यूनिकोड हिंदी फ़ॉन्ट के विशेष वर्ण टाइप करने की शिक्षा

हमलोग जैसे जेल पेन, वॉल पेन,नीब के पेन, पेंसिल, स्केच आदि कई माध्यम से कागज पर लिखते हैं वैसे ही अनेक तरह के कीबोर्ड के माध्यम से कम्प्यूटर पर देवनागरी लिपि में हिन्दी, संस्कृत,मराठी या अन्य भाषाओं को लिख सकते हैं। अन्तर वही है, जो एक कलम, पेंसिल या स्केच में है। आप इस भ्रम में मत आ जायें कि कम्प्यूटर के इस कीबोर्ड के आकार-प्रकार में कोई अंतर होता है। बल्कि इसे कम्प्यूटर में इन्सटाल किया जाता है। प्रचलित भाषा में इसे हिन्दी लेआउट कीबोर्ड कहते हैं। राज्य या केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों, निगमों और एजेंसियों के डाटा एन्ट्री आपरेटर/ आई.टी. आपरेटर/सहायक ग्रेड-3/ शीघ्र लेखन/स्टेनो टायपिस्ट तथा इसी प्रकार के अन्य पदों की परीक्षा में हमें कीबोर्ड चयन का विकल्प उपलब्ध कराया जाता है। इसमें रेमिंगटन टाइपराइटर हिन्दी कीबोर्ड, रेमिंगटन (गेल) लेआउट कीबोर्ड , इंस्क्रिप्ट लेआउट कीबोर्ड मुख्य है। टाइपिंग सिखाने वाले संस्थान भी इन्हीं कीबोर्ड पर टाइप करना सिखाते हैं।
       रेमिंगटन टाइपराइटर हिन्दी कीबोर्ड के माध्यम से कंप्‍यूटर पर हम कृतिदेव, अमर, चान्दनी आदि अनेक फान्ट के माध्यम से टाइप करते रहे हैं। ये फॉन्ट इन्टरनेट समर्थित नहीं हैं। अर्थात् जब हम कृतिदेव जैसे फॉन्ट को इन्टरनेट पर टाइप करते हैं तो इसके अक्षर में परिवर्तन हो जाता है। इस समस्या को दूर करने के लिए रेमिंगटन टाइपराइटर हिन्दी कीबोर्ड से मिलता जुलता एक लेआउट बनाया गया,जिसमें टाइप करने में अक्षरों के स्थान में अन्तर नहीं होता है। इसे रेमिंगटन (गेल) लेआउट कीबोर्ड कहते हैं। यह कीबोर्ड इन्टरनेट द्वारा समर्थित है। इसपर आप मंगल जैसे अनेक इन्टरनेट समर्थित फॉन्ट का प्रयोग करते हुए टाइप कर सकते हैं। यूनीकोड फॉन्ट में टाइप किया मैटर को किसी भी कम्प्यूटर या इंटरनेट से जुड़े फोन आदि संसाधन पर देखा जा सकता है। अर्थात् इसमें फॉन्ट की वैसी आवश्यकता नहीं होती जैसे कि कृतिदेव आदि की हो जाती है। इस कीबोर्ड को आप इंडिया टाइपिंग के वेबसाइट से डाउनलोड कर अपने कम्प्यूटर में इंस्टाल कर लें। यह सुनिश्चित कर लें कि आपके कम्प्यूटर में कौन सा विंडो इंस्टाल है और वह कितने विट का है। कम्प्यूटर में इंस्टाल हो जाने के बाद विंडो के टास्कबार के लैंग्वेज बार पर जाकर इंडिक इनपुट 2 का चयन कर लें। सेटिंग में जाकर इस कीबोर्ड का चयन कर लें। टाइप करके देख लें। अधिक जानकारी के लिए इंडिया टाइपिंग से सहायता लें।
   मेरा सुझाव है कि आप यदि टाइपिंग सीखने जा रहे हैं तो इंस्क्रिप्ट लेआउट कीबोर्ड पर अभ्यास करें। इसके लिए आपको अलग से कोई भी साफ्टवेयर डाउनलोड करने की आवश्कता नहीं है। रेमिंगटन टाइपराइटर हिन्दी कीबोर्ड या अन्य इस प्रकार के कीबोर्ड का उपयोग करना आसान नहीं है। इन्स्क्रिप्ट लेआउट को छोड़कर अन्य लेआउट उन लोगों के लिए थोड़ा सा आसान दिखता है,जो पहले से अंग्रेजी फॉन्ट या कृतिदेव पर टाइप करते रहे हैं। भारतीय भाषाओं में यूनीकोड में टाइपिंग के लिए सबसे अच्छा और अपने आप में पूर्ण लेआउट देवनागरी इन्स्क्रिप्ट है।
इन्स्क्रिप्ट लेआउट को 1986 में सीडैक द्वारा मानकीकृत किया गया। निश्चित नियम पर आधारित होने के कारण इसे याद करना भी आसान है। यदि किसी ने हिन्दी वर्णमाला का ठीक से अभ्यास किया है, वह इसे आसानी पूर्वक समझ सकता है। संस्कृत की जानकारी रखने वालों के लिए और भी आसान है।  मैं स्वयं देवनागरी इन्स्क्रिप्ट लेआउट पर टाइप करता हूँ। 
इंस्क्रिप्ट लेआउट कीबोर्ड और फॉन्ट के बारे में मैंने इसी ब्लॉग पर विस्तार पूर्वक लेख लिख दिया है। अपने कम्प्यूटर में इस कीबोर्ड को लगाने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया को करें-
1. Control panel में जायें।
2. यहाँ Region and Language पर क्लिक करें।
3. यहाँ keyboards and Language पर क्लिक करें।
4. change keyboards पर क्लिक करें।
5. Add पर क्लिक करें। क्लिक करते ही आपके सामने कई भाषाओं की लिपियाँ सामने है। इसमें से आप
6.  + Hindi (india) के + पर क्लिक करें।
7. +  keyboard के + पर क्लिक करें।
8. यहाँ Devanagari –INSCRIPT का चयन करें।
9. ok, Apply,ok बटन दबायें। विंडो के चास्कबार को देखें यहाँ आपको HI लिखा मिलेगा। अह आप देवनागरी में हिन्दी, संस्कृत आदि भाषा टाइप कर सकेंगें।
          इस लेख में हम इंस्क्रिप्ट लेआउट कीबोर्ड पर विशेष वर्ण या अक्षर टाइप करने की शिक्षा प्राप्त करेंगें। संस्कृत व्याकरण का पाठ लिखते समय मुझे विशेष आकृति के अंकन में असुविधा हुई, जिसके कारण मैंने यह लेख लिखने का निश्चय किया ताकि देवनागरी लिपि में लिखने वाले, विशेषकर संस्कृत के लोगों को असुविधा नहीं हो। पिछले पोस्ट में मैंने अब बहुत सारे यूनिकोड फॉन्ट से परिचय कराया था। इस पोस्ट में मैं आपको रेमिंग्टन गेल कीबोर्ड लेआउट से बनने वाले उन देवनागरी यूनीकोड (हिन्दी अक्षरों) की जानकारी दूँगा, जो अक्षर, कीबोर्ड पर उपलब्ध नहीं होते हैं। ऐसे अक्षरों को बनाने या टाइप करने के दो तरीके हैं। कुछ अक्षर 2 अक्षरों को मिलाकर बनाया जाता है। इसे संयुक्ताक्षर कहा जाता है। यूनिकोड फॉन्ट यह सुविधा देता है कि हम एक से अधिक अक्षरों को मिलाकर एक संयुक्त अक्षर बना सकते हैं। ये संयुक्ताक्षर व्यंजन वर्ण होते हैं। संस्कृत पढ़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि संयुक्त स्वर और संयुक्त व्यंजन वर्ण का निर्माण कैसे होता है। दूसरा विकल्प हमें आल्ट बटन और कोड (Alt + codeको जोड़कर बनाने की सुविधा देता है। ऐसे अक्षर जिसे जोड़ कर नहीं बनाया जा सकता है उसे हम आल्ट बटन के साथ कोई कोड संख्या दबाकर बनाते हैं। 
      आगे हम देखते हैं कि किस प्रकार संयुक्त वर्ण बनाए जाते हैं और किस प्रकार आल्ट बटन (Alt key) की सहायता से कुछ अक्षर बनाए जा सकते हैं। यूनिकोड फॉन्ट के अक्षर को बनाते समय हमें संस्कृत व्याकरण की सामान्य जानकारी होनी चाहिए। उसके अनुसार हम आसानी से समझ सकते हैं कि इन अक्षरों को कैसे बनाया जाता है। यह बिल्कुल ही आसान है।
हलंत के प्रयोग से संयुक्त अक्षर बनाना
      हम जब दो संयुक्त व्यंजन वर्णों या कभी कभी दो से भी अधिक संयुक्त व्यंजन वर्णों को एक साथ जोड़ते हैं तो एक संयुक्ताक्षर का निर्माण होता है। संस्कृत भाषा में अधिकाधिक संयुक्त वर्णों का प्रयोग होता है। यही सिद्धांत मंगल फॉन्ट या यूनिकोड फॉन्ट पर लागू होता है। इनमें से कुछ अक्षर इंस्क्रिप्ट और रेमिंग्टन गेल कीबोर्ड पर उपलब्ध भी हैं। जैसे -
क् + ष = क्ष,    त् + र  = त्र,    ज् + ञ = ज्ञ
इस प्रकार के संयुक्त अक्षरों की संख्या सीमित है।
कुछ ऐसे अक्षर जिन्हें हम हलंत वर्ण से अथवा अन्य तरीके से नहीं बना सकते, उसके लिए हम Alt बटन दबाकर एक कोड अंकित करते हैं, जिससे एक आकृति (सिंबल)  बनती है। हम इनमें से जिन आकृतियों का बार- बार प्रयोग करते हैं, उसका कोड दिया जा रहा है। टंकक इसे याद कर लें। उदाहरण के लिए Alt बटन दबाकर जब हम 0147 अंक दबाते हैं तो इससे घुमावदार इनवर्टेड कॉमा (“)बनता है। आप स्वयं करके देख लें।  नीचे आल्ट के साथ कोड दिया गया है। इससे बनने वाले सिंबल भी दिए गए हैं। इसकी सहायता से आप टाइपिंग स्पीड बढ़ा सकते हैं। आज अनेक यूनीकोड फॉण्ट प्रचलन में है। यूनीकोड फॉण्ट की बनावट यद्यपि एक ही होती है फिर भी मंगल और अन्य फान्ट के अक्षर कभी - कभी दिखने में अलग प्रतीत होता है। जैसे- द्वितीय और द्वितीय ।
इनमें से अवग्रह जैसे कुछ आकृतियों का ऑनलाइन टाइप करने पर सफलता नहीं मिलती। इसके लिए इन आकृतियों को वर्ड पर टाइप कर पुनः ऑनलाइन पेस्ट किया जा सकता है। संस्कृत में उदात्त, अनुदात्त तथा दण्ड लेखन में भी लिपियों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार के विशेष चिह्न अंकित करने के लिए सिंबलकोड दिये जा रहे हैं। इस सिंबल का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं हो सकता अतः क अक्षर के बाद सिंबल का प्रयोग किया गया है। विंडो 10 के साथ sanskrit text नामक फान्ट आया है। इस फान्ट की सहायता से वेद मंत्रों में प्रयुक्त होने वाले कुछ अतिरिक्त सिंवल को जोड़ा गया है। जैसे-  ᳬ ᳪ ᳫ ᳯ

Alt + code     आकृति


Alt + 033         !            Alt + 0145   ‘
Alt + 034                         Alt + 0146      ’
Alt + 042      *                  Alt + 0147      “
Alt + 043     +                 Alt + 0148      ”
                                       Alt + 0149        •
Alt + 044          ,             Alt + 0150        –
Alt + 045          -                Alt + 0185      ¹      
Alt + 046          .                Alt + 2365       
Alt + 047          /                    
Alt + 059          ;
Alt + 061          =
Alt + 063          ?
Alt + 02400        ॠ 
Alt + 2372         कॄ
Alt + 2384          
Alt + 2385       क॑    (उदात्त)
Alt + 2386       क॒    (अनुदात्त)
Alt + 2386       क।   (दण्ड)
Alt + 2386       क॥   (डबल दण्ड)
Alt + 2402          कॢ
Alt + 2403          कॣ


अक्षर का नाम
अक्षर
Win XP ALT Code
DEVANAGARI SIGN CANDRABINDU
कँ
ALT+2305
DEVANAGARI SIGN ANUSVARA
कं
ALT+2306
DEVANAGARI SIGN VISARGA
कः
ALT+2307
DEVANAGARI SIGN NUKTA
क़
ALT+2364
DEVANAGARI SIGN AVAGRAHA
कऽ
ALT+2365
DEVANAGARI VOWEL SIGN AA
का
ALT+2366
DEVANAGARI VOWEL SIGN I
कि
ALT+2367
DEVANAGARI VOWEL SIGN II
की
ALT+2368
DEVANAGARI VOWEL SIGN U
कु
ALT+2369
DEVANAGARI VOWEL SIGN UU
कू
ALT+2370
DEVANAGARI VOWEL SIGN VOCALIC R
कृ
ALT+2371
DEVANAGARI VOWEL SIGN VOCALIC RR
कॄ
ALT+2372
DEVANAGARI VOWEL SIGN VOCALIC L
कॢ
ALT+2402
DEVANAGARI VOWEL SIGN VOCALIC LL
कॣ
ALT+2403
DEVANAGARI VOWEL SIGN CANDRA E
कॅ
ALT+2373
DEVANAGARI VOWEL SIGN SHORT E
कॆ
ALT+2374
DEVANAGARI VOWEL SIGN E
के
ALT+2375
DEVANAGARI VOWEL SIGN AI
कै
ALT+2376
DEVANAGARI VOWEL SIGN CANDRA O
कॉ
ALT+2377
DEVANAGARI VOWEL SIGN SHORT O
कॊ
ALT+2378
DEVANAGARI VOWEL SIGN O
को
ALT+2379
DEVANAGARI VOWEL SIGN AU
कौ
ALT+2380
DEVANAGARI SIGN VIRAMA
क्
ALT+2381
DEVANAGARI STRESS SIGN UDATTA
क॑
ALT+2385
DEVANAGARI STRESS SIGN ANUDATTA
क॒
ALT+2386
DEVANAGARI GRAVE ACCENT
क॓
ALT+2387
DEVANAGARI ACUTE ACCENT
क॔
ALT+2388
DEVANAGARI DANDA
क।
ALT+2404
DEVANAGARI DOUBLE DANDA
क॥
ALT+2405
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वैदिक साहित्य का विशिष्ट अध्ययन (यूजीसी नेट 2019 के अनुसार)

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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,नई दिल्ली के द्वारा आयोजित नेट एवं जेआरएफ परीक्षा जून 2019 का नया पाठ्यक्रम जारी हुआ है। यह परीक्षा कम्प्यूटर के माध्यम से संपन्न कराई जायेगी। अभ्यर्थियों की सुविधा के लिए नया पाठ्यक्रम एवं सम्बन्धित पाठ्यसामग्री यहाँ दिया गया है। यहाँ  पेपर 1 तथा पेपर 2 का pdf उपलब्ध है।
NET/JRF परीक्षा में सम्मिलित होने वाले संस्कृत विषय कोड नं. 25 के परीक्षार्थी  लिंक पर क्लिक कर नये पाठ्यक्रम को प्राप्त करें।

सूर्य सूक्त              ऋग्वेदः - मण्डल 1 सूक्तं 115

इस ऋग्वेदीय ' सूर्य सूक्त ' ( 1 / 115 ) के ऋषि ' कुत्स आङ्गिरस ' हैं, देवता सूर्य हैं और छन्द त्रिष्टुप् है । इस सूक्त के देवता सूर्य संपूर्ण विश्वके प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं, जगत् की आत्मा हैं और प्राणि मात्र को सत्कर्मों में प्रेरित करने वाले देव हैं, देवमण्डलमें इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, क्योंकि ये जीव मात्र के लिये प्रत्यक्ष गोचर हैं । ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करनेवाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं, अतः समस्त प्राणिधारियों के लिये स्तवनीत हैं, वन्दनीय हैं ।     
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्र्च ॥ 1 ॥
प्रकाशमान रश्मियोंका समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्यमण्डलके रुपमें उदित हो रहे हैं । ये मित्र, वरुण, अग्नि और संपूर्ण विश्वके प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं । इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्षको अपने देदीप्यमान तेजसे सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है । इस मण्डलमें जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होनेके कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं  तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टिकी आत्मा हैं ।
सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्र्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ 2 ॥
सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषा देवीके पीछे पीछे चलते है, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग सुन्दरी युवती का अनुगमन करे । जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाशके देवता सूर्यकी आराधना करनेके लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य कर्मका सम्पादन करते हैं । सूर्य कल्याणरुप हैं और उनकी आराधनासे कर्तव्य कर्मके पालनसे कल्याणकी प्राप्ति होती हैं ।
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ 3 ॥
३) सूर्यका यह रश्मि मण्डल अश्व के समान उन्हें सर्वत्र पहुँचाने वाला चित्र विचित्र एवं कल्याणरुप है । यह प्रतिदिन तथा अपने पथपर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है । यह सबको नमनकी प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोकके ऊपर निवास करता है । यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वीका परिमन्त्रण कर लेता है ।
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ 4 ॥
सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्यका यह ईश्र्वरत्व और महत्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किंतु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्मको ज्यों का त्यों छोडकर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणोंको इस लोकसे अपने आपमें समेट लेते हैं । साथ ही उसी समय अपने किरणों और घोडोंको एक स्थानसे खींचकर दूसरे स्थानपर नियुक्त कर देते हैं । उसी समय रात्रि अन्धकारके आवरणसे सबको आवृत्त कर देती है ।
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ 5 ॥
प्रेरक सूर्य प्रातःकाल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टिको सामनेसे प्रकाशित करनेके लिये प्राचीके आकाशीय क्षितिजमें अपना प्रकाशक रुप प्रकट करते हैं ।
इनकी रसभोजी रश्मियॉं अथवा हरे घोडे बलशाली रात्रिकालीन अन्धकारके निवारणमें समर्थ विलक्षण तेज धारण अन्धकारकी सृष्टि होती है ।
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ 6 ॥
हे प्रकाशमान सूर्य रश्मियो आज सूर्योदयके समय इधर उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापोंसे निकालकर बचा लो । न केवल पापसे ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख दारिद्र्य है, सबसे हमारी रक्षा करो । जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोकके अधिष्ठातृ देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें ।

अक्ष सूक्त -                ऋग्वेदः - मण्डल 10 सूक्तं 34

 ऋग्वेद संहिता में जहाँ एक ओर देवताओं की स्तुति करते हुए उनसे अभीष्ट की प्राप्ति केलिए याचनायें की गई हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक कुरीतियों एवं मानवीय दुर्व्यसनों को दूर करने से सम्बन्धित सूक्तों का संकलन भी किया गया है। समाज में जब भोग विलास और षक्ति का उदय होता है, तब द्यूतकर्म भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। ऋग्वैदिक युग में जुआ खेलना एक बहुत प्रचलित सामाजिक दुर्व्यसन था। ऋग्वेद के दषम मण्डल का 34वाँ सूक्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डालता है।
अक्षों की संख्या एवं खेलने का स्थान-ऋग्वेद में अक्षों की संख्या के लिये त्रियचांषःशब्द प्रयुक्त है।
विद्वानों ने इस शब्द के अनेक अर्थ किये है। जैसे पन्द्रह, तिरपन एवं एक सौ पच्चीस। परवर्ती संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में पांसा फेंकने से सम्बन्धित व्याह्तियों की तालिकायें प्राप्त हेाती है। पांसा फेकने के लिए भूमि पर ही एक नीचा सा स्थान बना लिया जाता था। दाँव पर रखी हुई वस्तु विजकहलाती थी। अक्षों का स्वरूप एवं प्रभाव-अक्षों को द्यूतकार देवता मानता है। उसके हृदय में अक्षों केप्रति श्रद्धा है जो शिल्पकार को अपने उपकरणों में, लेखक को अपनी लेखनी में तथा वणिक् को अपनी तुला में होती है। अक्ष किसी वृक्ष के फलों के बीज रूपी विग्रह वाले होते है। इनका रंग भूरा होता है। अक्षों को किसी पात्र-विशेष में डालकर भली-भांति हिलाकर द्यूतपटल पर फेंका जाता है। द्यूतपटल पर फुदकते हुए वे अक्ष बड़े ही मनोहारी दिखलाई पड़ते है। अक्षों को दिव्य अंगारस्वरूप एवं महाषक्तिषाली कहा गया है। अक्ष द्यूतकार को उसी प्रकार आनन्दित करते हैं जैसे सोमरस देवताओं को। अक्ष द्यूतकार को जगाने का कार्य भी करते हैं। द्यूतकार चिन्ता के वषीभूत होकर रात भर जागता रहता है। अक्षों के अन्दर एक प्रकार की मोहिनी शक्ति होती है। द्यूतकार इसी मोहिनी शक्ति के वष में रहता है। द्यूतकार अनेक बार द्यूतकार्य से विमुख होने का निष्चय करके भी ज्यों ही द्यूतपटल पर पासों को फुदकते हुए देखता है तो ही अपने आपको भूल जाता है। अक्षगण कभी भी उग्र से व्यक्ति के समक्ष भी पराजय को नहीं स्वीकारते। अक्षों की ध्वनि को द्यूतपटल पर सुनकर जुआरी उसी प्रकार द्यूतस्थल की और दौड़ पड़ता है जेसे कुलटा स्त्री संकेत-स्थल की ओर दौड़ पड़ती है। अक्षों की विलक्षणता-द्यूतपटल पर पड़े हुए भी अक्ष द्यूतकार के मर्मस्थल को भेदने वाले होते हैं। स्वयं हस्तविहीन होकर भी सहस्त्र को पराभूत करते रहते हैं। षीतल स्पर्ष वाले होकर भी द्यूतकार के हृदय को जलाते रहते हैं। स्वरूप और काष्ठवत् होते हुए भी अक्ष किसी द्यूतकार को क्षणमात्र के लिए बसा देते हैं तथा किसी को उजाड़ देते हैं। विजेता द्यूतकार के लिए वे प्रसन्नतादायक तथा पराजित के लिए दुःखप्रद भी होते हैं।
द्यूतक्रीड़ा का कुपरिणाम-द्यूतकार को समाज निकृष्ट कोटि का व्यक्ति समझने लगता है। द्यूतकार की पत्नी, सास तथा अन्य शुभाकाँक्षी व्यक्ति उससे द्वेष करते है। द्यूतकार के प्रति कोई भी व्यक्ति दया-भाव नहीं दिखलाता। द्यूतकार एक बूढे़ किन्तु मूल्यवान् अश्व की भाँति किसी के लिए प्रिय नहीं रह पाता। द्यूतकार अनुकूल आचरण वाली अपनी पतिपरायणा पत्नी तक को दाँव पर हार जाता है। दूसरों की पत्नियों को देखकर तथा सुसंस्कृत अन्य गृहों को देखकर वह मानसिक क्लेश पाता है। द्यूतकार्य का सबसे कठिन दुष्परिणाम तो यह होता है कि उसकी प्राणप्रिया पत्नी को दूसरे लोग आलिंगित करते है। जब दाँव हार कर द्यूतकार विजेता द्यूतकार को दाँव पर रक्खी हुई सम्पत्ति नहीं चुका पाता तो राजा के कर्मचारी उसे रज्जुबद्ध करके ले जाते है। उस समय उसके मित्र, पिता, माता, भाई उसको देखना पसन्द नहीं करते तथा यह भी कह डालते हैं कि हम लोग बंधे हुए उसको नहीं जानते। अमर संदेश-अक्षसूक्त के अधिकांश भाग में द्यूतकार्य के दुष्परिणामों को बतलाकर वैदिक ऋषि एक अमर
सन्देश प्रदान करता है, कि अक्षों से कभी भी मत खेलो, खेती करो। कृषि द्वारा प्राप्त धन को ही आदर-भाव से अपना समझो तथा उसमें ही आनन्द का अनुभव करो। कृषि कार्य में ही गायें हैं, पालतू पशु तथा सम्पूर्ण समृद्धि है। हे अक्षौ! हमसे मित्रता करो। अपनी षक्ति का प्रयोग हम पर मत करो तथा सदैव हमारी सहायता करो।

प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः ।
सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान् ॥1॥
न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत् ।
अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम् ॥2॥
द्वेष्टि श्वश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितारम् ।
अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम् ॥3॥
अन्ये जायां परि मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्यक्षः ।
पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बद्धमेतम् ॥4॥
यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्योऽव हीये सखिभ्यः ।
न्युप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रतँ एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव ॥5॥
सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वा शूशुजानः ।
अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीव्ने दधत आ कृतानि ॥6॥
अक्षास इदङ्कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णवः ।
कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ताः कितवस्य बर्हणा ॥7॥
त्रिपञ्चाशः क्रीळति व्रात एषां देव इव सविता सत्यधर्मा ।
उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत्कृणोति ॥8॥
नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते ।
दिव्या अङ्गारा इरिणे न्युप्ताः शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति ॥9॥
जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित् ।
ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति ॥10॥
स्त्रियं दृष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायां सुकृतं च योनिम् ।
पूर्वाह्णे अश्वान्युयुजे हि बभ्रून्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद ॥11॥
यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो बभूव ।
तस्मै कृणोमि न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि ॥12॥
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः ।
तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः ॥13॥
मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो मा नो घोरेण चरताभि धृष्णु ।
नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु ॥14॥

ज्ञानसूक्त- (10/71)

ऋषि:  - बृहस्पतिः, अंगिरा
देवता  - ज्ञानम्
छन्द - त्रिष्टुप्, जगती
स्वर  - धैवत
ज्ञानसूक्त सूक्त, ब्रह्मज्ञान सूक्त अथवा भाषा सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इस सूक्त के ऋषि आंगिरा के पुत्र बृहस्पति  और देवता ज्ञान हैं। इस सूक्त में कुल 11 मंत्र हैं, जिनमें से नवम मन्त्र को छोड़कर शेष दस मन्त्र त्रिष्टुप् छन्द में हैं, नवम मन्त्र का छन्द जगती है। सायण के अनुसार इस सूक्त में ऋषि ने परम पुरूषार्थ साधन पर ब्रह्मज्ञान की स्तुति की है। बृहद्देवता में कहा भी गया है- सुज्योतिः परमं ब्रह्म यद्योगात्समुपाश्नुते। तज्ज्ञानमभितुष्टाव सूक्तेनाथ बृहस्पतिः' (बृहद्देवता ७.१०९) इति ।
इस सूक्त का प्रतिपाद्य विषय है- वागार्थ  प्रतिपत्ति या शब्दार्थ  ज्ञान।
शब्दार्थ  ज्ञान के दो आधार हैं- 1. शब्द प्रयोग , 2. अर्थ ग्रहण। यह सूक्त दोनों आधारों का स्पर्श करता है। प्रस्तुत सूक्त में ग्यारह मन्त्रों  में आठ वार प्रयुक्त वाकशब्द उस वाणी की ओर संकेत करता है, जिसमें सत्यज्ञान स्वरूप बिन्दुओं के साथ ही शिव एव ं सुन्दर की अधीश्वरी मुद्रा लध्मी का निवास है। बृहस्पति को  वाणी का स्वामी माना गया है। शतपथ-ब्राह्मण में कहा गया है कि- वाक् ही बृहती है। उसके स्वामी हो ने के कारण ही वह बृहस्पति हैं। ऋषि पविष्टा वाक्  देवी हैं और  उसी के अधिपति बृहस्पति हैं। ब्रह्म को  ही बृहस्पति कहा गया है और वाक्  को  ही ब्रह्मरूप भी कहा गया है।
बृह् धातु से निष्पन्न ब्रह्म और  वृहतीशब्द है, जिसका शब्दार्थ  है- विस्तार पाना, फैलना। अतः बृहस्पतिउस बृहद् दृष्टि के स्वामी हैं, जिससे भेद -भाव लुप्त हो  जाता है। व्यष्टिभाव का समष्टि भाव के साथ तादाम्य हृदय की सहज अनुभूति एवं एकता विधायक भावना की स्थिति ही वृहद्स्थिति है और  ऋषि के वृहदृ अनुभव रूप अर्थ एवं तद्ग्राहक शब्द के पति हैं- बृहस्पति। ऋग्वेद संहिता के षष्ठ मण्डल में एक स्थान पर कहा गया है कि- दिव्य आंगिरस् बृहस्पति अज्ञान के पहाड़ को  तोड़कर अर्थ सम्पत्ति को  जीतते  हैं और  प्रवाहित कर देते हैं, उस वाणी की गतियों को ।

बृह॑स्पते प्रथ॒मं वा॒चो अग्रं॒ यत्प्रैर॑त नाम॒धेयं॒ दधा॑नाः ।
यदे॑षां॒ श्रेष्ठं॒ यद॑रि॒प्रमासी॑त्प्रे॒णा तदे॑षां॒ निहि॑तं॒ गुहा॒विः ॥ 1 ॥ ।। ऋग्वेद 10/71/1
बृह॑स्पते । प्र॒थ॒मम् । वा॒चः । अग्र॑म् । यत् । प्र । ऐर॑त । ना॒म॒ऽधेय॑म् । दधा॑नाः । यत् । ए॒षा॒म् । श्रेष्ठ॑म् । यत् । अ॒रि॒प्रम् । आसी॑त् । प्रे॒णा । तत् । ए॒षा॒म् । निऽहि॑तम् । गुहा॑ । आ॒विः ॥
(बृहस्पते) वेदवाचः स्वामिन् ! परमात्मन् ! (वाचः-अग्रं प्रथमं नामधेयं यत्-दधानाः-ऐरत) वाण्याः-श्रेष्ठरूपं प्रथमं सृष्टेरारम्भे पदार्थजातस्य नामव्यवहारप्रदर्शकं वेदं धारयन्तः परमर्षयः प्रेरयन्ति प्रज्ञापयन्ति (यत्) यतः (एषाम्) परमर्षीणां (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठं कार्यं (अरिप्रम्-आसीत्) पापरहितं निष्पापम् रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः” [निरु० ४।२१] आसीत् (प्रेणा-एषां गुहा-निहितम्) तव-प्रेरणया, एषां परमर्षीणां गुहायां हृदये स्थितं (आविः) तदाविर्भवति प्रकटीभवति ॥१॥
शब्दार्थ -
(बृहस्पते) हे वेदवाणी के स्वामी परमात्मन् ! (वाचः-अग्रं प्रथमम्) वाणी के श्रेष्ठरूप सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले (नामधेयं यत्-दधानाः प्रैरत) पदार्थमात्र के नामव्यवहार के प्रदर्शक वेद को धारण करते हुए परमर्षि प्रेरित करते हैं, जनाते हैं (यत्) यतः (एषाम्) इन परम ऋषियों का (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठ कार्य (अरिप्रम्-आसीत्) पापरहित-निष्पाप है (प्रेणा-एषां गुहा निहितम्) तेरी प्रेरणा से इन परमर्षियों के हृदय में प्रकट होता है ॥१॥
भावार्थ -वेद का स्वामी परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों के पवित्र अन्तःकरण में वेद का प्रकाश करता है, जो पदार्थमात्र के गुण स्वरूप को बताता है, उसे वे ऋषि दूसरों को जनाते हैं ॥१॥
इस सूक्त में वेदों का प्रकाश तथा प्रचार करना, उसके अर्थज्ञान से लौकिक इष्टसिद्धि, अध्यात्म सुखलाभ, सब ज्ञानों से महत्ता, आदि विषय हैं।
सक्तु॑मिव॒ तित॑उना पु॒नन्तो॒ यत्र॒ धीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मक्र॑त ।
अत्रा॒ सखा॑यः स॒ख्यानि॑ जानते भ॒द्रैषां॑ ल॒क्ष्मीर्नि॑हि॒ताधि॑ वा॒चि ॥2।।
सक्तु॑म्ऽइव । तित॑उना । पु॒नन्तः॑ । यत्र॑ । धीराः॑ । मन॑सा । वाच॑म् । अक्र॑त । अत्र॑ । सखा॑यः । स॒ख्यानि॑ । जानते । भ॒द्रा । ए॒षा॒म् । ल॒क्ष्मीः । निऽहि॑ता । अधि॑ । वा॒चि ॥
धीर पुरुष वाणी को चलनी में छने हुए सत्तू के समान  उनकी वाणी में उनका सख्य भाव ज्ञात होता है । उनकी वाणी में लक्ष्मी (पवित्र गुण) प्रतिष्ठित होती है।
जैसे विद्वान् चलनी से सत्तू को  स्वच्छ कर लेते हैं, वैसे ही बुद्धिमान श्रेष्ठ पुरूष मन: पवित्र कर शब्द को उच्चारित करते हैं।  उनकी वाणी में कल्याण कारक मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है।
भावार्थ- मन के द्वारा शब्दचयन की प्रक्रिया चलती है, वह प्रज्ञान संज्ञक मन तो अपने में सब कुछ समेट लेता है। प्रतीक एवं बिम्ब की सृष्टि के मूल में मन का ही अनिर्वचनीय ब्यापार है, जिससे छनकर आनन्द एवं सौन्दर्य एक साथ रूपायित हो  उठते हैं। ज्ञान का तारतम्य ही सौन्दर्यबोध का तारतम्य है। मानसी कल्पना के सौन्दर्यबोध एवं आनन्द परिकल्पना के देव प्रयोग  की सम्भावना हुई है- मुद्रा लक्ष्मी में। दूसरे शब्दों में  शब्द एवं अर्थ के सख्य’ (सहभाव) अथवा अनन्य सम्बन्ध की पहचान ही वास्तविक ज्ञान’ (सम्यक ज्ञान) है।
य॒ज्ञेन॑ वा॒चः प॑द॒वीय॑माय॒न् तामन्व॑विन्द॒न्नृषि॑षु॒ प्रवि॑ष्टाम् ।
तामा॒भृत्या॒ व्य॑दधुः पुरु॒त्रा तां स॒प्त रे॒भा अ॒भि सं न॑वन्ते ॥ 3 ॥
य॒ज्ञेन॑ । वा॒चः । प॒द॒ऽवीय॑म् । आ॒य॒न् । ताम् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒न् । ऋषि॑षु । प्रऽवि॑ष्टाम् ।
ताम् । आ॒ऽभृत्य॑ । वि । अ॒द॒धुः॒ । पु॒रु॒ऽत्रा । ताम् । स॒प्त । रे॒भाः । अ॒भि । सम् । न॒व॒न्ते॒ ॥
बुद्धिमानों  ने यज्ञ द्वारा वाणी के मार्ग को  प्राप्त किया, उन्होंने ऋषियों  के अन्तःकरण में स्थित वाणी को  पाया तदनन्तर उस वाणी को सभी देशों में  अभिव्यक्त किया। सात शब्द करने वाले पक्षी, अर्थात् गायत्री आदि छन्द एक साथ चोरों तरफ से उसकी स्तुति करते हैं।
भावार्थ- यज्ञ वैदिक दर्शन का महत्वपूर्ण मूलभूत विचारबिम्ब है, जो सर्वविध सर्जना की अपरिहार्य पूर्व स्थित हैं। इसी वाणी के योग से गायत्री आदि सात छन्द स्तुति करने में समर्थ हुए।
इसमें तीन तत्व छिपे हुए हैं- एक है ज्ञान साधना जो परम् सत्य के दर्शन तक ले जाय, दूसरा है संगति करण और  तीसरा है सीमित ‘‘स्व’’ की बृहद्में समाहिति। इन तीनों की स्थिति से ही सर्जनात्मक संव ेदनशीलता की अनुभूति होती है, जिससे काव्य की धारा प्रवाहित होती है। ऋषि-दृष्टि, सामाजिक-दृष्टि है और  ऋषि कवि की भाव भूमि तक पहुँची हुई वाणी की प्रस्तुति हुई है। ऐसी वाणी उस सुर को  भी बजाती है, जो कान से नहीं सुना जाता अपितु हृदय से ग्रहण किया जाता है। वेद मन्त्र में कहा गया है कि- वह साथ अथवा संसरण शील स्वर कवि दृष्टि केन्द्रित वाणी के साथ-साथ ही प्रवाहित हो ते हैं। भारतीय काव्यतत्व चिन्तन में काव्यरसों के साथ संगीत के विशेष स्वरों के सम्बन्ध को भी बताया है।
उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम् ।
उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१ विस॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ 4 ॥
उ॒त । त्वः॒ । पश्य॑न् । न । द॒द॒र्श॒ । वाच॑म् । उ॒त । त्वः॒ । शृ॒ण्वन् । न । शृ॒णो॒ति॒ । ए॒ना॒म् । उ॒तो इति॑ । त्व॒स्मै॒ । त॒न्व॑म् । वि । स॒स्रे॒ । जा॒याऽइ॑व । प॒त्ये । उ॒श॒ती॒ । सु॒ऽवासाः॑ ॥
एक वाणी को देखता हुआ भी अज्ञानता के कारण नहीं देखता, एक इस वाणी सुनता हुआ भी अर्थ को  न समझ सकता, वह वाणी किसी के पास अपने ज्ञानरूप को  स्वयं इस प्रकार व्यक्त करती है जैसे सुन्दर वस्त्र वाली पत्नी अपना रमणीय  शरीर अपने पति को  समर्पित करती है।
भावार्थ-  प्रस्तुत मन्त्र में यह तथ्य उपस्थ्ति हो ता है कि एक तो वह है जो वाणी के विषय में नितान्त गूढ़ है और  दूसरा निर्मल अन्तःकरण से युक्त सहृदय है, जो अनायास वाणी के अर्थ एवं सौन्दर्य को  प्राप्त करता है, वाणी स्वयं हीं जिसका वरण कर लेती है। ऐसे सहृदय को  आस्वादक कहा जाता है और वाणी की चारूता को । उसमें स्वाभाविक प्रतिभा होती है।
यह सूक्त 4-11 मन्त्र के साथ सम्बद्ध है, जिस में वाणी के स्वरूप को  पहचानने तथा उसके अर्थ को समझने की बात कही गयी है।
उ॒त त्वं॑ स॒ख्ये स्थि॒रपी॑तमाहु॒र्नैनं॑ हिन्व॒न्त्यपि॒ वाजि॑नेषु ।
अधे॑न्वा चरति मा॒ययै॒ष वाचं॑ शूश्रु॒वाँ अ॑फ॒लाम॑पु॒ष्पाम् ॥ 5 ॥
उ॒त । त्व॒म् । स॒ख्ये । स्थि॒रऽपी॑तम् । आ॒हुः॒ । न । ए॒न॒म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अपि॑ । वाजि॑नेषु । अधे॑न्वा । च॒र॒ति॒ । मा॒यया॑ । ए॒षः । वाच॑म् । शु॒श्रु॒ऽवान् । अ॒फ॒लाम् । अ॒पु॒ष्पाम् ॥
एक को विद्वानों की सभा में अर्थ का पूर्ण ज्ञानी कहते हैं। कोई-कोई वाक्य का अभ्यास करते हैं, ऐसा ब्यक्ति वन्ध्या गौ के समान छलपूर्वक वाणी के सहित विचरता है। अर्थात् वे वास्तविक धेनु नहीं माया मात्र धेनु हैं।
भावार्थ-  यह सह संवेदात्मक ज्ञान में सुप्रतिष्ठित है, जिसकी वाणी के सारभूत अर्थग्रहण की अपेक्षा नहीं की जा सकती और  एक है जो वाणी की माया अनर्थ क वाह्यरूप को  रूप लेकर घूमता है, जिस वाणी को वह सुनता है, उस वाणी में न अर्थ है और  न सौन्दर्य। ।
यस्ति॒त्याज॑ सचि॒विदं॒ सखा॑यं॒ न तस्य॑ वा॒च्यपि॑ भा॒गो अ॑स्ति ।
यदीं॑ शृ॒णॊत्यल॑कं शृणोति न॒हि प्र॒वेद॑ सुकृ॒तस्य॒ पन्था॑म् ॥ 6 ॥
यः । ति॒त्याज॑ । स॒चि॒ऽविद॑म् । सखा॑यम् । न । तस्य॑ । वा॒चि । अपि॑ । भा॒गः । अ॒स्ति॒ । यत् । ई॒म् । शृ॒णोति॑ । अल॑कम् । शृ॒णोति॑ । न॒हि । प्र॒ऽवेद॑ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । पन्था॑म् ॥
जो विद्वान उपकारी, वेदों के अधिष्ठाता, वेत्ता, परम्-मित्र को  त्याग देता है, उसकी भी वाणी में को ई फल नहीं
है। वह जो कुछ सुनता है, व्यर्थ  ही सुनता है, न ही वह सुकृत् कर्म  को  भी ठीक से जानता है।
भावार्थ-  कवि के संवेगात्मक आवेग को  समझना और  उसमें भाग लेना ही वाणी में भाग लेना है। सह्यदय की आशंसा का अर्थ है कवि की वाणी के अन्तर्निहित भाव की साझेदारी करना, कवि तथा सहृदय के बीच विश्वास की एक मजबूत कड़ी रहती है। यह वाणी में भाग है।
अ॒क्ष॒ण्वन्तः॒ कर्ण॑वन्तः॒ सखा॑यो मनोज॒वेष्वस॑मा बभूवुः ।
आ॒द॒घ्नास॑ उपक॒क्षास॑ उ त्वे ह्र॒दाइ॑व॒ स्नात्वा॑ उ त्वे ददृश्रे ॥ 7 ॥
अ॒क्ष॒ण्ऽवन्तः॑ । कर्ण॑ऽवन्तः । सखा॑यः । म॒नः॒ऽज॒वेषु॑ । अस॑माः । ब॒भू॒वुः॒ ।
आ॒द॒घ्नासः॑ । उ॒प॒ऽक॒क्षासः॑ । ऊँ॒ इति॑ । त्वे । ह्र॒दाःऽइ॑व । स्नात्वाः॑ । ऊँ॒ इति॑ । त्वे॒ । द॒दृ॒श्रे॒ ॥
सहृदय साहित्य साधकों में भी विषमता पायी जाती है, इस तथ्य का संकेत आँखों वाले, कान वाले, समान ज्ञान ग्रहण करने वाले मित्र भी मन से जानने योग्य ज्ञान में एक समान नहीं हो ते, जैसे भूमि पर को ई जलाशय मुख तक गहरायी के जल वाले और  को ई कटि तक जल वाले तड़ाग के समान होते हैं और  को ई स्नान करने योग्य भी हो ते हैं, इसी प्रकार मनुष्यों में भी ज्ञान की दृष्टि से असमानता रहती है।
हृ॒दा त॒ष्टेषु॒ मन॑सो ज॒वेषु॒ यद्ब्रा॑ह्म॒णाः सं॒यज॑न्ते॒ सखा॑यः ।
अत्राह॑ त्वं॒ वि ज॑हुर्वे॒द्याभि॒रोह॑ब्रह्माणो॒ वि च॑रन्त्यु त्वे ॥ ८ ॥
हृ॒दा । त॒ष्टेषु॑ । मन॑सः । ज॒वेषु॑ । यत् । ब्रा॒ह्म॒णाः । स॒म्ऽयज॑न्ते । सखा॑यः ।
अत्र॑ । अह॑ । त्व॒म् । वि । ज॒हुः॒ । र्वे॒द्याभिः॑ । ओह॑ऽब्रह्माणः । वि । च॒र॒न्ति॒ । ऊँ॒ इति॑ । त्वे॒ ॥
अन्तः करण से निर्मित मन की गति में जब समान ज्ञान वाले ब्राह्मण एक साथ चलते हैं। समान ज्ञान वाले इन विद्वानों के समूह में वह एक अज्ञानी को अपने ज्ञान के कारण निश्चित रूप से पीछे छोड़ देते हैं। अपने ज्ञान के कारण शास्त्रीय ज्ञान सके लक्षणों से ब्राह्मण समझे जाने वाले कुछ ज्ञानी अपनी इच्छा  के अनुकूल ज्ञान में विचरण करते हैं

 भावार्थ-  हृदय के द्वारा जिसका तक्षण किया गया हो और मन की गति का जिसमें विनिवेश किया गया हो ऐसे वैदिक मंत्र के आचरण से विद्यार्थी परस्पर मित्र हैं तथा एक साथ ही भोजन भी करते हैं, परंतु जब ज्ञान की बात आती है तो उनमें से एक अन्य को अपने ज्ञान से पीछे छोड़ देते हैं। ऐसा वेद जानने वाला जो वेद पर तर्क वितर्क कर लेता है, वह चारों ओर विचरण कर के वेद के ज्ञान को फैलाता है। जहां प्रतीत होता है कि ब्रह्मभोज में जो चर्चा होती थी उसमें कुछ आगे निकल जाते होंगे और की कुछ पीछे रह जाते होंगे। जब अनेक समानज्ञानी ब्राह्मण हृदय से वेदार्थ के गुणदोष निरूपण के लिए ब्रह्मोद्य में एकत्र होते हैं, तो किसी किसी को  कुछ भी ज्ञान नहीं होता, कोई-कोई स्तोता ब्राह्मण वेदार्थ  ज्ञाता हो कर विचरण करते  हैं।
इ॒मे ये नार्वाङ् न प॒रश्चर॑न्ति॒ न ब्रा॑ह्म॒णासो॒ न सु॒तेक॑रासः ।
त ए॒ते वाच॑मभि॒पद्य॑ पा॒पया॑ सि॒रीस्तन्त्रं॑ तन्वते॒ अप्र॑जज्ञयः ॥ 9 ॥
इ॒मे । ये । न । अ॒र्वाक् । न । प॒रः । चर॑न्ति । न । ब्रा॒ह्म॒णासः॑ । न । सु॒तेऽक॑रासः । ते । ए॒ते । वाच॑म् । अ॒भि॒ऽपद्य॑ । पा॒पया॑ । सि॒रीः । तन्त्र॑म् । त॒न्व॒ते॒ । अप्र॑ऽजज्ञयः ॥
ये जो वेदार्थ  को  न जानने वाले अविद्वान् इस लोक में ब्राह्मणों के तथा परलोक में  देवों के साथ यज्ञादि कर्म  नहीं करते, जो न ब्रह्मवेद जानने वाले हैं और  न सोमयज्ञ कर्ता है। वे ज्ञानी नहीं हो ते। वे ये पापकारिणी लौकिक वाणी को  प्राप्तकर मूर्ख व्यक्ति के समान हल आदि लेकर अपना भरण-पोषण कृषि आदि व्यवहार से करते हैं।
भावार्थ-  जो दिव्य वाणी के अर्थ से अनभिज्ञ हैं वे वस्तुतः जीवन को  नहीं समझते। वे जीवन के जाल में फॅंसकर
वस्तुतः एक विन्दु से दूसरे विन्दु तक चक्कर काटते रहते हैं। काव्य की वास्तविक  आशंसा तभी सम्भव है जब व्यक्ति स्थिति के दोनों धु्वों को  देख सके, समझे और उनसे ऊपर उठकर ऋषि की एकात्मक स्थिति से तादात्म्य कर ले।
सर्वे॑ नन्दन्ति य॒शसाग॑तेन सभासा॒हेन॒ सख्या॒ सखा॑यः ।
कि॒ल्बि॒ष॒स्पृत्पि॑तु॒षणि॒र्ह्ये॑षा॒मरं॑ हि॒तो भव॑ति॒ वाजि॑नाय ॥ 10 ॥
सर्वे॑ । न॒न्द॒न्ति॒ । य॒शसा॑ । आऽग॑तेन । स॒भा॒ऽस॒हेन॑ । सख्या॑ । सखा॑यः । कि॒ल्बि॒ष॒ऽस्पृत् । पि॒तु॒ऽसनिः॑ । हि । ए॒षा॒म् । अर॑म् । हि॒तः । भव॑ति । वाजि॑नाय ॥
मित्र के रूप में सभा में विजयी, यश को प्राप्त का सभी सहृय अभिनन्दन करते हैं। मन की जड़ता (किल्बष्) को  दूर
करने वाला वह अन्न देनेवाला है, जिसे पाकर लोग जीवन धारण करते हैं। वाणी की स्पर्धा  में वह समर्थ  होता है।
भावार्थ- ब्रह्मवेत्ता  विद्या सीख कर समाज के मध्य जाता है तथा जब वह सभा को जीतकर यश पूर्वक लौटता है तो उसके मित्र आनंदित होते हैं। वह मित्रों के पाप को नष्ट करने वाला हमारे लिए धन संपत्ति अथवा पोषक पदार्थ लाने वाला तथा उसकी शक्तिमत्ता पर्याप्त सिद्ध होता है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानी अपने अपने मित्र तथा परिवार के लिए हितकारी होता है।
ऋ॒चां त्वः॒ पोष॑मास्ते पुपु॒ष्वान् गा॑य॒त्रं त्वो॑ गायति॒ शक्व॑रीषु ।
ब्र॒ह्मा त्वो॒ वद॑ति जातवि॒द्यां य॒ज्ञस्य॒ मात्रां॒ वि मि॑मीत उ त्वः ॥ 11 ॥
ऋ॒चाम् । त्वः॒ । पोष॑म् । आ॒स्ते॒ । पुपु॒ष्वान् । गा॒य॒त्रम् । त्वः॒ । गा॒य॒ति॒ । शक्व॑रीषु । ब्र॒ह्मा । त्वः॒ । वद॑ति । जातऽवि॒द्याम् । य॒ज्ञस्य॑ । मात्रा॑म् । वि । मि॒मी॒ते॒ । ऊँ॒ इति॑ । त्वः॒ ॥
ज्ञान-सूक्त का अन्तिम मन्त्र एक बहुत ही गम्भीर तत्व प्रस्तुत करता है। अन्तर्बाध सत्य, गुह्यतत्व जिसे ऋषियों  में अभिव्यक्ति मिली है, वही सामवेद के संगीत में, यजुर्वेद के अनुष्ठान में और  अथर्ववेद के इहमत्र काम में अभिव्यक्त है और  इन सभी की अभिव्य×जना वाणी के द्वारा ही हो ती है। ऋत्विक्, होता, उद्गाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा ये चारों सृष्टि यज्ञ के समन्वय को  ही परम् सत्य के रूप में ध्वनित करते हैं और  समन्वय के इसी विन्दु पर ही काव्य की वाणी टिकी है। इसी वाणी में सब कुछ प्रतिष्ठत है- ‘‘यावत् ब्रह्म विशिष्ठते  तावती वाक् ’’। ब्रह्म का ज्ञान वेदाध्ययन का मुख्य प्रयोजन है, अतएव आध्यात्मिक ज्ञान के लिए अनिवार्य साधनभूत वेदार्थ  ज्ञान की प्रशस्ति इस ज्ञानसूक्त का प्रतिपाद्य विषय है।

पर्जन्य सूक्त 5/83

अच्छा वद तवसं गीर्भिराभि स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास ।
कनिक्रदद्वृषभो जीरदानू रेतो दधात्योषधीषु गर्भम् ॥१॥
वि वृक्षान्हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात् ।
उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत्पर्जन्य स्तनयन्हन्ति दुष्कृतः ॥२॥
रथीव कशयाश्वाँ अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्याँ अह ।
दूरात्सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्ष्यं नभः ॥३॥
प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः ।
इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ॥४॥
यस्य व्रते पृथिवी नन्नमीति यस्य व्रते शफवज्जर्भुरीति ।
यस्य व्रत ओषधीर्विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥५॥
दिवो नो वृष्टिं मरुतो ररीध्वं प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः ।
अर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ॥६॥
अभि क्रन्द स्तनय गर्भमा धा उदन्वता परि दीया रथेन ।
दृतिं सु कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भवन्तूद्वतो निपादाः ॥७॥
महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात् ।
घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्यः ॥८॥
यत्पर्जन्य कनिक्रदत्स्तनयन्हंसि दुष्कृतः ।
प्रतीदं विश्वं मोदते यत्किं च पृथिव्यामधि ॥९॥
अवर्षीर्वर्षमुदु षू गृभायाकर्धन्वान्यत्येतवा उ ।
अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदो मनीषाम् ॥१०॥

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नासदीय सूक्त



नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है कि यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में सटीक तथ्य बताता है।
नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत् ।
किमाव॑रीवः॒ कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भः॒ किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम् ॥ १॥

न मृ॒त्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्न॑ आसीत्प्रके॒तः ।
आनी॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒रः किं च॒नास॑ ॥ २॥

तम॑ आसी॒त्तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑ऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम् ।
तु॒च्छ्येना॒भ्वपि॑हितं॒ यदासी॒त्तप॑स॒स्तन्म॑हि॒नाजा॑य॒तैक॑म् ॥ ३॥

काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्त॒ताधि॒ मन॑सो॒ रेतः॑ प्रथ॒मं यदासी॑त् ।
स॒तो बन्धु॒मस॑ति॒ निर॑विन्दन्हृ॒दि प्र॒तीष्या॑ क॒वयो॑ मनी॒षा ॥ ४॥

ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त् ।
रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त् ॥ ५॥

को अ॒द्धा वे॑द॒ क इ॒ह प्र वो॑च॒त्कुत॒ आजा॑ता॒ कुत॑ इ॒यं विसृ॑ष्टिः ।
अ॒र्वाग्दे॒वा अ॒स्य वि॒सर्ज॑ने॒नाथा॒ को वे॑द॒ यत॑ आब॒भूव॑ ॥ ६॥

इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न ।
यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑ ॥ ७॥


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