उत्तराखंड की संस्कृत साहित्य परम्परा

      उत्तराखंड में ईसा की आठवीं शताब्दी के आस-पास से संस्कृत आचार्यों का उल्लेख मिलना शुरू होता है । इनमें पहला उल्लेख श्रीहरि का आता है । श्री हरि संस्कृताचार्य वासुदेव तथा आचार्य विज्ञानेश्वर के समकालीन चंद्रवंशीय राजाओं के मूल पुरूष सोमदेव (700-721 ई.) के साथ उत्तराखंड में आए थे तथा ये पाण्डेयास्पद ब्राह्मण थे। सत्रहवीं सदी में इन्हीं की वंश परंपरा में  संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्धान आचार्य विश्वेश्वर पाण्डेय हुए। श्रीहरि (हरिहर) पारस्करगृह्यसूत्र के टीकाकार थे। 
            श्रीहरि के बाद दूसरा उल्लेखनीय नाम आचार्य केदार का आता है। इन्होंने छंद विषयक ग्रंथ वृत्तरत्नाकरकी रचना की । इस काल में साहित्य रचना संस्कृत भाषा में ही हो रही थी, किंतु स्थानीय बोलचाल की कुमाऊँनी भाषा में मौखिक परंपरा  का प्रचुर लोक साहित्य सृजित होता रहा । चंद राजाओं के शासन काल में कुमाऊँनी, कुमाऊँ की प्रशासनिक भाषा थी। तत्कालीन अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों में संस्कृतनिष्ठ कुमाऊँनी के प्रयोग हुए हैं।चंद्रवशीय राजाओं के समय के अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों में संस्कृतनिष्ठ कुमाऊँनी के प्रयोग हुए हैं। चंद्रवशीय राजाओं ने साहित्य एवं साहित्यकारों को भी प्रोत्साहित किया। वे स्वंय भी साहित्य रचना करते थे। इस युग को कूर्मांचल (उत्तराखण्ड) के संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जा सकता है। इस युग में यहां अलंकारशास्त्र, होरा, सिद्धांत, फलित ज्योतिष जैसे विविध विषयों पर ग्रंथ लिखे गए। यहां के ज्योतिषियों की प्रतिष्ठा उत्तराखंड में ही नहीं, बल्कि यहां से बाहर पटियाला, दरभंगा, कपूरथला, रामपुर, संभल, जोधपुर आदि रियासतों तक भी थी। महाराजा रूद्रचन्द्र देव (1567-1597) ने स्वंय भी अनेक ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें  सैनिक शास्त्रउषा रागोदय, ‘त्रैवार्णिक धर्म निर्णयययाति चरितम्आदि उल्लेखनीय हैं। उनके साहित्य-प्रेम तथा विद्वत्प्रेम के कारण उस काल में कुमाऊँ में अनेक विद्वानों को प्रश्रय मिला और उत्कृष्ट रचनाएं हुई। सोलहवीं से अठारहवीं सदी के मध्य महाराजा रूद्र चन्द के अतिरिक्त पं. रूद्र चन्द, कल्याण चन्द, त्रिलोचन जोशी, प्रेमनिधि पंत, हरिदत्त जोशी, भगीरथ पाण्डे, शिवानंद पाण्डे, विक्रम चन्द आदि अनेक विद्वान हुए; जिन्होंने संस्कृत भाषा में विविध विषयों पर  ग्रंथों की रचना की थी।
   पं. रूद्र चन्द (1638) ने ज्योतिषचंद्रांर्कतथा रूद्र प्रदीपअनन्त देव ने प्रायश्चित दीपिकाकालनिर्णयबिंदुअग्निहोत्र प्रयोगतथा अग्रायण प्रयोग; पं. भगीरथ पाण्डे ने काव्यादर्श टीका; किरातार्जुनीयम् टीका, देवी माहात्म्य टीका, शिशुपालवध टीकातत्व दीपिका, मेघदूत टीका,  जैसे ग्रंथों की रचना की। इसी काल में पंं. लक्ष्मीपति द्वारा रचित अब्दुल्लाहचरितम्’’ तथा फर्रूखासियचरितम् जगच्चंद्रिका, शिवानन्द पाण्डेय विरचित कूर्मांचलकाव्यकल्याणचंद्रोदयआदि अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
            अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रेमनिधि पंत (1700-1760) एवं उत्तरार्द्ध में विश्वेश्वर पाण्डेय का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर विपुल ग्रंथों की रचना की। टीका, भाष्य तथा साहित्यशास्त्र के अतिरिक्त इन्होंने अन्य विषयों पर सैद्धांतिक ग्रंथों की रचना की। प्रेम निधि पंत की पत्नी प्राणमंजरी उस काल की विदुषी महिला थी। इन्होंने दो ग्रंथों की रचना की थी। उक्त समस्त विद्वानों का साहित्य यह सिद्ध करता है कि अठारहवीं शती तक कूर्मांचल में संस्कृत भाषा तथा साहित्य के पठन-पाठन-अध्ययन का अधिक प्रचलन था। साहित्य रचना के अतिरिक्त धर्म, ज्योतिष तथा अन्य विषयों के शास्त्रीय ग्रंथों की रचना में तत्कालीन संस्कृत विद्वानों की विशेष रूचि थी। इस प्रकार कूर्मांचलीय विद्वानों का ज्योतिष, टीका एवं नाटक में विशेष योगदान माना जाता है।
            अठारहवीं सदी के पश्चात् कुमाऊँ के साहित्यकार संस्कृत भाषा के साथ कुमाऊँनी तथा खड़ी बोली में भी रचनाएं करने लगे। यह आधुनिक काल का प्रथम चरण था और इसे कुमाऊँनी भाषा के लिखित साहित्य का भी प्रांरभिक चरण कहा जा सकता है। इस नये युग का प्रारंभ लोकरत्न पंत गुमानी (1790-1846) से होता है। इनकी सर्वाधिक रचनाएं संस्कृत भाषा में ही हैं। इनका संस्कृत, हिन्दी, कुमाउनी तथा नेपाली चारों भाषाओं पर समान अधिकार था। इन चारों भाषाओं के अतिरिक्त गढ़वाली में भी इनकी रचनाएं उपलब्ध होती हैं, दूसरी ओर कुमाउनी और नेपाली में लिखित साहित्य का सूत्रपात करने के कारण ये कुमाउनी-नेपाली के परिनिष्ठित साहित्य के जनक माने जाते हैं और खड़ी बोली हिंदी में कविता लिखने वाले प्रांरभिक कवियों में शामिल हैं। 
उत्तराखंड के संस्कृत साहित्यकारों को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है। 1. जिनका जन्म उत्तराखंड में हुआ तथा जिन्होंने अपनी साहित्यिक साधना उत्तराखंड में निवास करते हुए की है।  2. जिनका जन्म उत्तराखंड के बाहर हुआ परंतु उन्होंने उत्तराखंड में रहकर साहित्यिक साधना की। 3. जिनका जन्म उत्तराखंड में हुआ परंतु वे उत्तराखंड के बाहर रहकर साहित्य साधना की।
उन्नीसवीं शताब्दी से वर्तमान तक उत्तराखंड में 400 से अधिक साहित्यकार उत्पन्न हुए,उनमें से कुछ प्रमुख साहित्यकारों के नाम के साथ उनकी रचना का उल्लेख किया जा रहा है।

उर्वीदत्त गंगवाल 1810 -     एडवर्डवंशमहाकाव्यम्
पं. बालकृष्ण भट्ट 1901 -     कनकवंशमहाकाव्यम्
सुकृतिदत्त पंत -                 कार्तवीर्योदयम्
विशेश्वर पांडेय -                मंदारमंजरी
पंडित गोपाल दत्त पांडे
तारा दत्त पंत-                   सूर्यचरितमहाकाव्यम् 16 सर्ग
सदानन्द डबराल   1887  -  नरनारायणीयम्, रासविलासः
डॉ. अशोक कुमार डबराल - देवतात्मा हिमालय, धुक्षते हा धरित्री, चन्द्रसिंहस्य गर्जितम्, दायाद्यम्, प्रतिज्ञानम्
पद्म शास्त्री 1935 -           पद्य पञ्चतंत्रम्, वंग्लादेशविजयः, विश्वकथाशतकम्,
श्रीकृष्ण जोशी 1883 -        गंगामहिमकाव्यम्, रामरसायनम्, राममहिम्नस्तोत्रम्,
शिव प्रसाद भारद्वाज 1922  लौहपुरुषावदानम्
सुबोध चंद्र पंत –                झांसीश्वरी चरितम्
चंद्र बल्लभ जोशी-              होल्करवंशसप्तशती महाकाव्यम्
त्रिलोचन जोशी -                भक्तिप्रबंधमहाकाव्यम्
लक्ष्मीपति पांडेय -               फारुखेः चरितम्, अब्दुल्लाहचरितम्
कवि भवानंद  1740 -         बद्री स्तोत्रम्
लोकरत्न पंत गुमानी-           हितोपदेश शतकम्, रामाष्टपदी रामनामदिव्यचरितसारः, रामनाम पंचाशिका
हरिदत्त शूली -                   राघवपाण्डवीयम्,
तारानिधि पंत-                  वृत्तसारः
रामदत्त पंत-                      लेखनीकृपाणम्, दीपशतकम्
केदार पांडेय-                     वृत्तरत्नाकर
शिव कवि-                        कल्याणचन्द्रोदयम्
परमानन्द पाण्डेय-              गणराज्य चम्पू
नरहरि भट्ट शास्त्री-             तीर्थपद्धति, वद्रीनारायण माहात्म्यम्
भरत कवि-                       मानोदयकाव्यम्
मेधाकर बहुगुणा-                रामायणप्रदीपम्
उत्तराखंड में बाहर से आकर साहित्यिक रचना करने वाले विद्वानों के नाम तथा उनकी कृतियां

 डॉ. हरिनारायण दीक्षित  - भीष्मचरितम्, ग्वल्लभदेव चरितम्, भारत माता ब्रूते, मनुजाश्श्रृणुत गिरं मे। गोपालबन्धुः- गद्य साहित्य।
जीवनी एवं समस्त कृतियों का परिचय JPEG में संलग्न है। भीष्मचरितम्


भीष्मचरितम् में कुल 20 सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में मंगलाचरण के बाद भारतवर्ष का वर्णन, शान्तनु राज्य का वर्णन आदि से आरम्भ होता है। भीष्मचरितम् महाकाव्य गंगा पुत्र देवव्रत भीष्म के जीवन तथा व्यक्तित्व पर आधारित है। इसमें भीष्म के जन्म से लेकर महाप्रयाण तक की जीवनी को उपस्थापित किया है। महाकाव्य का मूल कथानक महाभारत से लिया गया है। भीष्म के बचपन का नाम देवव्रत था जो अपने पिता की प्रेरणा से परशुराम से धनुर्विद्या प्राप्त करते हैं। महाभारत के इस कथानक को कविवर दीक्षित ने प्रसाद गुण से ओतप्रोत का परंपरागत तथा संतुलित रुप दिया है। कवि ने अनेक स्थलों/ कथा प्रसंगों पर सुभाषित के द्वारा शिक्षा भी देते हैं। चतुर्थ सर्ग में देवव्रत  अपनी शिक्षा प्राप्त कर हर्ष के वातावरण का विस्तार करते हुए रहने लगे।  इसी क्रम में देखिये यह पद्य-
          मृदूनि पत्राणि भवन्ति यस्य वृद्धिं स वृक्षो नियतं प्रयाति।
          गुणास्तु सौन्दर्यसखा भवन्ति करोति रक्षां गुणिनां हि शक्तिः।।

भावार्थ- जिस वृक्ष के पत्ते कोमल होते हैं, वह अवश्य ही वृद्धि को प्राप्त होता है। गुण तो सुंदरता के साथी होते हैं और गुणवानों की रक्षा शक्ति करती ही है। 
इस महनीय कृति को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानलखनऊ से सन् 1991 में विशेष पुरस्कार तथा साहित्य अकादमीदिल्ली द्वारा वर्ष 1992 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
अधिक जानकारी के लिए पढ़ें- भीष्मचरितम् महाकाव्य एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानम्, लखनऊ से प्रकाशित संस्कृत साहित्य का बृहद इतिहास आधुनिक काव्य खंड पृष्ठ 102
















डॉ.निरंजन मिश्र   -    गंगापुत्रावदानम्, ग्रन्थिबन्धनम् ( महाकाव्य )
                           ग्रामशतकम्, प्रमत्तकाव्यम्, चमचाशतकम्,अरण्यरोदनम्, वन्दे भारतम् ।
  







डॉ.राम विनय सिंह       -         मुक्ताशती










डॉ.जनार्दन प्रसाद पांडेय मणि – निस्यन्दिनी, नीरजना

डॉ..रामसुमेर यादव           -    इंदिरासौरभम्
 डॉ. भोला झा


गंगापुत्रावदानम्

गंगापुत्रावदानम् महाकाव्य के लेखक डॉ. निरंजन मिश्र हैं। वर्तमान में आप श्री भगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, हरिद्वार में अध्यापन कर रहे हैं। वर्ष 2015 में कालिदास संस्कृत अकादमी, उज्जैन द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ कृति गंगापुत्रावदानम् महाकाव्य को कालिदास पुरस्कार प्रदान किया। पुस्तक का प्रथम सर्ग उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में लगा है। यह कृति वर्ष 2013 में मातृ सदन, हरिद्वार से प्रकाशित हुई। इसमें कुल 23 सर्ग हैं। काव्य के नायक संत निगमानंद स्वामी है।  हरिद्वार में गंगा के किनारे सक्रिय खनन माफिया के कुकृत्यों से गंगा नदी को बचाने के लिए उनके द्वारा किया गया संघर्ष तथा इसी संघर्ष में उनकी पूर्णाहुति काव्य की विषय वस्तु है। खनन माफिया के गुंडों का बड़े-बड़े नेताओं से संबंध स्वामी जी के प्रयासों पर पानी फेर देता है और 68 दिनों के अनशन के अनंतर उनका प्राणांत हो जाता है। यह वही निगमानंद स्वामी हैं, जिनके वर्ष 2011 में देहावसान होना समाचार पत्रों की सुर्खियां भी बनी थी। काव्य का आरंभ उत्तराखंड के प्राकृतिक वैभव वर्णन से शुरु होता है। प्राकृतिक सुषमा वर्णन के साथ लेखक राजनैतिक व्यंग्य को भी पिरोते हैं, जिससे काव्य का आस्वाद और भी बढ़ जाता है। द्वितीय सर्ग में हरिद्वार का वर्णन, तृतीय सर्ग में  संत निगमानंद के आश्रम मातृ सदन का वर्णन,चतुर्थ सर्ग से नायक का जन्म,अध्ययन और संघर्ष गाथा से होते हुए तेइसवें सर्ग में निर्वाण तक का वर्णन किया गया है।  कवि ने इस काव्य में स्वामी निगमानंद के बाल और यौवन, उनके प्रकृति प्रेम, मानव सेवा भावना तथा गंगा के प्रति आस्था का प्रभावी चित्रण किया है। युवावस्था में ही युग निगमानंद सन्यासी हो गए वह अपने मित्रों के आक्षेप का उत्तर देते हुए कहते हैं कि-
       सखे विरागो न वयः प्रतीक्षते जरातुराणामपि मन्मथक्रिया।
      कयाधुपुत्रस्य न दिव्यचिन्तनं देवर्षिणा किं सहसा समर्थितम्।।
डॉ. अशोक कुमार डबराल
  डॉ. अशोक कुमार डबराल का जन्म 14 अप्रैल 1945 को वैशाखी के दिन ग्राम-तिमली, पट्टी- डबरालस्यूँ ,जिला- पौड़ी गढ़वाल, उत्तरांचल में हुआ। इनके प्रपितामह पंडित दामोदर जी डबराल, पितामह सिद्ध कवि सदानंद जी डबराल तथा माता सत्यभामा देवी एवं पिता आचार्य विद्या दत्त डबराल थे। आप की प्रारंभिक शिक्षा बेसिक प्राइमरी स्कूल देवीखेत एवं श्री आदर्श संस्कृत पाठशाला तिमली में संपन्न हुई। पूर्व माध्यमिक शिक्षा भी आपने अपने घर पर ही श्री तिमली आदर्श संस्कृत पाठशाला, पौड़ी गढ़वाल से प्राप्त की। सन् 1956 में प्रथमा परीक्षा 1958 में पूर्व मध्यमा एवं सन् 1960 में उत्तर मध्यमा पूर्ण करने के बाद आप उच्च शिक्षा हेतु काशी चले गए। काशी जाकर आपने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में शास्त्री में प्रवेश ले लिया। यही गंगानाथ झा छात्रावास में रहते हुए सन् 1962 में साहित्य एवं अंग्रेजी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1966 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की विशारद परीक्षा, 1967 में यही से साहित्य रत्न परीक्षा भी उत्तीर्ण की। सन् 1968 में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. संस्कृत, सन् 1974 में मेरठ विश्वविद्यालय से एम. ए. हिंदी और सन् 1999 में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय. मेरठ से पीएच.डी की डिग्री प्राप्त की।

      सन् 1962 से 2001 तक परिश्रम पूर्वक अध्ययन अध्यापन के कार्य में संलग्न रह कर सेवानिवृत्ति से 4 वर्ष पूर्व ही स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हो कर पूर्ण रुप से साहित्य साधना में लग गए।


सदानन्द डबराल

सिद्धतांत्रिक दामोदर जी के पुत्र सिद्धकवि सदानन्द डबराल का जन्म सन् 1877 ई० में तिमली ग्राम (गढवाल, उ०प्र०) में हुआ था। कवि सन् 1950 ई० गोलोकवासी हुए। तिमली, उत्तरांचल में संस्कृत प्रसार के कारण, 'छोटी काशी' मानी जाती थी। कवि सदानन्द ने देव- प्रयाग में संस्कृत पाठशाला के संस्थापक प्राचार्य पद पर रहते हुए सर्वप्रथम 'कीर्तिविलासः' महाकाव्य की रचना की थी।

तदनन्तर सिद्धकवि ने उर्वशी - पुरूरवा के कथानक पर आधारित 'दिव्यचरितम्' महाकाव्य लिखा। संप्रति यह महाकाव्य भी उपलब्ध नहीं । कवि के ख्यातनामा पुत्र पं० वाणीविलास शास्त्री के अनुसार इस महाकाव्य में सत्रह सर्ग थे। सदानन्द जी का सर्वाधिक चर्चित उपलब्ध काव्य है- "नरनारायणीयम् । यह ग्रन्थ व्यंकटेश्वर मुद्रणालय मुम्बई से मुद्रित हुआ था। इस काव्य के शीर्षक पृष्ठ से कवि का संक्षिप्त परिचय भी स्वयं उनकी लेखनी से प्राप्त हो जाता है-

"गढ़वाल देशान्तः पाति-तिमली-ग्राम-निवासी-पण्डित दामोदर सूनु- देवप्रयागीय-श्रीरघुनाथ कीर्ति महाविद्यालय प्रधानाध्यापक श्रीगुरुपादारविन्दप्रसाद-सिद्धकवि-सदानन्दप्रणीत नरनारायणीयं काव्यम् ।"

नरनारायणीयं की संस्कृत व्याख्या कवि के पुत्र पं० वाणीविलास जी ने लिखी - "श्रीसदानन्द-सूनु-वाणीविलास-कृतया दिग्दर्शिनी समाख्यया व्याख्यया समलंकृतम् ।

नरनारायणीय काव्य की रचना 1974 विक्रमीय सम्वत् में देवप्रयाग नगर में हुई। ग्रन्थ की पुष्पिका में काव्य-प्रणयन वर्ष का पद्यमय विवरण है--

देवप्रयाग-नगरे टिहरी नरेशे

प्राणाय्य दोब्धि-मुनि-गोब्ज-मिते हि वर्षे ॥ नर. 09/57

नरनारायणीय काव्य में कवि भावानुसारी शब्दों के प्रति विशेष सजग रहे। निम्नांकित श्लोक में वेणु की ध्वनि का संगीतमय वर्णन दर्शनीय है--

 

वेगुना निजवनस्फुटश्रियं

कुञ्च-पुञ्जमनुरञ्जयञ्जनैः ॥ नर 09/7

नर और नारायण भीषण तपस्या तपने हिमालय पर्वत पर गये । गिरिराज हिमालय के वर्णन में कवि ने श्लेष के माध्यम से संस्कृत के काव्य सिद्धान्तों को भी मुद्रित करके एक मनोरम सांग दृश्य को उपस्थापित किया। वह हिमालय विचित्र ध्वनियों से मानों काव्य का रूप धारण कर रहा था -

रसश्च भावविविधैर्गुणैस्तै- मनोरमस्ताभिरलं क्रियाभिः ।

समानसानां हृदयंगमाभिः काव्यायमानान् ध्वनिभिर्विचित्रः ॥ नर० 2/20

इस ग्रन्थ के अतिरिक्त सिद्धकवि ने अनेक फुटकर पद्यों को भी रचना की। राजस्थान के कितने ही कवि अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिये उनसे प्रशस्तियां लिखवाया करते थे। श्रीहर्ष के नैषधीयचरित के प्रथम पांच सर्गो पर उन्होंने सरस सुन्दर टीका लिखी थी। यह टीका पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) के छात्रों में बहुत लोकप्रिय थी।

सिद्धकवि सावसर समस्यापूर्ति भी करते थे। एक दिन 'कर्मभूमि' साप्ताहिक के संस्कृतविद्वान् सम्पादक श्री भैरवदत्त जी ने उन्हें एक श्लोक की प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ पंक्तियां सुनाकर निवेदन किया कि- 'तृतीय पंक्ति' विलुप्त हो गयी है। आप तृतीय चरण से जोड़- कर छन्द पूरा कर दे !" सिद्धकवि ने तत्काल तृतीय पक्ति जोड़कर सम्पादक जी को चमत्कृत किया। सम्पादक जी के पास उपलब्ध पंक्तियों का भाव यह था कि पूजा करने वाली सास ने बहू से कहा कि 'जाओ, पूजन हेतु अक्षत ले आओ।' किन्तु, जब वधू वापिस आयी, तो हाथ में 'भात' ले आयी ऐसा क्यों ? सदानन्द जी ने समस्या का समाधान करते हुए पंक्ति जोड़ी कि बहू का पति परदेश गया था और वह वियोगिनी थी। लाने को तो वह अक्षत (चावल) ला रही थी, किन्तु मार्ग में जब उसके हाथ पर पति वियोग- जन्य खौलते हुए आंसू पडे, तो सास तक पहुंचते-पहुचते वह अक्षत, भात बन गया । नीचे उद्धरण में तृतीय पंक्ति सदानन्द जी की है

दूर्वाक्षताय शुभमक्षत मानयेति

श्वश्रू- मुखादशनि-कल्पमिवाकलय्य ।

(पत्युर्वियोग- दहनोष्णतराश्रु-सिद्धं )

भक्तं ददौ गुरुजनस्य करे मृगाक्षी ||

सम्पादक जी तीसरी पंक्ति के 'सिद्ध' शब्द पर सविशेष मुग्ध होकर कहते थे कि इस शब्द का यहां औचित्य है क्योंकि अक्षत भात सिद्ध हो गया, किन्तु इससे भी अधिक सार्थकता इस बात में है कि पके अन्न को भी 'सिद्ध अन्न कहते हैं। कालान्तर में एक दिन सम्पादक-प्रवर भैरवदत्त जो को और चमत्कृत करते हुए मैंने कहा कि 'सिद्ध होना' भात 'पकने' की क्रिया के अतिरिक्त यहां 'सिद्धम्' की ओर भी अर्थवत्ता है । कवि का नाम 'सिद्ध' था और चुपके से वे उस पंक्ति में अपना नाम भी अंकित कर गये ।"

सिद्धकवि अत्यन्त सरल प्रकृति के व्यक्ति थे, जैसे वे मन के सादे थे, वैसे वेष-भूषा में भी 'नरनारायणीयम्' में उन्होंने उचित ही लिखा- गुणो गरीयान् न पुनः सुवेषः । श्वेत श्मश्रू कूर्च से भी दूर ही से उनकी सात्विकता सत्यापित होती । गृहस्थ होकर भी मुनि थे -

निरुद्ध सर्वेन्द्रियवृत्तिमात्रो युवा गृहस्थोऽपि मुनिर्महात्मा ॥

रासविलास उनकी अन्तिम कृति है। शिक्षक और भागवत कथा वाचक सिद्धकवि की हृद्गता कृष्ण भक्ति ही इस काव्य की गोपियों की प्रियमिलन विह्वलता में रूपान्तरित हुई। इसलिए काव्य के श्रृंगार का आधार देवविषया रति है । वन्दना-परक अन्तिम कतिपय श्लोक इस तथ्य को सत्यापित करते हैं ।




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9 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तराखंड पर अभी तक इस प्रकार की समग्र जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं थी। आपने इसपर जानकारी देकर महत्तम कार्य किया है। संस्कृत साहित्य के वर्तमान लेखक डॉ. निरंजन मिश्र तथा अन्य लेखकों की नवीन कृतियों को समाहित करते हुए लेख को अद्यतन बनाये रखने का अनुरोध करती हूँ।

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  2. Sri ap ke dvara like lekha se hame bahut help melti h.please gadwal ke sanskrit sahityakar porushottam dobhal ke bare me gankri dige a

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  3. उत्तराखण्ड की नारियो के सम्बंधित कोई काव्य हो तो भेजने की कृपा कीजियेगा

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  4. जगदानंद झा जी आपने उत्तराखंड में रचित साहित्य की विस्तृत जानकारी दी है। आपको साधुवाद। मैं भारतीय नेपाली साहित्य में काम कर रही हूँ। मुझे प्रेमनिधि पंत के ग्रंथों की तलाश है। उन्होंने नेपाली भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनका विस्तृत परिचय यदि प्राप्त है तो कृपया मुझे gomaadhikaris@gmail.com पर भेजकर अनुगृहित करें। संदर्भ में आपका नाम रहेगा। आपकी बड़ी कृपा होगी।

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    1. प्रेमनिधि पन्त कूर्माचल से काशी आकर जीवन पर्यन्त यहीं रहे । इन्होंने 1813 में प्रायश्चित्त प्रदीप की रचना की। इस पुस्तक के बारे में आपको जानकारी होगी। इसके अतिरिक्त इन्होंने नैमित्तिक प्रयोग रत्नाकर, काम्यदीपदानपद्धति आदि की रचना की। तान्त्रिक ग्रन्थों में शिवताण्डव की टीका मल्लादर्श का नाम लिया जाता है । शारदातिलक तथा तन्त्रराज पर भी इन्होंने टीका लिखी थी । गोपीनाथ कविराज कृत काशी की सारस्वत साधना पुस्तक में इनकी जीवनी मिल सकती है। मैंने बलदेव उपाध्याय कृत काशी की पांडित्य परम्परा में खोजा परन्तु नहीं मिला। आप पुनः देख सकती है।

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  5. कविवर डॉ निरंजन मिश्र जी कि गंगापुत्राव्दानम महाकाव्य् मे प्रकृति,संघर्ष,पर्यावरण,गुरु शिष्य सम्बन्ध पर सूक्ष्म दृस्टि को देख कर मन आन्दोलित हुआ। आपकी लेखनी सदेव शोधार्थियों को प्रफलित करती रहेगी।
    सादर नमन आपको गुरूजी..🙏

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  6. bahut bahut dhantwad apka jo apne itnai achhi janakari uplabdh kara diya

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