुआ। स्त्री + नञ् नञ् के ञकार का अनुबन्ध लोप तथा तद्धितेश्वचामादेः से आदि अच् स्त्री के ईकार की वृद्धि ऐकार हुआ। स्त्रै + न हुआ।  परस्पर वर्ण संयोग स्वादि की उत्पत्ति होकर स्त्रैणः रूप बना। इसी प्रकार पुंस्न शब्द से पूर्वोक्त अर्थ में स्नञ् प्रत्यय हुआ। पुंस् + स्नञ् स्वादिष्वसर्व से पद संज्ञा संयोगान्तस्य लोपः से पुंस् इस संयोग के अंतिम पद के सकार का लोप हुआ। स्वादि कार्य होकर पुंस्नः रूप सिद्ध हुआ। स्त्रियाः अपत्यं स्त्रीः विग्रह में नञ् प्रत्यय के बाद टिढ्ढाऽणञ् से ङीप् होकर स्त्रैणी रूप बनेगा। स्मरण करने योग्य है कि टिढ्ढाऽणञ् सूत्र तद्धितान्त प्रत्ययों से ङीप् करता है।

१००७ तस्‍यापत्‍यम्
षष्‍ठ्यन्‍तात्‍कृतसन्‍धेः समर्थादपत्‍येऽर्थे उक्ता वक्ष्यमाणाश्‍च प्रत्‍यया वा स्‍युः ।।
ऐसी षष्ठी विभक्ति जहाँ सन्धि की जा चुकी हो तथा समर्थ हो उससे पूर्व में कहे जा चुके (अण्, ख्य, नञ्, स्नञ् आदि) तथा आगे कहे जाने वाले (इञ् आदि) प्रत्यय विकल्प से हों।
१००८ ओर्गुणः
उवर्णान्‍तस्‍य भस्‍य गुणस्‍तद्धिते । उपगोरपत्‍यमौपगवः । आश्वपतः । दैत्‍यः । औत्‍सः । स्‍त्रैणः । पौंस्‍नः ।।
तद्धित प्रत्यय परे रहते उवर्णान्त भसंज्ञक को गुण हो।
१००९ अपत्‍यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्
अपत्‍यत्‍वेन विवक्षितं पौत्रादि गोत्रसंज्ञं स्‍यात् ।।
अपत्य के कथन की इच्छा में पौत्र आदि (प्रपौत्र, प्रप्रपौत्र आदि) की गोत्र संज्ञा हो।
१०१० एको गोत्रे
गोत्रे एक एवापत्‍यप्रत्‍ययः स्‍यात् । उपगोर्गोत्रापत्‍यमौपगवः ।।
गोत्र संज्ञक अर्थ में एक ही अपत्य प्रत्यय हो। चुंकि अपत्य अर्थ में भी गर्ग शब्द से यञ् प्रत्यय होकर गार्ग्यः बनेगा। पुनः इस गार्ग्य से गोत्रापत्य अर्थ में प्रत्यय प्राप्त होगा जिसका निषेध प्रकृत सूत्र द्वारा किया गया है।
१०११ गर्गादिभ्‍यो यञ्
गोत्रापत्‍ये । गर्गस्‍य गोत्रापत्‍यं गार्ग्यः । वात्‍स्‍यः ।।
गोत्रापत्य अर्थ में गर्ग आदि शब्दों से यञ्  प्रत्यय हो।
गर्गस्य गोत्रापत्यम् पुमान् इस लौकिक विग्रह में गर्ग शब्द से यञ् प्रत्यय हुआ। गर्ग + यञ् हुआ। यञ् के ञकार का अनुबन्ध लोप तथा तद्धितेश्वचामादेः से आदि अच् गर्ग के के अकार की वृद्धि आकार हुआ। गर्ग + य हुआ। यस्येति च से गर्ग के अंतिम अकार का लोप, विभक्ति कार्य गार्ग्यः रूप बना। इसी प्रकार वत्सस्य गोत्रापत्यम् वात्स्यः वात्स्यः रूप बनेगा।
१०१२ यञञोश्‍च
गोत्रे यद्यञन्‍तमञन्‍तं च तदवयवयोरेतयोर्लुक् स्‍यात्तत्‍कृते बहुत्‍वे न तु स्‍त्रियाम् । गर्गाः । वत्‍साः ।।

गोत्र अर्थ में जो यञन्त और अञन्त पद उसके अवयव यञ् और अञ् का स्त्रीलिंग को छोड़कर बहुत्व की विवक्षा में लोप हो।
गर्गाः। गोत्रापत्य में गर्ग शब्द से गोत्रादिभ्यः से यञ् हुआ। गर्ग+ यञ् = गार्ग्य रूप बना।  इस गार्ग्य शब्द से बहुबचन में जस् विभक्ति हुई। गार्ग्य+ जस् स्थिति में   यञञोश्च से यञ् को लोप हो गया। यञ् के लोप होने के कारण आदि वृद्धि का कार्य भी निवृत्त हो गया। गर्ग+ जस् होकर गर्गाः रूप बना। इसी प्रकार यञन्त वात्स्य से  बहुबचन में वत्साः रूप बनेगा।
१०१३ जीवति तु वंश्‍ये युवा
वंश्‍ये पित्रादौ जीवति पौत्रादेर्यदपत्‍यं चतुर्थादि तद्युवसंज्ञमेव स्‍यात् ।।
वंश में पिता, पितामह के जीवित रहने पर पौत्र आदि के अपत्य को युव संज्ञा हो। अर्थात् प्रपौत्र के प्रपितामह यदि जीवित हों तो प्रपौत्र की युव संज्ञा होगी।
१०१४ गोत्राद्यून्‍यस्‍त्रियाम्
यून्‍यपत्‍ये गोत्रप्रत्‍ययान्‍तादेव प्रत्‍ययः स्‍यात्स्‍त्रियां तु न युवसंज्ञा ।।
युवापत्य अर्थ में विहित प्रत्यय गोत्र प्रत्ययान्त से हो, स्त्रीलिंग में युवसंज्ञा नहीं हो।


१०१५ यञिञोश्‍च
गोत्रे यौ यञिञौ तदन्‍तात्‍फक् स्‍यात् ।।
गोत्र अर्थ में यञन्त तथा इञन्त शब्द से फक् हो। फक् के ककार की इत्संज्ञा लोप हो जाता है। फकार शेष रहता है।
१०१६ आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्‍ययादीनाम्
प्रत्‍ययादेः फस्‍य आयन्ढस्‍य एय्खस्‍य ईन्छस्‍य ईय्घस्‍य इय् एते स्‍युः। गर्गस्‍य युवापत्‍यं गार्ग्‍यायणः । दाक्षायणः ।।
प्रत्यय के आदि फ ढ ख छ तथा घ को क्रमशः आयन्, एय्, ईन्, ईय्, इय् आदेश हो।
गर्गस्य युवापत्यम् (पुमान्) इस लौकिक विग्रह में गर्ग शब्द से  गोत्रादिभ्यो यञ् से अपत्यर्थक यञ् प्रत्यय हुआ। यञ् के ञकार का लोप गर्ग के आदि अकार की वृद्धि आकार  होकर गार्ग्य + अ हुआ। इस यञन्त गार्ग्य शब्द से यञिञोश्च से फक् प्रत्यय हुआ। फक् के ककार का अनुबन्ध लोप आयनेयी से फकार के स्थान पर आयन् आदेश गार्ग्य + आयन् + अ हुआ। गार्ग्य को भसंज्ञा, यस्येति च से अन्त्य अकार का लोप, आयन् के नकार को अट्कुप्वाङ् से णकारादेश, विभक्ति कार्य गार्ग्यायणः रूप सिद्ध हुआ।

 अपत्यं पौत्रप्रभृति तथा जीवति तु वंश्ये इन दोनों सूत्रों के प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि अपत्य शब्द का अर्थ पुत्र, आत्मज, सुनू आदि है। शास्त्रों में पौत्र आदि को भी अपत्य कहा गया है। यह अपत्य तीन प्रकार का होता है। 1. अनन्तरापत्य 2. गोत्रापत्य 3. युवापत्य।  इतना तक आप जान चुके हैं। यहाँ यह जानने योग्य है कि किस पीढी से किस पीढ़ी तक को अनन्तरापत्य, किस पीढी से किस पीढ़ी तक को गोत्रापत्य तथा किस पीढी से किस पीढ़ी तक एवं किन स्थितियों में युवापत्य संज्ञा होगी?
1. तीनों अपत्यों में से पुत्र को अन्तरापत्य कहा जाता है।
2. प्रथम पुरुष के तृतीय पीढ़ी को अर्थात् पौत्र तथा इसके आगे की गोत्र संज्ञा होने से यह पीढ़ी तथा इसके आगे की पीढ़ी गोत्रापत्य कहलायेंगें। एको गोत्रे नियम के अनुसार गोत्रसंज्ञक अपत्य में अपत्यार्थक एक ही प्रत्यय होगा। गर्गस्य गोत्रापत्यं (पुमान्) गार्ग्यः।
3. जिस संतान के पिता, पितामह जीवित हों उसे गोत्रसंज्ञा नहीं होकर युव संज्ञा होगी। अर्थात्  तृतीय पीढ़ी से आगे चौथी पीढ़ी की अर्थात् पौत्र से आगे की पीढी की युव संज्ञा होगी। प्रपौत्र युवापत्य कहा जाएगा। गर्ग के जीवित रहने पर उनका प्रपौत्र गार्ग्यायणः कहलायेगा।

निष्कर्ष- अत इञ् से अन्तरापत्य में इञ् होता है। इस प्रकार अन्तरापत्य में गार्गिः, गोत्रापत्य में गार्ग्यः तथा गर्ग प्रपितामह के जीवित रहने पर उनके प्रपौत्र को युवापत्य में गार्ग्यायणः कहेंगें।


१०१७ अत इञ्
अपत्‍येऽर्थे । दाक्षिः ।।
ह्रस्व अवर्णान्त शब्द से  इञ् प्रत्यय होता है।

दक्षस्य अपत्यं पुमान् में दक्ष शब्द से इञ् प्रत्यय हुआ। दक्ष के आदि अकार की वृद्धि, अन्त्य अकार का लोप, परस्पर वर्ण संयोग, स्वादि की उत्पत्ति दाक्षिः रूप बना।

१०१८ बाह्‍वादिभ्‍यश्‍च
बाहविः । औडुलोमिः । 
बाहु आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में इञ् हो।

बाहोः अपत्यं पुमान् में बाहु शब्द से इञ् प्रत्यय हुआ। बाहु + इञ् में ञकार का अनुबन्ध लोप, आदि वृद्धि बाहु + इ हुआ। प्रश्न यह है कि बाहु में बा का आकार वृद्धि ही है पुनः वृद्धि करने की क्या आवश्यकता है? एक न्याय है पर्जन्यवल्लक्षण प्रवृत्तिः। वर्षा सूखे तथा जल से भरे दोनों स्थान पर होती है वैसे ही वृद्धि कार्य सभी स्थान पर होगा। बाहु + इ में उकार को ओर्गुणः से गुण ओकार हुआ । बाहो + इ में ओ को अवादेश बाहवि बना। स्वादि कार्य करने पर बाहविः रूप सिद्ध हुआ। इसीप्रकार उडूनि नक्षत्राणि इव लोमानि यस्य सः उडलोमा।   उडुलोम्नः अपत्यम् इस लौकिक विग्रह में उडुलोमन् से इञ् । अनुबन्ध लोप, नस्तद्धिते से उडुलोमन् के अन् भाग को लोप उडुलोम् + इ हुआ। आदि वृद्धि, स्वादि कार्य औडुलोमिः बना।

(लोम्‍नोऽपत्‍येषु बहुष्‍वकारो वक्तव्‍यः) । उडुलोमाः । आकृतिगणोऽयम् ।।

अपत्य अर्थ में बहुवचन में लोमन् शब्द से अ प्रत्यय हो।
उडुलोम्नः अपत्यम् इस विग्रह में बाह्वादिभ्यश्च से इञ् प्राप्त हुआ, उसे बाधकर प्रकृत सूत्र द्वारा अ प्रत्यय हुआ। टि लोप होकर उडुलोम बना, बहुवचन में स्वादि कार्य होकर उडुलोमाः रूप सिद्ध हुआ। 
१०१९ अनृष्‍यानन्‍तर्ये विदादिभ्‍योऽञ्
एभ्‍योऽञ् गोत्रे । ये त्‍वत्रानृषयस्‍तेभ्‍योऽपत्‍येऽन्‍यत्र तु गोत्रे । बिदस्‍य गोत्रं बैदः । बैदौ । बिदाः । पुत्रस्‍यापत्‍यं पौत्रः । पौत्रौ । पौत्राः । एवं दौहित्रादयः ।।
जो ऋषि नहीं हैं उनसे अपत्य अर्थ में तथा विदादि से गोत्र अर्थ में अञ् प्रत्यय हो।

वैदः। विदस्य गोत्रापत्यम् इस अलौकिक विग्रह में विद से अञ् प्रत्यय हुआ। ञकार का लोप, आदि वृद्धि तथा दकार के अकार का लोप, स्वादि कार्य होकर गोत्रापत्य में वैदः रूप बना। द्विवचन में वैदौ रूप होगा। बहुवचन में विदाः।  चुंकि विदाः में बहुत्व की विवक्षा में गोत्रापत्य में अञ् हुआ है अतः विद से अञ् प्रत्यय होकर वैद रूप बना।  यञञोश्च से बहुत्व की विवक्षा में हुए अञ् प्रत्यय का लोप हो जाएगा। अञ् के लोप होने से ञित्व के कारण हुआ वृद्धि कार्य भी वापस हो जाएगा। विद + जस् में सकार को रुत्वविसर्ग, विद के अकार तथा अस् के अकार के बीच सवर्ण दीर्घ होकर विदाः रूप बना। 
पुत्रस्‍यापत्‍यं पौत्रः। पुत्र शब्द ऋषि नहीं है अतः यहाँ अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होकर पौत्रः रूप बनेगा। ध्यातव्य है कि गोत्रापत्य के बहुवचन में अञ् प्रत्यय का लोप होता है । यहाँ अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होने के कारण उसका बहुवतन में लोप नही होगा। प्रथमा एकवचन में पौत्रः तथा बहुवचन में पौत्राः रूप बनेगा। इसी प्रकार दुहित्र के एकवचन में दौहित्रः तथा बहुवचन दौहित्राः रूप बनेगा। इसी प्रकार अपत्य अर्थ में होने वाले अन्य शब्दों को समझना चाहिए। 
१०२० शिवादिभ्‍योऽण्
अपत्‍ये । शैवः । गाङ्गः ।।

शैवः। शिवस्य अपत्यम् इस लौकिक विग्रह में शिव शब्द से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय हुआ। शिव + अण् में णकार का अनुबन्ध लोप, आदि वृद्धि तथा वकार के अकार का लोप, स्वादि कार्य होकर शैवः रूप बना। इसी प्रकार गाङ्गः बनेगा।
१०२१ ऋष्‍यन्‍धकवृष्‍णिकुरुभ्‍यश्‍च
ऋषिभ्‍यः - वासिष्‍ठः, वैश्वामित्रः । अन्‍धकेभ्‍यः – श्वाफल्‍कः । वृष्‍णिभ्‍यः – वासुदेवः । कुरुभ्‍यः – नाकुलः, साहदेवः ।।
अपत्य अर्थ में ऋषि, अन्धक, वृष्णि तथा कुरु से अण् हो।
ऋषि का उदाहरण – वाशिष्ठः। वसिष्ठस्य ऋषेः अपत्यम् विग्रह में वसिष्ठ शब्द से अण् प्रत्यय तथा पूर्ववत् आदि वृद्धि आदि का कार्य वासिष्ठः रूप बना। विश्वामित्रस्य ऋषेः अपत्यम् वैश्वामैत्रः। अन्धक का उदाहरण - श्वफल्क से श्वाफल्कः, विष्णि  का उदाहरण- वसुदेव से वासुदेव, कुरु का उदाहरण- नकुल से नाकुलः और सहदेव से साहदेवः दिया गया है।

अपत्याधिकार में दिये गये सभी पुल्लिंग के उदाहरण हैं। ञित्, णित् आदि के कारण होने वाले वृद्धि कार्य आप स्वयं करते चलें। 
१०२२ मातुरुत्‍संख्‍यासंभद्रपूर्वायाः
संख्‍यादिपूर्वस्‍य मातृशब्‍दस्‍योदादेशः स्‍यादण् प्रत्‍ययश्‍च । द्वैमातुरः । षाण्‍मातुरः । सांमातुरः । भाद्रमातुरः ।।

संख्या वाची शब्द, सम्  तथा भद्र से परे यदि मातृ शब्द हो तो मातृ शब्द को अपत्य अर्थ में उत् आदेश तथा अण् प्रत्यय हो। उत् आदेश रपर के साथ होता है।
द्वैमातुरः ।  द्वयोः मात्रयोः अपत्यं पुमान् इस विग्रह तथा द्वि  मातृ इस अलौकिक विग्रह में मातृ शब्द से पूर्व द्वि शब्द संख्यावाची शब्द है, अतः ऐसे मातृ शब्द से प्रकृत सूत्र से  अण् प्रत्यय तथा रपर के साथ उत् आदेश हुआ। द्विमात् + उत् र् + अण् हुआ। तकार का अनुबन्ध लोप, बृद्धि आदि होकर द्वैमातुरः बना।  
१०२३ स्‍त्रीभ्‍यो ढक्
स्‍त्रीप्रत्‍ययान्‍तेभ्‍यो ढक् । वैनतेयः ।।
स्त्री प्रत्ययान्त शब्दों से अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय हो।

वैनतेयः। प्रकृत सूत्र से अपत्य अर्थ में स्त्री प्रत्ययान्त  विनता से ढक् हुआ। ढक् में ककार की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है। विनता + ढ इस स्थिति में डक् के ककरा की इत्संज्ञा होने से किति च से कित् तद्धित ढ प्रत्यय परे रहने से विनता के अचों में से आदि अच् वि के इकार को वृद्धि ऐ हो जाता है। वैनता + ढ में आयनेय  सूत्र से ढकार (ढ्) के स्थान पर एय् आदेश हो जाता है। वैनता + एय् + अ में यस्येति च से विनता के अन्त्य आकार को लोप, परस्पर वर्ण संयोग होकर वैनतेय, कृत्तद्धित से प्रातिपदिक संज्ञा स्वादि कार्य वैनतेयः रूप बना।
१०२४ कन्‍यायाः कनीन च
चादण् । कानीनो व्‍यासः कर्णश्‍च ।।
अपत्य अर्थ में कन्या शब्द को कनीन आदेश और अण् प्रत्यय हो। सूत्र में तकार कथन अण् प्रत्यय के लिए है।

कन्यायाः अपत्यम् इस लौकिक विग्रह में कन्या शब्द को कनीन आदेश और अण् प्रत्यय हुआ। कन्या + अण् इस स्थिति में णकार का अनुबन्ध लोप, आदि वृद्धि, विभक्ति कार्य होकर कानीनः रूप बना। कानीन का उदाहरण व्यास और कर्ण है। दोनों अविवाहित स्त्री से उत्पन्न हैं।
१०२५ राजश्वशुराद्यत्

राजन् तथा श्वसुर शब्द से यत् प्रत्यय होता है। अपत्य अर्थ में।
(वा0) राज्ञो जातावेवेति वाच्‍यम् ।।

(वा0) राजन् शब्द से जाति अर्थ में ही यत् प्रत्यय होता है।
१०२६ ये चाभावकर्मणोः
यादौ तद्धिते परेऽन् प्रकृत्‍या स्‍यान्न तु भावकर्मणोः । राजन्‍यः । जातावेवेति किम् ? –
यकारादि तद्धित प्रत्यय परे रहते अन् को प्रकृतिभाव होता है, भाव और कर्म में यत् नहीं हो।

राजन्यः। राजन् शब्द से राजश्वशुराद् यत् से जाति अर्थ में यत् हुआ। तकार का अनुबन्ध लोप, नस्तद्धिते से राजन् के अन् भाग को टिलोप प्राप्त होने पर ये चाऽभाव से प्रकृतभाव हो गया। सु विभक्ति में राजन्यः रूप बना। इसी प्रकार श्वसुर से श्वशुर्यः बना। 
१०२७ अन्
अन् प्रकृत्‍या स्‍यादणि परे । राजनः । श्वशुर्यः ।।
अण् परे रहते अन् को प्रकृतिभाव हो।

राज्ञः अपत्यम् इस विग्रह में जाति भिन्न राजन् (किसी का नाम)  से उत्पन्न अर्थ में राजश्वशुराद् यत् स् प्राप्त यत् को राज्ञो जातावेव इति वाच्यम् वार्तिक से निषेध हुआ। अतः यहाँ यत् प्रत्यय न होकर तस्यापत्यम् से अण् प्रत्यय हुआ। राजन् + अण् में यचि भम् से भसंज्ञा, भसंज्ञक अंग की टि संज्ञा तथा नस्तद्धिते से टि लोप प्राप्त हुआ। इस सूत्र द्वारा  प्रकृतिभाव हो गया। राजानः रूप सिद्ध हुआ।
१०२८ क्षत्त्राद् घः
क्षत्त्रियः । जातावित्‍येव। क्षात्त्रिरन्‍यत्र ।।

क्षत्र शब्द से घ प्रत्यय होता है। यह घ प्रत्यय जाति अर्थ में ही होता है।
क्षत्रियः। जाति वाचक क्षत्र शब्द से अपत्य अर्थ में घ प्रत्यय हुआ। घ् को आयनेय से इय् आदेश क्षत्र + इय् + अ हुआ। परस्पर वर्ण संयोग, स्वादि कार्य क्षत्रियः रूप बना। जाति से भिन्न अर्थ वाले क्षत्र शब्द में अत इञ् से इञ् होकर क्षात्रिः रूप बनेगा। 
१०२९ रेवत्‍यादिभ्‍यष्‍ठक्
रेवती आदि शब्द से अपत्य अर्थ में ठक् प्रत्यय हो।
१०३० ठस्‍येकः
अङ्गात्‍परस्‍य ठस्‍येकादेशः स्‍यात् । रैवतिकः ।।


अंग से परे ठक् को इक् आदेश हो।
रेवती से अपत्य अर्थ में ठक् प्रत्यय, ककार का अनुबन्ध लोप, ठस्येकः से ठ को इक आदेश, रेवती + इक में कित्वात् आदि वृद्धि, यस्येति च से ईकार लोप, परस्पर वर्ण संयोग, स्वादि विभक्ति कार्य होकर रैवतिकः रूप बना।
१०३१ जनपदशब्‍दात्‍क्षत्त्रियादञ्
जनपदक्षत्त्रियवाचकाच्‍छब्‍दादञ् स्‍यादपत्‍ये । पाञ्चालः ।
(क्षत्त्रियसमान शब्‍दाज्‍जनपदात्तस्‍य राजन्‍यपत्‍यवत्) । पञ्चालानां राजा पाञ्चालः ।
(पूरोरण् वक्तव्‍यः) । पौरवः ।

(पाण्‍डोर्ड्यण्) । पाण्‍ड्यः ।।
१०३२ कुरुनादिभ्‍यो ण्‍यः
कौरव्‍यः । नैषध्‍यः ।।
१०३३ ते तद्राजाः
अञादयस्‍तद्राजसंज्ञाः स्‍युः ।।
१०३४ तद्राजस्‍य बहुषु तेनैवास्‍त्रियाम्
बहुष्‍वर्थेषु तद्राजस्‍य लुक् तदर्थकृते बहुत्‍वे न तु स्‍त्रियाम् । इक्ष्वाकवः । पञ्चालाः इत्‍यादि ।।
१०३५ कम्‍बोजाल्‍लुक्
अस्‍मात्तद्राजस्‍य लुक् । कम्‍बोजः । कम्‍बोजौ । 
(कम्‍बोजादिभ्‍य इति वक्तव्‍यम्) । चोलः । शकः । केरलः । यवनः ।।
इत्‍यपत्‍याधिकारः ।। २ ।।
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8 टिप्‍पणियां:

  1. भवान यत् करोति तत् अस्मभ्यं संस्कृत क्षेत्रे बहु लाभप्रदो भविष्यति इति अहं मन्ये !!

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  2. भवान यत् करोति तत् अस्मभ्यं संस्कृत क्षेत्रे बहु लाभप्रदो भविष्यति इति अहं मन्ये !!

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  3. नूनमेव उपकृताःः छात्राः।

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