वरदराजाचार्य ने स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् को लघुसिद्धान्तकौमुदी के सबसे अंत में रखा है। इसका एक कारण यह है कि तब तक छात्र सन्धि, सुबन्त, तिङन्त, तद्धितान्त, कृदन्त आदि पदों के निर्माण की प्रक्रिया से भली- भाँति परिचित हो जाता है। स्त्री प्रत्यय के बाद सु आदि विभक्तियों की उत्पत्ति होती है। टाप्, डाप्, चाप्, ङीप्, ङीष्, ङीन्, ऊङ् और ति प्रत्यय के बाद आकारान्त, ईकारान्त, ऊकारान्त तथा इकारान्त शब्द बनते हैं। इनका शब्द रूप हम अजन्तस्त्रीलिंगप्रकरण में पढ़ चुके होते हैं।
स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् में सन्धि का प्रयोग बहुधा होता है। आप पूर्व के पाठ में पढ़ चुके प्रत्ययों के इत् संज्ञक वर्णों के कारण वृद्धि आदि कार्य देख चुके होंगे । अनेक स्थलों पर हमें पूर्व के प्रकरणों में आये सूत्रों को स्मरण करने की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा रूप सिद्धि समझने में कठिनाई आती है। त्रिलोकी जैसे रूपों की सिद्धि के समय समास की समझ होनी चाहिए।अनड्वाही में ङीष् प्रत्यय होने के साथ साथ आम् का आगम भी होता है। यदि हमें तत्काल मिदचोऽन्त्यात्परः सूत्र स्मरण में नहीं आया तो हम यह निर्णय लेने में असमर्थ रहते हैं कि अनडुह् शब्द से आम् का जो आगम होगा वह अनडुह् के बाद होगा या अनडुह् के ह् के पूर्व। यदि अनडुह् के बाद आम् का आगम किया जाय तो अनड्वाही रूप निष्पन्न नहीं हो सकता । अनडुह् के ह् के पूर्व आम् का आगम करने पर रूप सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसका नियम स्मरण नहीं आता। यहाँ यण् करने के लिए भी सूत्र स्मरण करना पड़ता है। आपको यदि शब्द सिद्धि की प्रक्रिया ज्ञात है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि आम् में केवल आ शेष रहने पर ही बात बन सकती है, अतः मकार की इत्संज्ञा करनी पड़ेगी। पुनः आम् में मकार की इत्संज्ञा का प्रयोजन क्या हो सकता है? आप पूर्ववर्ती पाठ को स्मरण किये विना आगे नहीं बढ़ सकते। कुल मिलाकर स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् पढ़ने के पूर्व हमें कुछ आवश्यक सूत्रों को स्मरण करने या आवृत्ति देने की आवश्यकता होगा। ऐसे महत्वपूर्ण सूत्रों की सूची यहाँ दी जा रहा है। इसे आप अवश्य पुनः स्मरण करके स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् पढ़ना आरम्भ करें।
सूत्र कार्य
हलन्त्यम् - इत्संज्ञा
लशक्वतद्धिते - इत्संज्ञा
उपदेशेऽजनुनासिक इत् इत्संज्ञा
तस्य लोपः - लोप
अकः सवर्णे दीर्घः - दीर्घ
अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् - संज्ञा विधायक
ङ्याप्प्रातिपदिकात्
प्रत्ययः
परश्च
यस्येति च - इकार तथा अकार का लोप
शप्श्यनोर्नित्यम् - नुम् का आगम
चरेष्टः- ट प्रत्यय
मिदचोऽन्त्यात्परः- नुमागम हेतु नियम
यचि भम्- भसंज्ञा
यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम्- अंग संज्ञा
प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने मात्र तक की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से यहाँ आ चुके लोगों के लिए इस प्रकरण के अंत में एक तोता रटंत विद्या दी जा रही है, यह आपके काम आ सकेगी। सूक्ष्म प्रश्न पूछे जाने पर यह विद्या काम नहीं आएगी। इसके लिए विधिवत् स्त्रीप्रत्यय की प्रक्रिया समझनी पड़ेगी।
१२५१ स्त्रियाम्
अधिकारोऽयम् । समर्थानामिति यावत् ।।
यह अधिकार सूत्र है। स्त्रियाम् सूत्र का अधिकार समर्थानां प्रथमाद्वा (पा.4.1.82)
तक है। अर्थात् अष्टाध्यायी के 4.1.82 तक कहे गये प्रत्यय स्त्रीत्व बोधक प्रत्यय होंगें।
इस सूत्र के अधिकार में टाप्, डाप्, चाप्, ङीप्, ङीष्, ङीन्, ऊङ् और ति प्रत्यय आते हैं। टाप्, डाप्, चाप् प्रत्ययों को संक्षेप में आप् तथा ङीप्,
ङीष्, ङीन् को संक्षेप में ङी कहा जाता है। इसका निर्देश हमें हल्ङ्याभ्यः,
औङ् आपः, आङि चापः आदि सूत्रों से प्राप्त होता है।
स्त्रियाम् सूत्र के अतिरिक्त ङ्याप्प्रातिपदिकात्,
प्रत्ययः, परश्च का भी यहाँ अधिकार है। अतःपुल्लिंग प्रतिपदिक से
स्त्री प्रत्यय लगने के बाद सु आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति होकर स्त्रीलिंग शब्द
निष्पन्न होते हैं।
स्त्रीत्व की विवक्षा में अजादि गण में पठित तथा अकारान्त प्रातिपदिक से परे टाप् हो। टाप् के ट् तथा प् इत्संज्ञक हैं। अतः चाप् में आ शेष रहता है।
अजा। अजादि गण में पठित अज शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् से प्रातिपदिक संज्ञा हुई। अज इस प्रातिपदिक से अजाद्यतष्टाप् से टाप् प्रत्यय प्राप्त हुआ। यह प्रत्यय ङ्याप्प्रातिपदिकात्, प्रत्ययः, परश्च के अधिकार में है अतः अज के बाद आया।
अज + टाप् में ट् तथा प् की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हुआ।
अज + आ = अजा । यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः से अज के अ+आ के स्थान सवर्ण दीर्घ आ हुआ। अजा रूप सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार उपर्युक्त प्रक्रिया के अनुसार एडका, अश्वा, चटका, मन्दा आदि रूप बनेगें।
सूत्रार्थ- उगिदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीप् हो।
भू धातु से शतृ प्रत्यय के द्वारा भवत् रूप सिद्ध होता है। शतृ में ऋ की इत्संज्ञा उपदेशेऽजनुनासिक इत् से होती है, जो कि उक् प्रत्याहार के अन्तर्गत आता है। अतः भवत् शब्द उगिदन्त है। इसकी प्रातिपदिक संज्ञा हुई। ऐसे उगिदन्त प्रातिपदिक से ङीप् प्रत्यय हुआ। ङीप् में ङकार तथा पकार की इत्संज्ञा लोप होने पर ई शेष रहा। भवत् + ई की स्थिति में शप्श्यनोर्नित्यम् से नुम् का आगम हुआ। नुम् में उकार मकार का अनुबन्ध लोप होने पर नकार शेष रहा। भवन्त् + ई = भवन्ती रूप सिद्ध हुआ। विशेष- शप्श्यनोर्नित्यम् का अर्थ है- शप् और श्यन् के अकार से परे जो शतृ का अवयव,तदन्त को नुम् हो, शी तथा नदी संज्ञक परे रहते। भ्वादि तथा चुरादि धातुओं से शप् तथा दिवादि से श्यन् प्रत्यय होता है। भू धातु भ्वादि गण का है अतः यहाँ भू + शप् + शतृ प्रत्यय होता है। अनुबन्ध लोप होने पर भू + अ + अत् = भवत् बना। इस भवत् से ङीप् होने पर भवत् + ई इस अवस्था में प्रस्तुत सूत्र से नुम का आगम होकर भवन्ती रूप बना। इसी प्रकार दिवादि गण के दिव् (दिवु) धातु से दीव्यन्ती रूप बनेगा।
भवती-सर्वादिगण में 'भवतु' यह प्रातिपदिक शब्द पढ़ा गया है। भवतु
में उकार की इत्संज्ञा होने से यह उगित् है। स्त्रीत्व की विवक्षा में उगितश्च इस
सूत्र से भवत् से ङीप् होकर 'भवती' यह रूप सिद्ध होता है। यहाँ 'उक्' प्रत्याहार में 'उ, ऋ, ऌ' शब्द आते है ।
सूत्रार्थ- अनुपसर्जन (जो गौण न हो) अकारान्त, टिदन्त, ढ, अण्, अञ्, द्वयसच्, दध्नञ्, मात्रच्, तयप्,ठक्, ठञ्, कञ् और क्वरप् प्रत्ययान्त शब्दों से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीप् हो।
ङीप् में ङकार की इत्संज्ञा लशक्वतद्धिते से तथा पकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से होगी। तस्य लोपः से लोप होकर ई शेष रहेगा।
कुरुचरी। कुरुषु चरति इति कुरुचरः में चर् धातु से अधिकरण सुबन्त उपपद में रहने पर चरेष्टः से ट प्रत्यय हुआ है,जो टित् है। टित् प्रत्यय से निष्पन्न अकारान्त कुरुचर में टिड्ढाणञ् से ङीप् हुआ। कुरुचर + ई । यस्येति च से कुरुचर के अन्त्य अकार का लोप हुआ। कुरुचरी में सु विभक्ति आयी। कुरुचरी रूप सिद्ध हुआ।
ध्यातव्य है कि इस कुरुचरी का सातों विभक्तियों तथा तीनों वचनों में रूप बनेगें। इसी प्रकार ढ, अण् आदि प्रत्ययों से निष्पन्न अकारान्त शब्दों के उदाहरण दिये गये हैं। इनसे ङीप् प्रत्यय होता है।
प्रत्ययान्त शब्द प्रत्यय ङीप् प्रत्ययान्त शब्द प्रत्ययान्त शब्द प्रत्यय ङीप् प्रत्ययान्त शब्द
सूत्रार्थ-हल् से परे तद्धित के उपधाभूत यकार का लोप होता है, ईकार के परे होने पर।
गार्गी । गर्गस्य गोत्रापत्यम् स्त्री इस विग्रह में गर्ग शब्द से अपत्य अर्थ में गर्गादिभ्यो यञ् से यञ् प्रत्यय आदि वृद्धि होकर गार्ग्य बना। स्त्रीत्व विवक्षा में गार्ग्य शब्द से यञश्च से ङीप् प्रत्यय हुआ। ङीप् का अनुबन्ध लोप हुआ। गार्ग्य + ई इस अवस्था में भसंज्ञक अकार का लोप तथा हलस्तद्धितस्य से भसंज्ञक यकार का लोप गार्ग् + ई हुआ। वर्ण सम्मेलन, सु आदि कार्य होकर गार्गी रूप सिद्ध हुआ।
विशेष-गार्गी में अङ्ग संज्ञा तथा भ संज्ञा ये दोनों संज्ञायें प्राप्त होती है । जबकि आकडारादेका संज्ञा (1.4.1) कहता है कि कडाराः कर्मधारये(2.2.38) सूत्र तक एक की एक ही संज्ञा हो। ‘कडाराः कर्मधारये’ सूत्र तक यदि एक ही संज्ञा करेंगें तो शेष सब संज्ञाएं, जो सूत्रकार ने उस सूत्र तक की हैं, व्यर्थ हो जायेंगी। पुनः संशय होता है कि इस सूत्र से एक की एक संज्ञा हो दो न हो यह तो निर्णीत हो गया परन्तु कौन सी संज्ञा हो?
समाधान करते हैं कि ‘या परानवकाशाश्च’ अर्थात् जो संज्ञा ‘पर’ या ‘निरवकाश’ हो उसी की प्रवृत्ति होगी।
यदि दोनों संज्ञाएं सावकाश, भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रवृत्त हो चुका हो तो ‘पर’ संज्ञा और यदि एक सावकाश और एक निरवकाश, जिसे प्रवृत्त होने के लिए कोई स्थान नहीं मिला हो तो वह अनवकाश संज्ञा ही प्रवृत्त हो। यह तर्क संगत भी है । जहां दोनों संज्ञाएं सावकाश होंगी वहां विप्रतिषेध होने से ‘विप्रतिषेधे परं कार्यम्’ 1.4.2 द्वारा ‘पर’ संज्ञा ही प्रवृत्त होनी चाहिए। जहां एक सावकाश और एक निरवकाश होगी। वहां निरवकाश संज्ञा को स्थान देना युक्तिसंगत है। क्योंकि यदि सावकाश संज्ञा वहां पर भी अनवकाश संज्ञा को न होने दें तो उस अनवकाश संज्ञा का करना ही व्यर्थ हो जाये। अतः अनवकाश और सावकाश, दोनों के एक साथ एक ही स्थान पर प्राप्त होने पर अनवकाश संज्ञा ही प्रवृत्त होगी।
प्रश्न उठता है कि अङ्ग तथा भसंज्ञा भी एकसंज्ञाधिकार में ही हैं अतः इन दोनों संज्ञाओं को एक साथ प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। गार्गी में गार्ग् + यञ् इस दशा में प्रत्यय परे रहते यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम् (१.४.१३) से अङ्ग संज्ञा तथा यकारादि प्रत्यय परे रहते यचि भम् से भसंज्ञा दोनों प्राप्त होती है। ज्ञातव्य है कि सर्वनामस्थान संज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर ‘सु’ से ‘कप्’ प्रत्यय पर्यन्त यकारादि अजादि प्रत्यय परे होने पर पूर्वशब्द समुदाय भसंज्ञक होता है। सर्वनामस्थान से तात्पर्य ‘सु, औ, जस, अम्, औट् तथा शि’ प्रत्ययों से है। तकारान्त और सकारान्त शब्दों की भी मत्वर्थ प्रत्ययों के परे रहते पूर्व की भसंज्ञा होती है। भसंज्ञा ‘पर’ होने से अङ्ग संज्ञा को बाध लेगी जिससे कि अङ्ग संज्ञा के अभाव में अङ्गाधिकार में विहित वृद्धि रूप कार्य नहीं हो पायेगा।
पतंजलि ने पर्यायः प्रसज्येत एका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगपद्येन संभवः लिखकर इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि एक संज्ञा के अधिकार में भी अङ्ग संज्ञा-पूर्वक भ-संज्ञा स्वीकार करनी चाहिए। कैसे? इसका उत्तर देते हैं कि ‘यचि भम् ’ (1.4.18) से अङ्ग संज्ञा का अनुवर्तन किया जाता है। ‘अङ्ग ’ की अनुवृत्ति मानने पर पर्याय प्राप्त होगा।
एकसंज्ञाधिकार में अङ्ग संज्ञा का नित्य बाध प्राप्त होने पर अनुवृत्ति मानने से पर्याय से अङ्ग संज्ञा भी हो जायेगी तथा भ संज्ञा भी। इससे एक संज्ञा का नियम भी बाधित नहीं होगा और अनुवृत्ति भी सफल हो जायेगी।
इस प्रकार ‘गार्गी’ आदि में भसंज्ञा तथा अङ्ग संज्ञा दोनों हो जायेंगी तथा अङ्गाधिकार का इष्ट कार्य भी हो जायेगा।
आचार्य की प्रवृत्ति भी यही इंगित करती है कि अङ्ग संज्ञा तथा भ संज्ञा पर्याय से हो जाती है। इसलिए अङ्ग के अधिकार के अन्तर्गत ही भ संज्ञा के अधिकार को स्थान दिया गया है।
१२५७ प्राचां ष्फ तद्धितः
यञन्तात् ष्फो वा स्यात्स च तद्धितः ।।
सूत्रार्थ- पूर्व के आचार्यों के मत में यञ् प्रत्ययान्त से स्त्रीलिंग में ष्फ होता है और वह ष्फ तद्धित होता है।
प्राचां कहने मात्र से सिद्ध है कि पाणिनि के मत में ष्फ नहीं होगा। अर्थात् यह ष्फ विकल्प से होगा। ष्फ का षकार इत्संज्ञक है। फ को आयन् आदेश हो जाता है। इत्संज्ञा करने का प्रयोजन षित् प्रत्ययान्त से ङीष् करना है।
सूत्रार्थ- षित् प्रत्ययान्त से तथा गौर आदि शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् होता है।
गार्ग्यायणी। गर्ग शब्द से यञ् प्रत्यय लगाकर गार्ग्य बनाने की प्रक्रिया पूर्व में बतायी जा चुकी है। इस गार्ग्य से प्राचां ष्फः तद्धितः सूत्र से स्फ हुआ। गार्ग्य + ष्फ, गार्ग्य + फ, गार्ग्य + आयन् = गार्ग्यायन् । षिद्गोरादिभ्यः से ङीष् अनुबन्ध लोप सु आदि की उत्पत्ति गार्ग्यायणी रूप बना। नर्तक शब्द ष्वुन् प्रत्ययान्त है। षिदन्त होने से ङीष् हुआ। गौरी रूप बना। गौरादि गण पठित गौर शब्द से ङीष् होकर गौरी रूप बना।
आमनडुहः स्त्रियां वा (वार्तिक)
अनुडुह् शब्द में विकल्प से ङीष् हो। अनड्वाही । अनडुह् शब्द से षिद्गौरादिभ्यश्च से ङीष् तथा आमनडुहः स्त्रियां वा से आम् का आगम होगा। आम् में मकार की इत्संज्ञा हो जाती है, अतः मित् होने के कारण मिदचोऽन्त्यात्परः परिभाषा के बल से यह आम् का आगम अनडुह् के अन्त्य अच् का अवयव होगा। अनडु + आ + ह् इ हुआ। अनडु के उकार को यणादेश हुआ। अनड्वाह् + इ = अनड्वाही रूप सिद्ध हुआ। जिस पक्ष में आम् आदेश नहीं होगा वहाँ केवल ङीष् होकर अनडुही रूप बनेगा।
सूत्रार्थ- प्रथम अवस्था के वाचक अदन्त शब्द से स्त्रीलिंग में ङीप् हो।
कुमारी। कुमार शब्द प्रथम अवस्था का वाचक अदन्त शब्द है अतः इससे ङीप् होकर कुमारी रूप निष्पन्न हुआ।
वयसि अचरमे। (वा.) वृद्धावस्था को छोड़कर अवस्था वाचक शब्द से ङीप् हो। वधूट तथा चिरंट शब्द यौवन का वाचक है, अतः इस वार्तिक से ङीप् होकर वधूटी तथा चिरंटी सिद्ध हुआ।
१२६० द्विगोः
अदन्ताद् द्विगोङीर्प्स्यात् । त्रिलोकी । अजादित्वात्त्रिफला । त्र्यनीका सेना ।।
सूत्रार्थ- अदन्त द्विगु से ङीप् हो।
त्रिलोकी। त्रिलोक शब्द द्विगु समास से निष्पन्न है और यह अदन्त भी है अतः इससे ङीप् होकर त्रिलोकी बना। प्रश्न हुआ कि त्रिफल शब्द भी अदन्त द्विगु है, पुनः यहाँ पर ङीप् होकर त्रिफली रूप क्यों नहीं बना? इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि त्रिफल शब्द अजादि गण में पठित है, अतः अजादि गण में पठित अदन्त शब्द से टाप् होगा, ङीप् नहीं। त्रिफल शब्द से चाप् होकर त्रिफला रूप बना। इसी प्रकार त्र्यनीका में भी टाप् हुआ है।
सूत्रार्थ- अनुदात्तान्त तथा तकार उपधा वाले वर्णवाची शब्द से स्त्रलिंग में विकल्प से ङीप् हो एवं तकार को नकार आदेश हो।
एनी। विविध रंगों का वाचक एत शब्द में तकार उपधा में है तथा यह अनुदात्तान्त भी है । ऐसे एत शब्द से स्त्रित्व विवक्षा में विकल्प से ङीप् तथा एत के तकार को नकार हो गया। एनी रूप बना। विकल्प पक्ष में अजाद्यतष्टाप् से टाप् हो गया। एता रूप बना। इसी प्रकार रोहित से रोहिणी तथा रोहिता रूप बनता है।
१२६२ वोतो गुणवचनात्
उदन्ताद् गुणवाचिनो वा ङीष् स्यात् । मृद्वी, मृदुः ।।
मृद्वी। मृदु (कोमल) शब्द किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के गुण को बताता है अतः यह गुणवाचक तथा उकारान्त शब्द है। इससे स्त्रीत्व की विवक्षा में विकल्प से ङीष् हुआ। ङीष् में ङकार तथा षकार का अनुबन्ध लोप हुआ। मृदु + ई में यण् हुआ । मृद्वी रूप बना। विकल्प पक्ष में मृदुः रूप बनेगा।
बह्वी। बहु शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में ङीष् हुआ। ङीष् में ङकार तथा षकार का अनुबन्ध लोप तथा यण् होकर बह्वी रूप बना। विकल्प पक्ष में बहुः रूप बनेगा।
बहु आदि से विकल्प से ङीष् हो। बह्वी। बहु शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में ङीष् हुआ। ङीष् में ङकार तथा षकार का अनुबन्ध लोप तथा यण् होकर बह्वी रूप बना। विकल्प पक्ष में बहुः रूप बनेगा।
(ग.सू.) कृदिकारादक्तिनः। रात्रिः,रात्री।
अर्थ- कृत् प्रत्यय का इकार जिसके अंत में हो, उससे विकल्प से ङीष् हो। किन्तु क्तिन् प्रत्ययान्त से नहीं हो।
उणादि कृदन्त में रा धातु से त्रिप् प्रत्यय के द्वारा रात्रि शब्द बनता है। अतः यह कृत् प्रत्ययान्त है। यहाँ कृदकारादक्तिनः से विकल्प से ङीष् होकर रात्रि + ई हुआ। यचि भम् से रात्रि के इकार की भ संज्ञा तथा यस्येति च से लोप हुआ। रात्र् + ई । परस्पर वर्ण संयोग होकर रात्री बना। स्वादि कार्य के अनन्तर रात्रीः बनता है। विकल्प पक्ष में मति शब्द के समान रात्रिः रूप बनेगा।
अव्युत्पन्न प्रातिपदिक शकटि शब्द में सर्वतोऽक्तिन्नर्थादित्येके से विकल्प से ङीष् प्रत्यय होकर शकटि + ई हुआ। भसंज्ञक इकार का लोप करने के पश्चात् शकटी रूप बनेगा। विकल्प में शकटिः रूप बनेगा।
सूत्रार्थ- पुरूष के साथ सम्बन्ध के कारण जब पुंवाचक शब्द को स्त्रीत्व की विवक्षा में अदन्त शब्द से ङीष् होता है।
गोपी। पुंवाचक शब्द के द्वारा यदि किसी स्त्री का सम्बन्ध प्रदर्शित किया जाय तो उस पुंवाचक शब्द से ङीष् होगा। उदाहरण - यहाँ पुंवाचक शब्द गोप है,जिससे किसी स्त्री का सम्बन्ध दिखाना है। वह सम्बन्ध पत्नी, पुत्री, भतीजी आदि कुछ भी हो सकता है। ऐसे गोप शब्द से ङीष्, भसंज्ञा, अनुबन्ध लोप होकर गोपी रूप बनेगा।
स्थानीय बोलियों में महिलाओं को उसके पुरुष के साथ सम्बन्ध प्रदर्शन करने हेतु डाक्टराइन, तिवारिन, हेडमास्टराइन आदि बोला जाता है।
(पालकान्तान्न)– जिस शब्द के अंत में पालक शब्द हो ऐसे पालकान्त शब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में पुरूष के साथ सम्बन्ध होने पर भी ङीष् नहीं हो।
स्मरण रखना चाहिए कि जहाँ भी ङीप्, ङीष् का विकल्प होगा वहाँ पुल्लिंग रूप बनेंगे । अजादि होने पर टाप् होगा।
सूत्रार्थ-प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व में स्थित अकार के स्थान पर इकार आदेश होता है आप् के परे होने पर। यदि वह आप् सुप् से परे हो तो अकार को इकार नहीं हो।
गोपालिका । गोपालक शब्द पालकान्त है, पालकान्तान्न इस वार्तिक सेपालकान्त
गोपालक मेंपुंयोगादाख्याम् से प्राप्त ङीष्का निषेध
हुआ।यहाँ अजाद्यतष्टाप् से टाप्,अनुबन्ध लोप होने पर गोपालक+ आ हुआ। गोपालक का ककार प्रत्यय का ककार है। इससे पूर्व लकारोत्तरवतों अकार
हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्ययस्थात्
कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः से ल के अकार को इकार आदेश हो गया,
गोपालिक + आ बना।
गोपालिक+आ में सवर्णदीर्घ करके गोपालिका बना। इससे सु विभक्ति लाकर गोपालिका रूप बना ।
इसी प्रकार सर्वक
से सर्विका और कारक से कारिका आदि बनतेहैं। यहाँ
भी प्रत्यय वाला ककार है। इसके पूर्व अकार को इकार तथा टाप् प्रत्यय होगा।
अतः किम्? नौका। यदि प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः इस
सूत्र में अतः यह प्रतिबन्ध
नहीं लगाया जाता तो नौका में ककार से पूर्व औकार के स्थान पर भी इकार आदेश हो जाता। इससे अनिष्ट रूप बनता । अतएव सूत्र में अदन्त यह प्रतिबन्ध
लगाया गया।
प्रत्ययस्थात् किम्?शक्नोतीति शका। यदि प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात
इदाप्यसुपः इस सूत्र में प्रत्ययस्थात् यह प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता तो शकाके अकार
को तो इकार हो जाता। शका का ककारप्रत्यय का ककार नहीं है।
असुपः किम्?बहुपरिव्राजका नगरी। यदि प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात
इदाप्यसुपः इस सूत्र में असुपः यह प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता तो यदि वह आप् सुप् से परे हो तो अकार को इकार नहीं हो, यह प्रतिबन्ध समाप्त हो जाता फलतः बहुपरिव्राज+का में अकार के स्थान पर
भी इकार आदेश हो जाता। बहवः परिव्राजकाः सन्ति यस्यां नगर्याम् सा बहुपरिव्राजिका
नगरी। यहाँ बहु जस् परिव्राजक जस् इस अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास
हुआ और प्रातिपदिकसंज्ञा होकर विभक्ति का लुक् हुआ। बहु जस् इस सुप् के परे परिव्राजक का ककार है, जो कि सुप् के परे है । अतः यहाँ स्त्रीत्वविवक्षा में केवल टाप् प्रत्यय होकर बहुपरिव्राजक+आ बना।
(वा०) (सूर्याद्देवतायां चाब्वाच्यः)सूर्यस्य स्त्री देवता सूर्या । देवतायां किम् ?
अर्थ- सूर्य शब्द से देवता जाति की स्त्री रूप अर्थ में
पुंयोग में 'चाप्' हो। ‘चाप्’ का चकार तथा पकार इत्संज्ञक हैं। इसमें आ शेष रहता है।
सूर्यस्य स्त्री देवता -
सूर्या । देवतावाची सूर्य शब्द से सूर्याद्देवतायां चाब्वाच्यः से चाप् प्रत्यय हुआ। अनुबन्ध लोप, सूर्य + आ में सवर्ण दीर्घ होकर सूर्या बना।
मनुष्य जाति की किसी स्त्री का नाम होने पर उक्त प्रत्यय नहीं होगा,
केवल 'डीष्' होगा, जो कि आगे के वार्तिक से स्पष्ट है।
(वा०)(सूर्यागस्त्ययोश्छे च ङ्यां च)यलोपः । सूरी – कुन्ती; मानुषीयम् ।।
अर्थ- सूर्य और अगस्त्य शब्द के यकार का लोप
हो 'छ' तथा 'ङी' प्रत्यय परे रहते।
सूर्यस्य स्त्री मानुषी। सूरी । इस विग्रहमें'डीष्' हुआ।सूर्य + ङीष् हुआ। ङीष्
में ङकार तथा षकार का अनुबन्धलोप, सूर्य + ई हुआ।'यस्येति च' के द्वारा सूर्य के अन्त्य वर्ण अकार का तथा प्रकृत वार्तिक के द्वारा यकार का लोप हो गया। सूर् + ई, परस्पर वर्णसम्मेलनहोकर सूरी रूप सिद्ध हुआ। सूरी कुन्ती का नाम है, जो कि मनुष्य थी।
सूत्रार्थ- इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, अरण्य, यव, यवन, मातुल तथा आचार्य शब्दों से ङीष् प्रत्यय तथा आनुक् का आगम हो।
इन्द्राणी। इन्द्र शब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में इन्द्र-वरुण-भव
शर्व-रुद्र-मृड-हिमारण्य-यव-यवन-मातुलाचार्याणामानुक् से सूत्र से ङीष् प्रत्यय हुआ। ङीष् में ङकार, षकार का अनुबन्ध लोप इन्द्र + ई हुआ । इन्द्र को आनुक् का आगम, उकार तथा ककार का अनुबन्ध लोप हुआ। इन्द्र + आन् + ई में अ तथा आ के बीच सवर्ण दीर्घ तथा णत्व, परस्पर वर्ण संयोग करने पर इन्द्राणीसिद्ध
हुआ। अब इन्द्राणी सेसु, स् का हल्डयाब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल् से लोप करने पर इन्द्राणी रूप बनता है।
वरुणानी। वरुण शब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में इन्द्र-वरुण-भव
शर्व-रुद्र-मृड-हिमारण्य-यव-यवन-मातुलाचार्याणामानुक् से सूत्र से ङीष् प्रत्यय
हुआ। ङीष् में ङकार, षकार का अनुबन्ध लोप वरुण + ई हुआ । वरुण को आनुक् का आगम, उकार तथा ककार का अनुबन्ध लोप हुआ। वरुण + आन् + ई बना। वरुण आन् में
सवर्णदीर्घ तथा परस्पर वर्णसंयोग करके वरुणानी बना। सु, उसका हल्ड्याभ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल् से लोप करके वरुणानी सिद्ध हुआ।
इसी तरह भवस्य स्त्री भवानी, शर्वस्य
स्त्री शर्वाणी, रुद्रस्य स्त्री रुद्राणी
और मृडस्य स्त्री मृडानी बनता है।
अब आगे हिम, अरण्य, यव, यवन, मातुल तथा आचार्य शब्दों से ङीष् प्रत्यय तथा आनुक् का आगम का विधान कहा जा रहा है-
हिम तथा अरण्य शब्दों से महत्व अर्थ में ङीष् प्रत्यय तथा आनुक् का आगम हो।
महत् हिमम् इस विग्रह में हिम शब्द से हिमारण्ययोर्महत्वे के नियमानुसारमहत्त्व अर्थ में
इन्द्र-वरुण-भव-शर्व-रुद्र-मूड-हिमारण्य-यव-यवन- मातुलाचार्याणामानुक् से ङीष् तथा आनुक् का आगम, अनुबन्ध लोप, सवर्णदीर्घ, विभक्ति कार्य होकर हिमानी रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार महत् अरण्यम् इस विग्रह में अरण्यानी रूप बनेगा।
(वा) यवाद्दोषेदुष्टो यवो यवानी ।
अर्थ- दोष अर्थ में यव शब्द से ङीष् प्रत्यय तथा आनुक् का आगम हो।
दुष्टः यवः इस विग्रह में यव शब्द से दोष अर्थ में इन्द्र-वरुण-भव-शर्व-रुद्र-मूड-हिमारण्य-यव-यवन- मातुलाचार्याणामानुक् से ङीष्तथा आनुक् का आगम, अनुबन्ध लोप, सवर्ण दीर्घ ,विभक्ति कार्य होकर यवानी रूप सिद्ध हुआ।
(वा) यवनाल्लिप्याम्यवनानां लिपिर्यवनानी ।
अर्थ - लिपि अर्थ में यवन शब्द से उक्त प्रत्यय हो।
यवनानां लिपि: यवनानी ।
यवनस्य
स्त्री-यवनी । यहाँ पुंयोग में केवल 'डीष्' प्रत्यय
होकर रूप बना है।
अर्थ - मातुल तथा उपाध्याय से आनुक् आगम विकल्प से हो।
मातुलस्य स्त्री-मातुलानी।
मातुली। यहाँ पुंयोग में डीष होकर आनुक् एवं आनुगभाव इन दो पक्षों में दो रूप
बनेंगे। इसी प्रकार उपाध्यायस्य स्त्री उपाध्यायानी, उपाध्यायी।
अर्थ - आचार्य शब्द से पुंयोग में ङीष् प्रत्यय, आनुक् का आगम तथा णत्व का निषेध हो।
जहाँ पुंयोग नहीं होगा वहाँ पर ङीष् प्रत्यय, आनुक् का आगम आदि का कार्य नहीं होकर टाप् होकर आचार्या रूप बनेगा। अर्थात् जो स्त्री अध्यापन करती है वह आचार्या तथा जो आचार्य की पत्नी होगी उसे आचार्या कहा जाता है।
आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी। जो
स्वयं अध्यापन कार्य करती हो, उसे 'आचार्या' (टाप्)
कहा जायेगा। 'या तु स्वयमेवाध्यापिका
तत्र वा ङीष् वाच्यः' - इस
वार्तिक के अनुसार से ङीष् होगा। उपाध्याया, उपाध्यायी
इन दोनों का अर्थ है अध्यापिका।
(वा) अर्यक्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थे अर्याणी, अर्या । क्षत्रियाणी, क्षत्रिया ।।
अर्थ - अर्य तथा क्षत्रिय शब्दों से स्वार्थ में ङीष् तथा आनुक् विकल्प से हो।
क्षत्रियाणी । क्षत्रिय कुल में उत्पनान हुई स्त्री को क्षत्रियाणी तथा क्षत्रिया कहा जाएगा। जो क्षत्रिय की पत्नी होगी उसे क्षत्रियी।
सूत्रार्थ- यदि असंयोगोपध (जिसकी उपधा में
संयोग न हो) और उपसर्जन (गौण)
स्वाङ्गवाची शब्द अन्त में हो तो अकारान्त प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में 'डीष्' विकल्प
से होता है।
स्वाङ्ग शब्द के तीन अर्थ है
१. अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गं
प्राणिस्थम् अविकारजम् -जो तरल न हो, मूर्तिमान्
हो, - प्राणी में वर्तमान हो और
अविकारज उस को 'स्वाङ्ग' कहते
हैं।
२. अतत्स्थं तत्र दृष्टं च - जो सम्प्रति प्राणी में स्थित न हो, किन्तु
कभी प्राणी में देखा गया हो, उसे 'स्वाङ्ग' कहते
हैं।
३. तेन चेत् तत् तथा युतम् - जिस प्रकार अङ्ग प्राणी में स्थित होता है, यदि उस
प्रकार अप्राणी में भी स्थित हो, तो उस
अप्राणिस्थ अङ्ग को 'स्वाङ्ग' कहते
हैं। इसके अनुसार प्रतिमा आदि में स्थित अङ्गों को स्वाङ्ग कहा जायेगा।
अतिकेशी, अतिकेशा । (केशान् अतिक्रान्ता)यहाँ तत्पुरुष समास हो गया। यहाँ - केश उपसर्जन हैं, प्राणी में स्थित और साकार होने के कारण यह स्वाङ्ग हैं। अतः तदन्त अकारान्त
प्रातिपदिक 'अतिकेश' से वैकल्पिक ङीष् होकर
पक्ष में 'अतिकेशी' हुआ। अभावपक्ष में -
अदन्तलक्षण टाप् हुआ।
चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा । (चन्द्र
एव मुखं यस्याः) यहाँ मुख शब्द उपसर्जन भी है तथा स्वाङ्गवाची भी है। ङीष् होकर
रूप सिद्ध हुआ। पक्ष में टाप् होकर रूप बना।
सुगुल्फा । उपधा में संयोग न हो ऐसा इसलिए कहा गया कि 'शोभनौ
गुल्फौ यस्याः सा यहाँ ङीष् न हो । यहाँ गुल्फ स्वाङ्गवाची है तथा उपसर्जन भी है, परन्तु सुगुल्फा उपधा में संयोग होने से ङीष् न होकर टाप् गया।
उपसर्जनात् किम्? सुशिखा । स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् इस सूत्र में
उपसर्जनात् इस पद को रखे जाने के प्रयोजन को प्रश्न करके स्पष्ट कर रहे हैं। इस पद
को नहीं रखने पर स्वाङ्गवाची अनुपसर्जन (प्रधान) शिखा आदि शब्दों से भी एक पक्ष में ङीष्
होकर सुशिखी ऐसा अनिष्ट शब्द सिद्ध होने लगता। यह अनिष्ट रूप न बने अतः सूत्र में
उपसर्जन यह पद रखा। शिखा शरीर का प्रधान अंग है। शिखा उपसर्जन (गौण) नहीं है, अपितु यह
हाथ पैर की ही तरह शरीर का प्रधान अंग है।
सूत्रार्थ- क्रोड आदि से और बह्वच्
स्वाङ्गवाचक प्रातिपदिक से ङीष् न हो।
कल्याणक्रोडा । (कल्याणी क्रोडा यस्याः) कल्याणक्रोड शब्द मेंस्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् इस सूत्र से ङीष् प्राप्त था जिसका निषेध होकर टाप् हुआ है।
क्रोडादि शब्द आकृतिगण है। आकृतिगण शब्द का अर्थ होता है,जिसे आकृति से पहचाना जाय। स्वाङ्गवाचक ऐसा प्रातिपदिक, जहाँ पर ङीष् न होकर टाप् हुआ हो, उसके इस आकृति को पहचानकर उसे आकृतिगण समझना चाहिए। जैसे-सुजघना। अच्छी जघनों वाली स्त्री को सुजघना कहते हैं। सुजघन शब्द में
स्वाङ्गाच्चोपसर्जनाद संयोगोपधात् इस सूत्र से ङीष् प्राप्त था, उसका न क्रोडादिबह्वचः से निषेध हुआ। यहाँ टाप् होकर सुजघना बनता है।
१२७० नखमुखात्संज्ञायाम्
न ङीष् ।।
सूत्रार्थ- नख और मुख स्वाङ्गवाची शब्दों
से संज्ञा में 'डीष्' न हो।
यह सूत्र स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् से प्राप्त ङीष् का निषेध करता है।
सूत्रार्थ- संज्ञा का विषय होने परपूर्वपदस्थ निमित्त से परे नकार
को णकार आदेश होता है किन्तु गकार के व्यवधान होने पर नहीं।
शूर्पणखा। शूर्प नख शब्द में स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् से ङीष् प्राप्त था, क्योंकि यहाँ स्वाङ्गवाची शब्द नख है।इस ङीष्
का निषेध नखमुखात्
संज्ञायाम् से हुआ। यहाँ टाप्, अनुबन्धलोप तथा सवर्णदीर्घहुआ तथा संज्ञा (नाम)
होने केकारण पूर्वपदात् संज्ञायामगः नख के नकार को णत्व होकर शूर्पणखा बना।
गौरमुखा। गौरमुख शब्द में भी स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् से ङीष् प्राप्त हुआ। इस
ङीष् का निषेध नखमुखात् संज्ञायाम् से हुआ। यहाँ मुख शब्द है। यहाँअजाद्यतष्टाप्
से टाप्, अनुबन्धलोप तथा सवर्णदीर्घ होकर गौरमुखा बना।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि शूर्पणखा तथा गौरमुखा किसी स्त्री का नाम है।
जब यह किसी का नाम होगा तभी टाप् होगा। यदि यह विशेषण होगा तब टाप् न होकर ङीष्
होगा।
संज्ञायां किमिति?नखमुखात् संज्ञायाम् इस सूत्र में संज्ञायाम् पद के प्रयोजन को स्पष्ट करने के लिए प्रश्न पूर्वक समाधान
किया जा रहा है। यदि नख तथा मुख शब्द किसी की संज्ञा हो तभी ङीष् का निषेध हो।
संज्ञा का शर्त हटा लेते तो संज्ञा और असंज्ञा दोनों
स्थलों पर निषेध होता जाता। जैसे-ताम्रमुखी कन्या।
ताम्रमुखी । यह शब्द
कन्या के विशेषण में आया है। यहाँ का मुख शब्द किसी का नाम नहीं है। संज्ञा
अनुबन्ध नहीं लगाने पर ङीष् का
निषेध होकर ताम्रमुखा यह अनिष्ट रूप बनता। यहाँ
पर संज्ञायाम् कहने से इस सूत्र ङीष् का निषेध नहीं हुआ। फलतः स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् से ङीष् होकर ताम्रमुखी तथा विकल्प पक्षमें टाप् होकर ताम्रमुखा
ये दो रूप बनतेहैं।
सूत्रार्थ- जिसके यकार उपधा में
न हो ऐसे जातिवाचकनित्यस्त्रीलिङ्ग से भिन्न प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीष् होता
है।
जाति शब्द के चार लक्षण होते हैं-
आकृतिग्रहणा जाति, लिङ्गानां न च सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिर्ग्राह्या गोत्रं च चरणैः सह ॥
आकृतिग्रहणा जातिः- जिसे
एक समान रूप, रंग तथा आकार से पहचाना जाय, उसकी एक जाति होती
है। जैसे- तटी, सूकरी।
लिङ्गानां न च सर्वभाक्, सकृदाख्यातनिग्राह्या-किसी
व्यक्ति में जिसके एक बार कथन से अन्य अनेक व्यक्तियों में उसका बोध हो जाय, तो उसे भी जाति समझना चाहिए परन्तु ऐसा शब्द सर्वलिङ्गी नहीं होना चाहिए। जैसे-
वृषली।
गोत्रम्- गोत्र अर्थात् अपत्य-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक भी एक जाति
है। जैसे- औपगवी ।
चरणैः सह - चरणवाची (वेदशाखा के अध्येता का वाचक) प्रातिपदिक भी एक
जाति ही है। जैसे- कठी, बह्वृची।
तटी। तटशब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्
से ङीष् होकर तटी वना।
वृषली। वृषल शब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् से
ङीष् होकर वृषली बना।शूद्र जाति की स्त्री को बृषली कहा जाता है। यह जातिवाचक
शब्द है।
कठी। कठशब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्
से ङीष् होकर कठी बन जाता है। कठ नामक एक वेद की शाखा है। इसको पढ़ने वाली जाती को कठी कहा जाता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्राचीन काल
की स्त्रियां वेद पढ़ती थी।
बह्वृची। बह्वृच शब्द से स्त्रीव की विवक्षा में जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् से ङीष्
होकर बह्वृची बन जाता है।
जातेः किम् ?मुण्डा। जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्
में जाते: यह पद की सार्थकता
को सिद्ध करने के लिए प्रश्न पूर्वक समाधान दिखा रहा हैं। सूत्र में यदि जातेः यह पद नहीं
दिये जाने पर जाति-अजाति
दोनों से ङीष् हो जाता। फलतःमुण्ड इस
अजातिवाचक शब्द से भी ङीष् होकर मुण्डी ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता। इसके परिहार के लिए जातेः कहा गया। इससे मुण्ड से ङीष् न होकरटाप् हुआ। मुण्डा रूप बना।
अस्त्रीविषयात् किम् ?बलाका। अस्त्री ऐसा नहीं कहते तो यह सूत्र से
नित्यस्त्रीलिङ्ग वाले शब्द से भी ङीष् होकरबलाकी ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता। यहाँ टाप् होता है।
अयोपधादिति । जहाँ यकार उपधा में न हो, वहाँ ङीष् हो, इसका प्रयोजन बनता रहे हैं। क्षत्रिय शब्द में यकार उपधा में है, ऐसे स्थलों पर ङीष् नह हो, अतः अयोपध कहा। फलतः टाप् होकर 'क्षत्रिया' बना।
मनुष्य+ ङीष् में मनुष्य में
अन्त्य अकार होने पर 'हलस्तद्धितस्य' से
यकार का लोप हो गया। मानुष् + ङीष् -
मानुषी।
(मत्स्यस्य ङ्याम्) । यलोपः । मत्सी ।।
मत्स्य + ङीष् में इस वार्तिक से यलोप होकर मत्सी बना।
१२७३ इतो मनुष्यजातेः
ङीष् । दाक्षी ।।
सूत्रार्थ-मनुष्यजातिवाचक
ह्रस्व इकारान्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीष्
प्रत्यय हो।
दाक्षी। दक्षस्थापत्यं स्त्री इस विग्रह में दक्ष
शब्द से तद्धित में अत इञ् से इञ् होकर के दाक्षि बनता है। इससे स्त्रीत्व की विवक्षा में इतो मनुष्यजाते से ङीष् हुआ। अनुबन्धलोप होकर दाक्षि + ई बना। यचि भम् सेभसंज्ञा तथा तथा यस्येति च से इकार का लोप करके दाक्षी बना है। पुनः दाक्षी से सु विभक्ति सु का लोप होकर
दाक्षी रूप बना।
सूत्रार्थ-जिसकी उपधा में यकार न हो ऐसे
मनुष्यवाची उदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय हो।
कुरूः। कुरोरपत्यं स्त्री इस विग्रह में
कुरु शब्द से कुरुनादिभ्यो ण्यः से ण्यप्रत्यय हुआ, ण्य का स्त्रियामवन्तिकुन्तिकुरुभ्यश्च से लुक् करके अपत्य अर्थ
कुरु बना । इससे स्त्रीत्व में उवर्णान्त होने के कारण ऊङुतः से ऊङ् प्रत्यय, ङकार का लोप, कुरु+ऊ बना। उ + ऊ में सर्वणदीर्घ होकर कुरू बना। कुरू से सु विभक्ति,
रुत्वविसर्ग होकर कुरू: रूप सिद्ध हुआ।
अयोपधादिति?अध्वर्युर्ब्राह्मणी। ऊङुतः में
अयोपधात् इस पद की अनुवृत्ति आती है फलतः यकार जिसकी उपधा में हो ऐसे प्रातिपदिक से ऊङ् प्रत्यय नहीं होता। यदि अयोपध यह शर्त नहीं रखते तो यह सूत्र योपध के शब्दों
से ऊङ करता जिससे अध्वर्यु इसयकारोपध
शब्द से भी ऊङ् होकर अध्वर्यू: ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता। अत: अयोपधात् कहा गया।
विशेष - कृदन्त, तद्धितान्त तथा समास से प्रातिपदिक संज्ञा होती है। कुरु जैसे शब्द ङ्यन्त तथा आबन्त या प्रातिपदिक नहीं है ऐसे प्रश्न की उपस्थिति में ऊङ् यह स्त्री प्रत्यय होने पर भी उसमें प्रातिपदिकत्व रहता है तथा प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्। प्रातिपदिक के
ग्रहण में लिङ्गविशिष्ट प्रातिपदिक का भी ग्रहण होता है। इस नियम से प्रातिपदिक से स्वादि होंगे ही । अतः स्त्रीलिङ्ग से युक्त होने पर भी प्रातिपदिकत्व की क्षति
नहीं होती है। फलतः सु आदि विभक्तियाँ आती है। यहाँ पर कुरू आदि प्रयोगों में
ड्यन्त न होने पर भी इसी परिभाषा के बल पर सु आदि प्रत्यय लाये जाते हैं।
१२७५ पङ्गोश्च। पङ्गूः ।
सूत्रार्थ- पङ्गु प्रातिपदिक से भी स्त्रीत्व
की विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय हो।
पङ्गूः। पङ्गु
प्रातिपदिक से स्त्रीत्व विवक्षा में पङ्गोश्च से
ऊङ् प्रत्यय, ङकार का लोप, पङ्ग+ऊ
बना। सर्वणदीर्घ होकर पङ्गू बना।
सु विभक्ति आयी। सु का
रुत्वविसर्ग होकर पङ्गूः सिद्ध
हुआ।
अर्थ- श्वशुर शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय के साथ उकार और अकार का लोप हो ।
श्वश्रूः। श्वशुरस्य स्त्री। श्वशुरशब्द से
श्वशुरस्योकारलोपश्च से ऊङ् प्रत्यय औरश्वशुर के शु के उकार
और र के अकार के लोप होने पर श्वश्+र्+ऊ बना। वर्णसम्मेलन होकर
श्वश्रू बना। सु विभक्ति, रुत्वविसर्ग करने पर श्वश्रूः
सिद्ध हुआ।
सूत्रार्थ- उत्तरपद ऊरु हो तथा पूर्वपद
उपमानवाची हो तो स्त्रीत्व
की विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय हो।
करभोरूः। करभौ इव ऊरू यस्याः इस विग्रह में पूर्वपद कर उपमानवाची है तथा उत्तरपद में ऊरू है अतः करभोरू शब्द सेऊरूत्तरपदादौपम्ये सेऊङ्
प्रत्यय हुआ। ङकार का अनुबन्धलोप, करभोरू + ऊ बना। सर्वणदीर्घ, सु विभक्ति, रुत्व
विसर्ग होकर करभोरूः सिद्ध हुआ।
सूत्रार्थ- उत्तरपद में 'ऊरु' शब्द
हो तथा पूर्वपद में संहित, शफ, लक्षण
तथा वाम शब्द हों तो उससे स्त्रीलिङ्ग में 'ऊ' प्रत्यय
हो ।
संहितोरू: । यहाँ संहित शब्द पूर्वपद में है तथा ऊरु शब्द उत्तरपद में है अतः संहितोरु से ऊङ् प्रत्यय हुआ। ङकार का अनुबन्धलोप, संहितोरू + ऊ बना। सर्वणदीर्घ, सु विभक्ति, रुत्व विसर्ग होकर संहितोरूः सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार 'लक्षणोरू:', वामोरूः तथा 'शफोरू:' रूप बनेंगे।
सूत्रार्थ- शार्ङ्गरव आदि तथा अञ् का जो
अकार तदन्त जातिवाचक प्रातिपदिक से ‘ङीन्' हो।
शार्ङ्गरवी । शार्ङ्गरव शब्द से ङीन् प्रत्यय हुआ। ङीन् में ङकार तथा नकार का अनुबन्धलोप हुआ, ई शेष रहा शार्ङ्गरव + ई हुआ। यचि भम् से शार्ङ्गरव के अकार की भ संज्ञा तथा यस्येति च से लोप हुआ। शार्ङ्गरव् + ई हुआ। परस्पर वर्ण संयोग होकर शार्ङ्गरवी बना। स्वादि कार्य के अनन्तर शार्ङ्गरवीः सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार वैद (अञन्त) से ङीन् करने परवैदी।
ब्राह्मण (जातिवाचक) से ङीन् करने परब्राह्मणी बना। ब्राह्मण शब्द जातिवाचक
होने से ङीष् प्राप्त था।
(वा) नृनरयोर्वृद्धिश्च। नारी ।।
नृ तथा नर शब्द से ङीन् हो तथा नृ एवं नर की वृद्धि भी हो।
नरस्य स्त्री अय़वा नुः स्त्री इस विग्रह में नृ शब्द से नृन्नेभ्यो ङीप् से ङीप् प्राप्त था उसे बाधकर नृनरयोर्वृद्धिश्च से ङीन् तथा नृ के ऋकार को वृद्धि, रपर आर् होकर नारी बना। अनन्तर स्वादि विभक्ति कार्य हुआ। इसी प्रकार नर में ङीष् एवं नकार के बाद के अकार की वृद्धि आ होकर नारी रूप बना।
युवन् शब्द से ति प्रत्यय हुआ। युवन +ति इस दशा में न लोपः प्रतिपदिकान्तस्य से प्रातिपदिक युवन के अंत वर्ण नकार को लोप हुआ। स्वादि कार्य होकर युवतिः बना।
यु धातु से शतृ प्रत्यय कर उगितश्च से ङीप् होकर युवती रूप बनता है। इसी प्रकार युवत् शब्द से सर्वतोऽक्तिन्नर्थात् से वैकल्पिक ङीष् होकर युवती रूप बनता है। स्त्रीप्रत्ययप्रकरण में आये प्रत्ययों एवं उसके उदाहरणों की तालिका