संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग-13)

 संस्कृतभाषी ब्लॉग की पोस्ट "संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनाएँ (भाग-13)" संस्कृत साहित्य की समकालीन रचनात्मकता का एक प्रेरणादायक प्रदर्शन है। इस पोस्ट में श्रीनिवास रथ, जानकीवल्लभ शास्त्री, और अरविंद तिवारी जैसे प्रख्यात गीतकारों की रचनाएँ शामिल हैं, जो संस्कृत की शास्त्रीय परंपरा को आधुनिक संदर्भों के साथ जोड़कर प्रस्तुत करती हैं। यह समीक्षा इन रचनाओं के काव्यात्मक सौंदर्य, भावनात्मक गहराई, और सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डालती है, जो संस्कृत प्रेमियों, छात्रों, और शोधकर्ताओं के लिए एक मूल्यवान संसाधन है।

1. श्रीनिवास रथ: "तदेव गगनं सैव धरा"

विषय और भाव: यह गीत सामाजिक परिवर्तनों और नैतिक दुविधाओं को चित्रित करता है, जो आधुनिक समाज में परंपराओं के टकराव को दर्शाता है। "तदेव गगनं सैव धरा" की पुनरावृत्ति जीवन की निरंतरता और बदलते मूल्यों के बीच तनाव को प्रभावी ढंग से उजागर करती है। गीत में पाप-पुण्य, कर्मफल, और सामाजिक रीतियों जैसे दहेज और विवाह की समस्याओं पर गहन चिंतन है। "केन हेतुना विलपति सीता" और "वृन्दावनं न काशी वा मथुरा" जैसे पंक्तियाँ आध्यात्मिकता और परंपराओं के प्रति समकालीन उदासीनता को रेखांकित करती हैं।

काव्य शैली: भाषा सरल किंतु गहन है, जिसमें संस्कृत की छंदबद्धता और आधुनिक विचारों का सुंदर समन्वय है। प्रतीकात्मकता (जैसे सीता और मिथिला का उल्लेख) रचना को भावनात्मक गहराई प्रदान करती है।

मूल्यांकन: यह रचना विचारोत्तेजक है और आधुनिक समाज की विसंगतियों को संस्कृत के माध्यम से प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है। हिंदी अनुवाद इसे गैर-संस्कृत पाठकों के लिए भी सुलभ बनाता है।

2. जानकीवल्लभ शास्त्री: "भारतीवसन्तगीतिः"

विषय और भाव: यह गीत वसंत ऋतु की रमणीयता और प्रकृति के साथ मानव मन के सामंजस्य को चित्रित करता है। "कलिन्दात्मजायाः सवानीरतीरे" और "मलयमारुतोच्चुम्बिते मञ्जुकुंजे" जैसे वर्णन प्रकृति की सुंदरता को जीवंत करते हैं। यह रचना प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता और आध्यात्मिक सौंदर्य को दर्शाती है।

काव्य शैली: गीत में शास्त्रीय काव्य परंपरा का उपयोग है, जिसमें उपमा और रूपक जैसे अलंकारों का समावेश है। "निनादय नवीनामये वाणी वीणाम्" की पुनरावृत्ति इसे संगीतमय और लयबद्ध बनाती है।

मूल्यांकन: यह रचना संस्कृत साहित्य के सौंदर्य और भावात्मक गहराई को उजागर करती है। यह प्रकृति प्रेमियों और काव्य रसिकों के लिए एक आनंददायक अनुभव है।

3. अरविंद तिवारी: "विलसति संस्कृतप्रतिभा" और "संस्कृतप्रतिभान्वेषणधन्यवादगानम्"

विषय और भाव: ये रचनाएँ संस्कृत भाषा और संस्कृति के पुनर्जनन और प्रचार पर केंद्रित हैं। "विलसति संस्कृतप्रतिभा" गुरु-शिष्य परंपरा और संस्कृत शिक्षा की प्रशंसा करता है, जिसमें बाणभट्ट और पाणिनि जैसे विद्वानों का उल्लेख है। "संस्कृतप्रतिभान्वेषणधन्यवादगानम्" संस्कृत के प्रचार में योगदान देने वाले शिक्षकों और आयोजकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है।

काव्य शैली: दोनों गीत प्रेरणादायक और उत्साहवर्धक हैं। भाषा सहज और लयबद्ध है, जो पाठकों में संस्कृत के प्रति उत्साह जगाती है। "धन्यवादं ते" की पुनरावृत्ति कृतज्ञता को प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है।

मूल्यांकन: ये रचनाएँ संस्कृत के शैक्षिक और सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करती हैं। ये युवा पीढ़ी को संस्कृत के प्रति प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

कुल मूल्यांकन

संस्कृतभाषी ब्लॉग की यह पोस्ट आधुनिक संस्कृत साहित्य की जीवंतता और प्रासंगिकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। श्रीनिवास रथ की रचना सामाजिक चिंतन को, जानकीवल्लभ शास्त्री की रचना प्रकृति के सौंदर्य को, और अरविंद तिवारी की रचनाएँ संस्कृत के प्रचार को उजागर करती हैं। हिंदी अनुवाद और संरचित प्रस्तुति इसे व्यापक पाठकों के लिए सुलभ बनाती है। यह पोस्ट संस्कृत साहित्य के प्रेमियों, छात्रों, और शोधकर्ताओं के लिए एक प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक संसाधन है। यह शास्त्रीयता और आधुनिकता के मिश्रण को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।

आप भी इस ब्लॉग को पढ़ें और संस्कृत की समृद्ध परंपरा का हिस्सा बनें!


तदेव गगनं सैव धरा

 तदेव गगनं सैव धरा

जीवनगतिरनुदिनमपरा

तदेव गगनं सैव धरा।।

पापपुण्यविधुरा धरणीयं

कर्मफलं भवतादरणीयम्।

नैतद्-वचोऽधुना रमणीयं

तथापि सदसद्-विवेचनीयम्।।

मतिरतिविकला

सीदति विफला

सकला परम्परा। तदेव....

शास्त्रगता परिभाषाऽधीता

गीतामृतकणिकापि निपीता ।

को जानीते तथापि भीता

केन हेतुना विलपति सीता ।।

सुतरां शिथिला

सहते मिथिला

परिकम्पितान्तरा । तदेव.......

 जनताकृतिः शान्तिसुखहीना

संस्कृति-दशाऽतिमलिना दीना।

केवल-निजहित-साधनलीना

राजनीतिरचना स्वाधीना ।।

न तुलसीदलं

न गङ्गाजलं

स्वदते यथा सुरा । तदेव.....

देवालयपूजा भवदीया

कथं भाविनी प्रशंसनीया।

धर्म-धारणा यदि परकीया

नैव रोचते यथा स्वकीया।।

भक्तिसाधनं

न वृन्दावनं

काशी वा मथुरा। तदेव..

 

स्पृहयति धनं स्वयं जामाता

परिणय-रीतिराविला जाता।

सुता न परिणीतेति विधाता

वृथा निन्द्यते रोदिति माता ॥

चरणवन्दनं

भीतिबन्धनं

मोहमयी मदिरा । तदेव ...

सपदि समाजदशा विपरीता

परम्परा व्यथते ननु भीता ।

अपरिचिता नूतननैतिकता

शनैः शनैः प्रतिगृहमापतिता ।।

त्यज चिरन्तनं

हृदयमन्थनं

गतिरपि नास्त्यपरा । तदेव....

 

भारतीयसंस्कृतिमञ्जूषा

प्रतिनवयुग-संस्कार-विभूषा ।

स्वर-परिवर्तन-कृताभिलाषा

सम्प्रति लोक-मनोरथभाषा ।

नवयुगोचिता

मनुज-संहिता

विलसतु रुचिरतरा । तदेव......

लेखकः – श्रीनिवास रथ

हिन्दी

वही आकाश वही धरती

गति जीवन की नित नयी बदलती, है वही आकाश वही धरती ।

पाप पुण्य का भार धरा पर कर्म के अनुरूप मिलता फल, माना, अब ये बातें नहीं सुहाती फिर भी भले बुरे का तो कुछ करना होगा कही विवेचन । चकराने लगता है माथा समूची परम्परा लगती विफल सिसकती । है वही...

शास्त्रों वाली परिभाषायें पढ़ ली, पी गये अमृत बिन्दु सम वचनों वाली गीता, फिर भी किसे पता है ? किस कारण डरी डरी रोती है सीता ?

इसीलिए बेहाल कापते अन्तर से है मिथिला सब सहती । है वही..

सुख शान्ति से है दूर जनता, केवल अपने ही हित साधन में लीन राजनीति के हर करतब को मिल गयी स्वाधीनता ।

न तुलसी दल न गंगा जल में कहीं वह स्वाद या वह भावना दिखती, कि जितनी मन भावन रसीली अब सुरा लगती । है वही..

आपके मन्दिर की, पूजा की प्रशंसा कौन करेगा ? कैसी ! अगर परायी धर्म-धारणा नयी सुहाती खुद अपनी ही पूजा जैसी ।

वृन्दावन नहीं भक्ति का साधन न काशी या मथुरा भक्ति भक्त के मन में बसती । है वही......

जमाई राज अब खुद हो कर चाहने लगा वधू से बढ़ कर धन, हुए व्याह के तौर तरीके दूषित, भाग्य को बेकार कोसती माता 

है दिन रात रोती चरण वन्दन ये डरावने बन्धन एक मदिरा है भरम भरती । है वही......

दशा समाज की फिलहाल है विपरीत दुखी है परम्परा भयभीत । हर घर आँगन में उतर रही है धीरे धीरे एक नयी नैतिकता अपरिचित । 

छोड़ो चिरन्तन हृदय-मन्थन गति भी कोई और नही दिखती । है वही...

भारतीय संस्कृति की मंजूषा सक्षम है करने में नवयुग के संस्कार अलंकृत । स्वर परिवर्तन की अभिलाषा व्यक्त कर रही सम्प्रति जन मानस की भाषा ।

सुरुचिपूर्ण अति सुन्दर नयी संहिता मनुज जाति की अब निर्मित हो नव संयोजन करती। है वही...

भारतीवसन्तगीतिः


निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ।

मृदुं गाय गीतिं ललित नीति लीनाम् ॥

 

मधुर - मञ्जरी- पिञ्जरीभूत- माला:

वसन्ते लसन्तीह सरसा रसाला:

कलापा कलित-कोकिला-काकलीनाम्

निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

 

वहति मन्द-मन्दं समीरे सनीरे

कलिन्दात्मजाया: सवानीर-तीरे

नतां पंक्तिमालोक्य मधुमाधवीनाम्

निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

 

चलितपल्‍लवे पादपे पुष्‍पपुंजे,

 मलयमारुतोच्‍चुम्बिते मञ्जुकुंजे

स्‍वनन्‍तीन्‍ततिम्‍प्रेक्ष्‍य मलिनामलीनाम्।

निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

 

लतानां नितान्‍तं सुमं शान्तिशीलम्,

 चलेदुच्‍छलेत्‍कान्‍तसलिलं सलीलम्-

तवाकर्ण्‍य वाणीमदीनां नदीनाम्।

निनादय नवीनामये वाणि  वीणाम्।।

 

उदयति मिहिरो, विगलति तिमिरो

भुवनं कथमभिरामम्

प्रचरति चतुरो मधुकरनिकरो

गुंजति कथमविरामम्॥

 

विकसति कमलं, विलसति सलिलम्

पवनो वहति सलीलम्

दिशिदिशि धावति,कूजति नृत्यति

खगकुलमतिशयलोलम्॥

 

शिरसि तरूणां रविकिरणानाम्

खेलति रुचिररुणाभा

उपरि दलानाम् हिमकणिकानाम्

कापि हृदयहरशोभा॥

लेखक-  जानकीवल्लभ शास्त्री


विलसति संस्कृतप्रतिभा

विलसतिसंस्कृतप्रतिभा

                 

संस्कृतप्रतिभान्वेषणलग्ना भव्या  मित्र! मनोज्ञा

प्रेरयन्ति सद्गुरव: शिष्यान् नितरां गन्तुं विज्ञा:।

दिशि दिशि विद्यालयतो वटवश्चलितास्सन्ति श्रुताभा:

विलसति संस्कृतप्रतिभा

विलसति  संस्कृतप्रतिभा

 

पश्य पश्य सज्ज्ञानवनेऽस्मिन् गुञ्जति प्रतिभागानम्

अहो वटूनां वाणी कुरुते बाणभट्टसम्मानम्।

सुखिनो दृष्ट्वा हन्त पूर्वजा मोदन्ते दिव्याभा:

विलसति संस्कृतप्रतिभा

विलसति संस्कृतप्रतिभा

 

श्लोकानामुच्चारणमेतद् हरते चेतोऽस्माकम्

ब्रुवते गुरवो वाहवाह इति प्रेरकवचनं साकम्।

अन्नंभट्टामरपाणिनिरचनानां हन्त जिताभा

विलसति संस्कृतप्रतिभा

विलसति संस्कृतप्रतिभा

 

व्यासगणेशविरचिता भाषा जीवति लेखे वन्द्या

मुदिता वयं भवामो दृष्ट्वा प्रतिभामेषां धन्या

संस्कृतिसंस्कृतरक्षणहेतोर्विलसतु राष्ट्रनवाभा

विलसति संस्कृतप्रतिभा

विलसति संस्कृतप्रतिभा

      अनुवादक - अरविन्दतिवारी

 

संस्कृतप्रतिभान्वेषणधन्यवादगानम्!!

********

 

समादरणीय हे श्रीमन्! वदामो धन्यवादं ते।

कृतज्ञा योजका: प्रीत्या वदामो धन्यवादं ते।।१

 

सुप्रतिभान्वेषणं सफलं वयं मन्यामहे  मतिमन्!

उपस्थित्या स्वसंस्थाने वदामो धन्यवादं ते।। २

 

गुरुर्वा यो महानभिभावक: प्रेम्णा प्रियच्छात्र:।

विमलनिष्ठां प्रदर्शितवान् वदामो धन्यवादं ते।। ३

 

स्वसंस्कृतवर्द्धने धीमन्! प्रयासोऽयं सदा श्लाघ्य:।

समर्थनयोगदानार्थं वदामो धन्यवादं ते।। ४

 

असीमप्रेमभावो दर्शनीयो मान्य! प्रतिभायाम्।

मनो नोऽचोरयत्त्वरितं वदामो धन्यवादं ते।। ५

 

सुयोगं सम्प्रदायैतद् विहितवान् योजनं सुफलम्।

वटो! प्रतिभागितां कृतवान् वदामो धन्यवादं ते।। ६

 

गिरामायोजनेऽस्मिन् य: सदोत्थ:  संस्कृतोन्नतये।

विनयकुसुमैर्मुहुर्मुदिता वदामो धन्यवादं ते।। ७

                  ***अरविन्दतिवारी


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Sanskrit: A Historical and Linguistic Introduction

              Sanskrit is one of the most ancient known languages of the world and holds a prominent position as the classical language of Hinduism. It is regarded as the sacred language of the scriptures and rituals of Hinduism, Buddhism, and Jainism. Today, it is listed among the 22 scheduled languages under the Eighth Schedule of the Constitution of India and holds the status of a second official language in the states of Uttarakhand and Himachal Pradesh.

Historical Significance

The origin of Sanskrit can be traced back to at least 1500 BCE, as evidenced by the Rigveda, the oldest of the Vedic texts. The language used in the Rigveda is known as Vedic Sanskrit, which represents the earliest attested form of any Indo-Iranian language. It also stands as one of the most ancient documented members of the Indo-European language family, which includes languages like English, German, Latin, and Greek.

The classical phase of Sanskrit began around the 4th century BCE, marked by the monumental grammatical work of Pāṇini — the Aṣṭādhyāyī. Through this work, Sanskrit was codified into a highly refined, systematic, and standardized form. Pāṇini’s grammatical system continues to serve as the foundational framework for Sanskrit grammar even today.

Linguistic Importance

In Western philology, Sanskrit enjoys a distinguished status equivalent to that of Latin and Ancient Greek. The study of Sanskrit by British scholar Sir William Jones in the late 18th century revealed its deep-rooted connection with European languages. This discovery gave rise to the Indo-European language theory, a cornerstone of modern comparative linguistics.

Sanskrit’s meticulous and scientific grammatical structure has made invaluable contributions to the fields of linguistics, comparative philology, and etymology.

Cultural and Literary Impact

Classical Sanskrit literature is rich and diverse, encompassing poetry, drama, philosophy, science, mathematics, Ayurveda, logic, and theology. Renowned scholars like Kālidāsa, Patañjali, and Bhartṛhari have produced works of global literary excellence.

Sanskrit has significantly influenced the development of many modern Indian languages, including Hindi, Bengali, Marathi, Tamil, Telugu, Kannada, and Malayalam. Beyond India, its cultural footprint extends across Southeast Asian countries such as Indonesia, Cambodia, Thailand, and Malaysia, where its influence is visible in temple inscriptions and traditional customs.

Contemporary Status

Although Sanskrit is generally known as a classical language, it remains a living spoken language among certain families and communities in India. Various governmental and voluntary organizations are actively engaged in reviving Sanskrit as a language of everyday communication. Due to these continuous efforts, the number of Sanskrit speakers is steadily increasing.

However, during population censuses, it has often been observed that enumerators record the local language instead of Sanskrit as the mother tongue of speakers. This leads to a significant underreporting of the actual number of Sanskrit speakers in official data. Nevertheless, Sanskrit continues to thrive across India and globally in academic, religious, and cultural contexts. For this reason, it is often described as an “Ajara” (never aging) and “Amara” (immortal) language.

The Government of India has launched various initiatives to preserve and promote Sanskrit, and the language continues to be studied in universities, traditional gurukulas, and research institutes. Moreover, in recent times, there has been growing interest in Sanskrit's grammatical framework in the fields of computer science and artificial intelligence.


Suggested Reference Works for Further Reading:

  • Michael WitzelVedic Sanskrit and the Indo-Aryan Languages, Harvard University
  • Franklin EdgertonIntroduction to the Study of Sanskrit, University of Pennsylvania
  • Sir William JonesThe Third Anniversary Discourse, Asiatic Society, 1786
  • Monier Monier-WilliamsA Sanskrit-English Dictionary
  • Thomas BurrowThe Sanskrit Language



संस्कृत : एक ऐतिहासिक और भाषिक परिचय

संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषाओं में से एक है और हिन्दू धर्म की शास्त्रीय भाषा के रूप में इसका विशेष महत्व है। यह भाषा हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों के ग्रंथों तथा अनुष्ठानों की पवित्र भाषा मानी जाती है। वर्तमान में यह भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित 22 अनुसूचित भाषाओं में सम्मिलित है तथा उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश राज्यों में द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है।

ऐतिहासिक महत्व

संस्कृत का इतिहास कम-से-कम 1500 ईसा पूर्व तक जाता है, जिसका प्रमाण ऋग्वेदसबसे प्राचीन वैदिक ग्रंथ की रचनाओं में मिलता है। ऋग्वेद में प्रयुक्त भाषा को वैदिक संस्कृत कहा जाता है, जो किसी भी ज्ञात इंडो-ईरानी भाषा का सबसे पुराना रूप है। यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भी एक अत्यंत प्राचीन सदस्य है, जिसमें अंग्रेज़ी, जर्मन, लैटिन, यूनानी आदि भाषाएँ सम्मिलित हैं।

संस्कृत का शास्त्रीय काल लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रारम्भ होता है, जब प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने अपनी व्याकरणिक कृति अष्टाध्यायी की रचना की। इस ग्रंथ के माध्यम से उन्होंने संस्कृत भाषा को एक अत्यंत सुनियोजित, शुद्ध और परिष्कृत रूप प्रदान किया। आज भी पाणिनि की व्याकरणिक प्रणाली संस्कृत व्याकरण का मूल आधार मानी जाती है।

भाषावैज्ञानिक महत्त्व

पाश्चात्य भाषाशास्त्र में संस्कृत को लैटिन और प्राचीन यूनानी के समकक्ष अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब ब्रिटिश विद्वान सर विलियम जोन्स ने संस्कृत का अध्ययन आरंभ किया, तब यह ज्ञात हुआ कि संस्कृत यूरोपीय भाषाओं के साथ एक ही भाषा परिवार से संबंधित है। इस खोज से इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार सिद्धांत का जन्म हुआ, जो आज आधुनिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान का एक प्रमुख स्तंभ है।

संस्कृत की अत्यंत सूक्ष्म, वैज्ञानिक एवं नियमित व्याकरणिक संरचना ने भाषाविज्ञान, तुलनात्मक भाषाशास्त्र और शब्दोत्पत्ति-विज्ञान में अमूल्य योगदान दिया है।

सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रभाव

संस्कृत साहित्य अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। इसमें काव्य, नाटक, दर्शन, विज्ञान, गणित, आयुर्वेद, न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र आदि विषयों पर विशाल ग्रंथ-संभार उपलब्ध है। कालिदास, पतञ्जलि और भर्तृहरि जैसे महान विद्वानों ने विश्वस्तरीय कृतियाँ रचीं।

संस्कृत का प्रभाव भारत की अनेक आधुनिक भाषाओं जैसे कि हिन्दी, बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भारत से बाहर भी संस्कृत का प्रभाव इंडोनेशिया, कंबोडिया, थाईलैण्ड और मलेशिया जैसे दक्षिण एशियाई देशों तक पहुँचा है, जहाँ के मंदिरों, अभिलेखों और सांस्कृतिक परम्पराओं में इसकी छाप विद्यमान है।

आधुनिक स्थिति

यद्यपि संस्कृत को सामान्यतः शास्त्रीय भाषा के रूप में जाना जाता है, तथापि भारत के अनेक परिवारों और व्यक्तियों में यह आज भी बोलचाल की भाषा के रूप में जीवित है। संस्कृत को प्रयोजनीय भाषा के रूप में पुनर्स्थापित करने के लिए अनेक सरकारी एवं स्वैच्छिक संस्थाएं सक्रिय रूप से प्रयासरत हैं। इनके सतत प्रयत्नों से संस्कृत बोलने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

हालाँकि, जनगणना के समय यह देखा गया है कि गणनाकर्मी प्रायः संस्कृत बोलने वाले व्यक्तियों की मातृभाषा के रूप में उनकी स्थानीय भाषा दर्ज कर देते हैं, जिसके कारण सरकारी आँकड़ों में संस्कृत भाषियों की संख्या वास्तविकता से बहुत कम दर्शायी जाती है। फिर भी संस्कृत आज भी भारत और विश्वभर में शैक्षणिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में जीवित है। इसी कारण इसे अजरा’ (जो कभी पुरानी नहीं होती) और अमरा’ (जो कभी नहीं मरती) भाषा कहा जाता है।

भारत सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से संस्कृत के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया जा रहा है। संस्कृत का अध्ययन विश्वविद्यालयों, गुरुकुलों और शोध संस्थानों में निरंतर चल रहा है। साथ ही, कंप्यूटर विज्ञान और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) जैसे आधुनिक क्षेत्रों में भी संस्कृत की व्याकरणिक प्रणाली पर शोध हो रहा है।


आगे पढ़ने हेतु संदर्भ ग्रंथ:

  • माइकल विटज़ेलVedic Sanskrit and the Indo-Aryan Languages, हार्वर्ड विश्वविद्यालय
  • फ्रैंकलिन एडगर्टनIntroduction to the Study of Sanskrit, पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय
  • सर विलियम जोन्सThe Third Anniversary Discourse, एशियाटिक सोसाइटी, 1786
  • मोनियर मोनियर-विलियम्सA Sanskrit-English Dictionary
  • थॉमस बरोThe Sanskrit Language
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आधुनिक संस्कृत गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग 11)

 चल पश्यामः

( रागः - इमनकल्याणम् । तालः-कहरवा )

टङ्ग टङ्ग टङ्ग टङ्ग घण्टी क्वति

शनैः सनाथो गजः प्रयाति ।

चीत्कुर्वन्तश्चपला बालाः

वदन्ति भो भोः, पश्यत, पश्यत,

गज आयाति,

गज आयाति ।।"

आराद् बुक्कत्ति कुक्कुरवर्गः

द्विरदो धीरं चलति सगर्वः ।

विना निदेशं निषादिनोऽसौ

शृणुते न कस्य वचनं जातु

यो यद् वदतु,

न शङ्कते तु ।।

यदा यदाऽऽधोरण आदिशते

तदा तदाज्ञां परिपालयते ।

दात्रे पवित्रदानं वितरत्याशीर्वादम्

पवित्रदानं परिगृह्णाति,

कृतीति हस्ती,

जनाः स्तुवन्ति ।।

ऐरावत-कुल-भूषणमेषः

बभूव वाहनमपि भूपस्य ।

अतिथिः क्व राजकुलस्य मान्यः

ग्रामे ग्रामे क्व याचकोऽद्य ।

स एव हन्त !

करिणी-कान्तः ।।

वटस्य विटपे कृतानुरागः

सलील-कवलं कुरुते नागः

कुथेन वहते पुनश्च भारम्

मध्ये मध्ये हस्तं तनुते ।

चपला बालाः

प्रपलायन्ते ॥

पिपासितः सन्निव सुविरक्तः

विगाहतेऽसौ जले स्वतन्त्रः ।

सुखेन खेलन् खलु मातङ्गः

कवलीकुरुते कमलस्तोमम्,

तडागमध्ये

भ्रामं भ्रामम् ॥

पुनरायाति स तटप्रदेशम्

वप्रक्रीड़ां कुरुतेऽशेषम् ।

वदन्ति लोका हन्त हन्त हा

मलिनीकुरुते पुनरपि देहम्,

गजमूर्खोऽयम्,

गजमूर्खोऽयम् ।।

तथापि लोके प्रशस्तिरस्ति

शुभङ्करोऽसौ सदैव हस्ती ।

वने समृद्धो नगरे भिक्षुः

युगे युगे दर्शनीय-धाम,

निसर्ग-रम्यः,

चल पश्यामः ॥


चल चल शकट

शकटं वदति कें कें।

छागो वदति में में

ओतुर्वदति म्याउँ म्याउँ

बालः क्रन्दति क्वाउँ क्वाउँ ।

काहलो वदति पें पें ।

चुल्ली ज्वलति सें सें ॥

शङ्खो ध्वनति भूँ भूँ।

वृद्धः कुरुते खूँ खूँ ।।

चटका वदति चिक् चिक् ।

घण्टा वदति टिक् टिक् ॥

समयो वदति कुरु स्वकर्म ।

अलसं पुरुषं धिक् धिक् ।।

चलत सखायो घण्टाऽऽह्वयति ।

विद्यालयं याम,

पठेम सकलं शास्त्रं तत्र ।

गानं वा करवाम ॥

कन्दुकखेलो वाऽस्तु ।

वयं क्रीडाम चाद्य,

वदन्ति "वीरा" इति ये सततम् ।

तेषां वारश्चाद्यः ॥

पठेम विद्यां भवेम कृतिनः

पुरुषा जगति श्रेष्ठा

जयं करिष्वामहे च बुद्ध्या

शिल्पक्षेत्रे कृषिकर्मणि वा,

कलासु शास्त्रे

अथवा शस्त्रे,

यथा हि पूर्वे ज्येष्ठाः

कर्मणि नोऽस्तु निष्ठा ।।

अनन्तगगने खगा रमन्ते

वने भ्रमन्ति व्याघ्राः ।

गभीरजलघौ मकरा मत्स्याः

खेलन्ति शुभ्रा यथा तरङ्गाः ।

वयं तु याम,

      तत्र खेलाम,

सन्तो नित्यमुदग्राः !

जागृत तरुण-व्याघ्राः ॥

वदन्ति सर्वे पुष्पकयानम्

पुराणसमय आसीत् ।

रोहाम एव तत् खलु यानम्

यामो नित्यं गगने नूनम् ।

वयं हि देवाः

वयं पिशाचाः,

यथा चरन्तः सकलं कर्म

सुरा वाऽसुराः स्याम ।।

परदेशे वा निजदेशे वा

गृहे बहि-र्वा स्याम।

पूतचरित्राः प्रभूतनिष्ठाः

स्वदेशपुत्राः सदा सुयोग्याः ।

भारतजननी

वीरप्रसविनी

वयमिव तनया धन्याः

पितरोऽस्माकं मान्याः ॥

अयं निजो नः परो वेति किं-

गणना नित्यं हेया ।

उदारमनसः सदा नमन्ति

नरा असंख्या विपुला पृथ्वी

इति भावयन्ति,

गुणैश्च भान्ति,

संस्कृतिरेवं ध्येया

भारतगीतिर्-गेया ।।

१०

चल चल शकट !

चल लघु यन्त्र !

डयस्व गगने यान !

विद्युत् ! चपलं दर्शय मार्गम्,

गृहे बहिश्च ज्वल नः ॥

११

चलनं मधुरं शिवं विभातु

सरणौ सरणौ कुसुमं पततु।

महतो वचनं गुरूणामाज्ञा

परम्पराया महासमज्ञा ।

सर्वं शिरसि हि धार्य्यम्

परं पश्य कुरु कार्यम् ॥


भवन्तु लोका मयि सन्तुष्टाः

चित्रपतङ्ग ! चित्रपतङ्ग !

भ्रातर्वद किं नाम तवैव ।

किं कुरुषेऽत्र किं ते कार्यम् ?

कुसुमात् कुसुमं यासि सहर्षम्

कथमुद्यानं रम्यम्,

 कृते तवास्ति सुमानि किम्बा

स्फुटन्ति वद हे सौम्य !


अहो वयस्य ! किं मे नाम्ना

किं मे पित्रोरथवा धाम्ना ।

सुमं ममास्ति प्रियमत्यन्तम्

स्वान्तःसुखाय भ्रमणं नित्यम् ।

हसामि हर्षं ललितवसन्ते

नाहं कस्यायत्तः,

परिचुम्वामि कुसुमं सकलम्

कर्मेतन्मे मित्र !


न जानासि किं चित्रपतङ्ग !

भान्ति समग्रा लता ममैव ।

अहं चिनोमि कुसुमानि मे

प्रभुत्वमित्थं कथं तवात्र !

पतत्रिजातिः किं वा वेत्ति

सुमस्य रुचिरं गन्धम् !

यदर्थमास्ते यदेव वस्तु

तदेव विभातु नित्यम् ।।


वदति पतत्री वितत्य पत्रम्

शृणु हे वन्धो ! पुनः शृणु त्वम् ।

गगने पवने वितते लोके

अधिकारस्ते यथा तथा मे,

उदारचेताश्चिन्तय चित्ते

पदं स्वकीयं सेव्यम् ।

यथा तव स्वगेहं सुखदम्

तथा वनं मे दिव्यम् ।।

 

वद हे वन्धो ! वनं यदीत्थम्

मनुषे निजस्य सुमानि च त्वम् ।

सुगन्धि-सेवा भवति यदा ते

किमस्ति शेषः कथय तदा मे,

 त्वं खलु रमसे यथा स्वतन्त्रः

तथा कामये नित्यम् ।

भवन्तु लोका मयि सन्तुष्टाः

दिश माऽऽदिशेति मित्र

 

कुरु मे वचनं सततं भ्रातः !

त्वमिष्टपाठे मनो नियुङक्ष्व ।

जगदारामे समं समस्तैः

हस प्रहर्षं प्रसूनवत्त्वम्,

तवाननश्रीः सकलैः काम्या

साधय साधय भद्रम् ।

शोभय जगदुद्यानं नितराम्

सुखं च भजस्व मित्र ! ॥


लभे प्रमोदम्

( रागः - शङ्कराभरणम्, तालः-कहरवा )

इदं रकेटं त्वरितं त्वरितम्

चलतितरां मे दूरदिगन्तम् ।

प्रयाति तरसा सरलीभूतम्

पुष्कर मध्ये न विरमतीदम्,

रमतेऽत्यर्थम्

हरते चित्तम् ।।

इदं सधूमं दृश्यत इव किम्

प्रयाति पारेपुष्करमिव किम् ।

प्रचलतु पुरतः पयोदमध्ये

मिलतु सलीलं घनघनै-स्तत्,

अथवा युद्ध

मध्ये मध्ये ।।

रुषीय - रकेट-मतिदूरस्थम्

अन्तरवर्त्ति तथा ममेदम् ।

हे प्रिय रकेट ! मम लघुगामि

प्रयाहि शीघ्रं महान्तरीक्षम्,

अहमपि यामि

मुदा भ्रमामि ।।

कुमुदवान्धबो निवसति यत्र

प्रयाहि हे मम रकेट ! तत्र ।

प्रतीक्षते मे स चन्द्रमामः

हृदाऽऽलिङ्गितुम् अनुरक्तेन,

प्रसन्नवदनः

कुरङ्गचिह्नः ॥

त्वया गृहीतं विनोदवृत्तम्

ततोऽनुयाति त्वा मम चित्तम् ।

याहि याहि तत् चन्द्रमण्डलम्

प्रेम निवेदय मनसोऽपारम्,

स्मारं स्मारम्

शुभसम्भारम् ।।

वयमिच्छामश्चिर – सौहार्द्दम्

चन्द्रमाम हे नय नो हार्द्दम् ।

दृढीभवतु नः प्रियतावन्धः

रुचिरतरोऽस्तु गतिप्रवन्धः;

त्वं मम मामः

मातुर्मामः,

पितुरपि मामः

सार्वजनीनः ॥

रकेटयानं मामकमिष्टम्

दर्शं दर्शं लभे प्रमोदम् ।

स्वदेशमानं वहमानस्त्वम्

बहुमानं नो लभमानस्त्वम्,

कुरुष्व हर्षम्

सुख-प्रवेशम् ।।

यथायि रकेट ! दूरतरं ते

लक्ष्यं तथाऽस्ति ममापि कृत्ये ।

चलेन मनसा शपेऽहमद्य

पदवीं लप्स्ये सतीमवश्यम्,

करवै वश्यम्

जगत्यशेषम् ॥

चन्द्र ! त्वमेव वरेण्यमामः

सकल-शिशूनां भवसि हि काम्यः ।

समेधतां नः प्रियता-वन्धः

प्रसरतु लोके प्रेम - सुगन्धः,

रकेटमेवम्

उपैतु भव्यम् ।।

१०

मूर्त्तः प्रणयोऽमृत एवास्तु

मम संदेश-श्चिरं शमेतु ।

चलतु रकेटं सत्वरमेवम्

लभतां चित्तं मम संयोगम्,

भवतु स्वर्ग्यम्

सकलैर्भाग्यम् ।।


अयि मे मातर्वसुन्धरे

 

अयि भारतजननि ! विश्वविजयिनि !

वन्दे चरणं, वन्दे चरणम्,

वन्दे तव चरणाब्जम् ।

तव पुण्यरजो मम चन्दनमिष्टम्

चकास्तु तनौ हि नित्यम् ॥

भारतवर्षं तनुते हर्षं

हृदये मे चिरमत्र,

जलपवनै – र्मम जीवनमस्ति

अन्नमद्भिः ते करोमि प्रणतिम् ।

त्वदन्तरीक्षं शोभनमस्ति

कुर्वे ततः प्रशस्तिम् ।।

भारतवर्षं पुण्यभूमिः

जन्मभूमि हि कर्मभूमिः ।

तनयास्तस्या वयं हि सर्वे

तदुत्सङ्गके निवासिनो ये ।

वयं नायका वयं भावुकाः

कर्मकराः स्मोऽध्यसायिनश्च

देशाय सततं यतामहे ॥

वयं शासका वयं च कृषिकाः

स्वदेश-मातुः सदा रक्षकाः ।

माऽस्तु कश्चिद् दुःखी पापी

यथाहमस्मि स तथास्तु सुखी

वयं हि भारतपुत्राः ।

हृदये वचने कर्मणि नित्यं

भवेम साधुचरित्रा ।।

सेयं जननी मातृभूमिः

सेयं जननी पुण्यभूमिः,

सेयं जननी दिव्या वसुधा

सेयं ममैव कर्मभूमिः,

धर्मभूमिश्च स्वर्गभूमिः ।

हासः खेलो यत्र क्रन्दन-

मधुना कथं नु प्रजहामि ?

अस्या धूलिः पुण्या

अस्याः सलिलं मधुरम् ।

अस्याः पवनः सेव्यः

अस्या गीतं गेयम् ।

तृणं लता वा पुष्पं यत् तत्

चकास्तु चिरमवधेयम् ।।

अस्यां रूपं दृश्यम्

अस्यो गुण आदर्शः,

अस्या गन्धः पेयः

अस्याः स्पर्शः स्वर्गः,

इन्द्रिय-जातं भवतु मे शक्तम्

गृह्णातु हि तद् भोग्यम् ।।

अयि मे मातर्वसुन्धरे !

शृणु मे प्रियमाह्वानम्,

पूरय ममाभिलाषम्

प्रदेहि मे सन्तोषम् ।

सुखमैश्वर्यं शुभमश्रान्तम्

द्रदेहि मे चाशेषम् ।।

हे प्रजामयि ! हे पुण्यमयि !

शक्तिमत्यसि, शक्तिं मयि धेहि ।

कीर्त्तिमत्यसि, कीत्ति मयि धेहि !

बुद्धिमत्यसि, बुद्धिं मयि धेहि ।

शान्तिमत्यसि, शान्तिं मयि धेहि ।

हे कृपामयि ! हे सुधामयि !

त्वं मयि धेहि, त्वं मयि धेहि ॥


मातृवन्दनम्

( राग - खरहरप्रिया । तालः - कहरवा । )

नमामि मातस्तव चरणम्

जन-संहति - शुभफलदे !

भारतजननि ! विश्वविजयिनि !

ममतामयि ! वरदे !

शुभदे ! जननि ! संहति.... ।।

गङ्गा-यमुने वहतो नित्यम्

पाप-निवारणदक्षे !

तुङ्गहिमालय उन्नतमूर्धा

स्पर्धत इतरैः संख्ये ।

सततं बहुफलदे !

सुखदे ! जननि ! संहति.... ।।

तव उपवने विकसति पुष्पम्

तव वृक्षे कूजति पक्षी ।

तव चरणं सेवत उदधिः

वाञ्च्छति तव च समृद्धिम् ।

अयि भारतजननि ! वन्दे,

जननि ! संहति .... ।।

दीपज्योतिनित्यम्

शंसति नश्चिर - सत्यम् ।

निर्मलगगने चन्द्रः

वितरति नः खलु सौख्यम् ।

सर्वं चित्रं तनुते, जननि ! संहति .... ।।

प्रदीयतां नः श्रेयः

समर्ण्यतां नः प्रेयः

समेधतां नः कीर्त्तिः

प्रसरतु गुरुजने भक्तिः ।

तनुतां तव सुतभाग्यम्,

जननि ! संहति.... ।।

प्रसीद हे परमेश !

कुरुष्व तमसो नाशम् ।

प्रयच्छ जनता-शुभ-सुखदे !

जननि ! संहति .... ।।


साभार- रङ्गरुचिरम्

लेखकः- पण्डित दिगम्बर महापात्रः


इस ब्लॉग पेज पर दिगंबर महापात्र के प्रमुख गीत प्रस्तुत हैं। नीचे प्रत्येक गीत का संक्षिप्त सारांश दिया गया है, जो उनके काव्य-शैली, राग-ताल, और भाव को उजागर करता है। ये गीत प्रकृति, जीवन और सामाजिक दृश्यों को मधुर ढंग से चित्रित करते हैं।

१. चल पश्यामः (राग: इमन कल्याण, ताल: कहरवा)

यह गीत हाथी (गज) के विभिन्न रूपों और उसके जीवन को जीवंत रूप से वर्णित करता है। इसमें हाथी के धीमे कदमों पर घंटियों की ध्वनि, कुत्तों का भौंकना, बच्चों की उत्साहपूर्ण चीखें, और हाथी की गरिमा, स्वतंत्रता तथा मूर्खतापूर्ण व्यवहार का चित्रण है। गीत हाथी को राजा का वाहन, याचक, और प्रकृति का प्रिय प्राणी बताते हुए उसके शुभ प्रभाव को प्रशंसा करता है। सारांश: हाथी के माध्यम से जीवन की विविधता, गरिमा और सरलता का मधुर चित्रण, जो दर्शकों को प्रकृति के सौंदर्य की ओर आकर्षित करता है।

२. चल चल शकट

यह गीत ग्रामीण जीवन की ध्वनियों और बच्चों की क्रीड़ा को केंद्र में रखता है। शकट (गाड़ी), बकरी, बछड़े, बच्चे, काहल, चूल्हा, शंख, वृद्ध की खांसी आदि की ध्वनियों (कें कें, में में, म्यौं म्यौं, क्वौं क्वौं, पें पें, सें सें, भूं भूं, खूं खूं, चिक चिक, टिक टिक) का वर्णन करते हुए यह समय को कर्तव्य की याद दिलाता है। गीत बच्चों को विद्यालय की ओर प्रेरित करता है, जहाँ वे शास्त्र पढ़ें, गान करें या खेलें, और "वीरा" कहकर उनकी प्रशंसा करता है। सारांश: ग्रामीण जीवन की जीवंत ध्वनियों और बच्चों की उत्साहपूर्ण यात्रा का चित्रण, जो शिक्षा, क्रीड़ा और समय के सदुपयोग का संदेश देता है।

ये गीत दिगंबर महापात्र की सरलता और प्रकृति-प्रेम को दर्शाते हैं, जो आधुनिक संस्कृत साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

भवन्तु लोका मयि सन्तुष्टाः" का सारांश

यह श्लोक एक प्रार्थना है कि सभी लोग मुझ पर संतुष्ट हों, जो आत्म-शुद्धि और समाज के प्रति कर्तव्य की भावना को दर्शाता है। यह संदेश देता है कि जीवन में दूसरों की प्रसन्नता को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो वैदिक "लोकसंग्रह" सिद्धांत से प्रेरित है। आधुनिक संदर्भ में, यह नेताओं और शिक्षकों के लिए सकारात्मकता और समन्वय का पाठ है।

लभे प्रमोदम् (राग: शंकराभरण, ताल: कहरवा)

यह गीत एक रॉकेट की यात्रा और चंद्रमा तक की उड़ान का उत्साहपूर्ण वर्णन करता है। कवि रॉकेट को संबोधित करते हुए उसकी तीव्र गति, अंतरिक्ष में सौंदर्य, और चंद्रमा से प्रेम की अभिव्यक्ति करता है। रॉकेट को कुमुदवन (चंद्रमा) तक ले जाने और प्रियतम से मिलन की कामना के साथ, यह गीत देश का गर्व, वैज्ञानिक प्रगति, और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। सारांश: रॉकेट यात्रा के माध्यम से विज्ञान और प्रेम का मिश्रण, जो देशभक्ति और आनंद को बढ़ाता है।

अयि मे मातर्वसुन्धरे

यह गीत मातृभूमि (भारत) की वंदना और प्रशंसा करता है। कवि अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि को पुण्य, सुंदर, और जीवनदायिनी बताते हुए उसकी जल, वायु, और अंतरिक्ष की शोभा की स्तुति करता है। माता के रूप में भारत से शक्ति, बुद्धि, कीर्ति, और शांति की प्रार्थना की जाती है, जो देश के पुत्रों को कर्तव्य और सत्कर्म के लिए प्रेरित करती है। सारांश: मातृभूमि की महिमा और उसके संरक्षण के लिए समर्पण का भावपूर्ण आह्वान।

मातृवन्दनम् (राग: खरहरप्रिया, ताल: कहरवा)

यह गीत भारत माता की स्तुति और प्रार्थना का मधुर चित्रण है। गंगा-यमुना, हिमालय, फूल-पक्षियों से सजी प्रकृति, और चंद्रमा-तारों की शोभा को माता के आशीर्वाद से जोड़ा गया है। कवि माता से शुभता, सुख, कीर्ति, और अज्ञानता के नाश की कामना करता है, जो भक्तिपूर्ण भाव से ओतप्रोत है। सारांश: भारत माता की प्राकृतिक और आध्यात्मिक शोभा की वंदना, जो कल्याण की प्रार्थना करती है।

ये गीत दिगंबर महापात्र की रचनात्मकता और संस्कृत में आधुनिक भावनाओं (विज्ञान, देशभक्ति, प्रकृति) को पिरोने की क्षमता को दर्शाते हैं, जो "रंगरुचिरम्" से साभार लिए गए हैं।

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