महाकवि अश्वघोष


महाकवि अश्वघोष, महाकवि होने के अतिरिक्त उद्भट दार्शनिक आचार्य और बौद्ध धर्म को उत्कृष्ट एवं नई दिशा प्रदान करने वाले मत प्रवर्तकों में स्वीकार किए जाते हैं। इन्होंने एक ओर बुद्धचरितम्, सौंदरानन्दम् जैसे महाकाव्यों को लिखकर भगवान बुद्ध के जीवन के वैचारिक उत्कर्ष को और उनकी मानव करुणा को निरूपित किया तो दूसरी और काव्य के क्षेत्र में महाकाव्यों की रचना के लिए मार्ग प्रशस्त किया। परवर्ती संस्कृत महाकाव्यों की संरचना और उसकी कथावस्तु आदि में अश्वघोष की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। शारिपुत्र- प्रकरणम् जैसे सर्वप्रथम नाटकों को लिखकर उन्होंने बुद्ध के संदर्भ को जनसामान्य के जीवन से समरस करने का प्रयत्न किया। इस महा कवि ने बौद्ध धर्म के प्रखर ज्ञानवाद या प्रज्ञावाद के साथ श्रद्धा और भक्ति की भावना को जोड़ने की चेष्टा की। इसके लिए उन्होंने महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र की रचना की, जिसका प्रभाव स्वदेश में ही नहीं अपितु मध्य एशिया से चीन, जापान आदि दर्जनों देशों में फैला। इसके अतिरिक्त महा कवि अश्वघोष में एक महान समाज चिंतक होने का अद्भुत गुण था। उन्होंने अपने काव्य और बज्रसूची उपनिषद् जैसे ग्रंथों से तत्कालीन समाज में व्याप्त मानव सम्मान के विरोधी मान्यताओं की आलोचना की और उसके स्थान पर अपनी कृतियों से नवीन एवं उदार जीवन दृष्टि प्रदान की। इस महा कवि ने जीवन के उत्कृष्ट उद्देश्यों में धर्म और संस्कृति के प्रचार को भी जोड़ा। महायान धर्म और उसकी मानव परायण विचारधाराओं के द्वारा बौद्ध धर्म का जो व्यापक प्रसार हुआ, उसके पीछे अश्वघोष का महान योगदान है । इतिहासकारों का यह भी मत है कि अश्वघोष कनिष्क द्वारा समायोजित बौद्ध संगीति के उपसभापति थे। हमें ज्ञात है कि सम्राट् अशोक के द्वारा भारतीय संस्कृति और बौद्ध धर्म का विश्व में जो जागरण हुआ, उसके दो-तीन शताब्दी बाद सम्राट् कनिष्क द्वारा धर्म और दर्शन का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके तत्कालीन मुख्य प्रेरणास्रोत अश्वघोष थे। आधुनिक भारतीय जीवन की समस्याओं और धार्मिक समस्याओं के साथ महा कवि अश्वघोष की विचारधारा का संबंध जुड़ जाता है। इन्होंने अपनी समस्त रचनाओं में एक और भाषा, जाति वंश आदि की अनुदार मान्यताओं की आलोचना की तो दूसरी ओर भोग विलासिता के विरुद्ध त्याग और सादगी को उत्कृष्ट सिद्ध किया। देखा जाता है कि उसके बाद ही प्रथम - द्वितीय शताब्दी से मूर्ति, चित्र और संगीत आदि कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। भारतवर्ष से बाहर मध्य एशिया के विस्तृत क्षेत्रों में और उस रास्ते चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में कला और साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट उपलब्धि हुई । उसके पीछे महाकवि अश्वघोष की रचनाओं का प्रभाव है। हमें ज्ञात है कि इस भारतीय महाकवि के साहित्य का प्राचीनतम अनुवाद चीनी भाषा में ही उपलब्ध है। सौभाग्य से इधर मूल संस्कृत में भी कुछ ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं, जो अभी अश्वघोष के अध्ययन के लिए पर्याप्त नहीं है। उसके लिए एक ओर प्राचीन भाषा में संस्कृत के अतिरिक्त चीनी, तिब्बती आदि का सहारा लेना पड़ता है। दूसरी ओर अट्ठारह वीं 19वीं शताब्दी में फ्रेंच, जापानी, जर्मन, डच्, अंग्रेजी आदि में जो सिल्वन् लेवी, किलहार्न, स्पेयर, विण्टरनित्ज़, लूडर्स, जैकोवी, आदि विद्वानों द्वारा कार्य हुए हैं, उसके लिए इन अर्वाचीन भाषा स्रोतों का भी सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार महा कवि अश्वघोष के बारे में हमें अभी तक इनके बारे में निम्नानुसार सूचनाएं प्राप्त हुई है -

सौन्दरानन्दम् की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनके माता का नाम स्वर्णाक्षी और जन्मस्थान साकेत (अयोध्या) था। आर्यभदन्त, महाकवि, महावादी, महापंडित, महाराज आदि उपाधियों से विभूषित थे। कुछ विद्वानों ने इनका जन्म स्थान पाटलिपुत्र (पटना) अथवा वाराणसी का भी उल्लेख किया है। इनके जीवन का अधिकांश समय कश्मीर तथा गांधार में व्यतीत हुआ।
कहा जाता है कि अश्वघोष ब्राह्मण थे । ब्राह्मण होकर उन्होंने बौद्ध धर्म कैसे स्वीकार किया? इसके बारे में एक घटना आती है। पेशावर में पार्श्व नामक एक बौद्ध भिक्षु से अश्वघोष का शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें पार्श्व विजयी हुए। इसके कारण अश्वघोष ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। चीनी और तिब्बती परंपरा के अनुसार पार्श्व या  पुष्ययशस् अश्वघोष के शिक्षक थे।
जन्म समय
अश्वघोष के जन्म समय के बारे में अनेक मत प्राप्त होते हैं। एक मत के अनुसार अश्वघोष नागार्जुन से पूर्व हुए। बुद्धचरित का चीनी रूपांतरण पंचम शतक में हुआ था, अतः यह निश्चित है कि बुद्धचरित की रचना पांचवी शताब्दी से पहले हुई होगी। अश्वघोष पार्श्व के बाद तथा नागार्जुन और आर्य देव के पूर्व जन्म लिए थे। यह कहा जाता है कि कनिष्क ने मगध विजय के पश्चात् अश्वघोष को उनकी विद्वता से प्रभावित होकर पेशावर लाया था। अतः अश्वघोष पेशावर जाने के पूर्व ही बौद्ध मत स्वीकार कर बौद्ध धर्म एवं दर्शन में पूर्ण योग्यता प्राप्त कर ली होगी। ये सर्वास्तिवाद सम्प्रदाय के भिक्षु और महायान के अन्तर्गत योगाचार शाखा के विचारक थे।
बुद्धचरितम् (महाकाव्य)

इस महाकाव्य में भगवान बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। लेखन की दृष्टि से इसके दो भाग हैं। प्रथम भाग में जन्म से बुद्धत्व प्राप्ति तक का वर्णन है । इसमें चौदह सर्ग हैं। 14 वें सर्ग के 31 वें श्लोक तक के ही अंश अश्वघोषकृत माने जाते हैं। अश्वघोष कृत मूल पुस्तक प्रथम भाग के रूप में सम्पूर्ण उपलब्ध है। केवल प्रथम सर्ग के प्रारम्भ ७ श्लोक और चतुर्दश सर्ग के ३२ से ११२ तक ( ८१ श्लोक ) मूल में नहीं मिलते हैं। इसके बाद इसमें तीन सर्ग अमृतानंद नामक बौद्ध विद्वान ने जोड़ा।  इस तरह यह पुस्तक 17 सर्ग का हुआ। इसका भाषांतर चीनी एवं तिब्बती भाषा से किया गया है। चीनी तथा तिब्बती भाषा में यह 28 सर्ग में प्राप्त होता है।

18 से 28 सर्ग का अनुवाद तिब्बती भाषा में मिला। उसके आधार पर किसी चीनी विद्वान् ने चीनी भाषा में अनुवाद किया तथा आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत के अध्यापक डाक्टर जॉन्सटन ने उसे अंग्रेजी में लिखा । इसका अनुवाद श्री सूर्यनारायणजी चौधरी ने हिन्दी में किया है जिसको रामचन्द्र दास नामक विद्वान् ने संस्कृत पद्यमय काव्य रूप में परिणत किया है।

बुद्धचरित के पांच सर्गों में भगवान बुद्ध के प्रादुर्भाव से लेकर उनके घर छोड़ने तक की घटना वर्णित है। इसमें बुद्ध का जन्म, अन्तःपुर में बिहार, संवेग की उत्पत्ति, स्त्री निवारण और अभि निष्क्रमण के वृतांत उपलब्ध होता है । यही घटना बुद्ध की जीवनी के रूप में प्रचलित है। जबकि सिंहली आदि भाषाओं में बुद्ध की जीवनी पृथक् पायी जाती है।

प्रथम सर्ग में राजा शुद्धोदन व उनकी पत्नी का वर्णन है। मायादेवी (शुद्धोदन की पत्नी) ने एक रात सपना देखा की एक श्वेत गजराज उनके शरीर में प्रवेश कर रहा है। लुंबिनी के वन में सिद्धार्थ का जन्म होता है। उत्पन्न बालक ने भविष्यवाणी की- "मैं जगत् के हित के लिये तथा ज्ञान-अर्जन के लिये जन्मा हूं"।

द्वितीय सर्ग- राजा शुद्धोदन ने कुमार सिद्धार्थ की मनोवृत्ति को देख कर अपने राज्य को अत्यंत सुखकर बना कर सिद्धार्थ के मन को विलासिता की ओर मोडना चाहा तथा उसके वन में चले जाने के भय से उसे सुसज्जित महल में रखा।

तृतीय सर्ग- उद्यान में एक वृद्ध, रोगी व मुर्दे को देखकर सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न होता है। इस सर्ग में कुमार की वैराग्य-भावना का वर्णन है।

चतुर्थ सर्ग- नगर एवं उद्यान में पहुंच कर सुंदरी स्त्रियों द्वारा कुमार को मोहित करने का प्रयास पर कुमार उनसे प्रभावित नहीं होता।

पंचम सर्ग- वनभूमि देखने के लिये कुमार गमन करता है। वहां उन्हें एक श्रमण मिलता है। नगर में प्रवेश करने पर कुमार का गृह-त्याग का संकल्प व महाभिनिष्क्रमण ।

षष्ठ सर्ग- कुमार छंदक को लौटाता है ।

सप्तम सर्ग- कुमार तपोवन में प्रवेश कर कठोर तपस्या में लीन होता है।

अष्टम सर्ग - कंथक नामक अश्व पर छंदक कपिलवस्तु लौटता है। नागरिकों व यशोधरा का विलाप ।

नवम सर्ग- राजा कुमार का अन्वेषण करता है। कुमार नगर को लौटता है।

दशम सर्ग- बिंबिसार द्वारा कुमार को कपिलवस्तु लौटने का आग्रह ।

एकादश सर्ग - रामकुमार राज्य व संपत्ति की निंदा करता है व नगर में जाना अस्वीकार करता है।

द्वादश सर्ग- राजकुमार अराड मुनि के आश्रम में जाता है। अराड अपनी विचारधारा का प्रतिपादन करता है। उसे मान कर कुमार के मन में असंतोष होता है और वह तत्पश्चात् कठोर तपस्या में संलग्न होता है। नंदबाला से पायस की प्राप्ति ।

त्रयोदश सर्ग- मार (काम) कुमार की तपस्या में बाधा डालता है परंतु वह पराजित होता है।

चतुर्दश सर्ग- में कुमार को बुद्धत्व की प्राप्ति। शेष सर्गों में धर्मचक्र प्रवर्तन व अनेक शिष्यों को दीक्षित करना, पिता-पुत्र का समागम, बुद्ध के सिद्धान्तों व शिक्षा का वर्णन तथा निर्वाण की प्रशंसा की गई है। "बुद्धचरित" में काव्य के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया गया है। विशुद्ध काव्य की दृष्टि से, प्रारंभिक 5 सर्ग व 8 वें तथा 13 वें सर्ग के कुछ अंश अत्यंत सुंदर हैं। 

सौंदरानन्द महाकाव्य
 इस महाकाव्य में 18 सर्ग हैं। इसमें बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का वर्णन किया गया है। दूसरे शब्दों में इसे बौद्ध शिक्षा का कोश कहा जा सकता है। यह हीनयान संप्रदाय की रचना मानी जाती है, फिर भी इसमें कहीं-कहीं महायान संप्रदाय के सिद्धांतों का वर्णन मिलता है। बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी घटनाएं, जिसका वर्णन बुद्धचरित में संक्षेप में हुआ था, सौंदरानंद में आकर विस्तार पाया है।

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