वेद तथा आयुर्वेद

वेद विश्व-संस्कृति के आधार-स्तम्भ है। आदिकाल से ही वेद मानवजाति के लिए प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेदों में ज्ञान और

विज्ञान का अनन्त भण्डार विद्यमान है। अतएव मनु ने वेदों को सर्वज्ञानमय कहा है, अर्थात् वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान

और विज्ञान निहित है।1 आयुर्वेद शास्त्र की दृष्टि से वेदों का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि चारों वेदों में आयुर्वेद

के विभिन्न अंगों और उपांगों का यथास्थान विशद वर्णन हुआ है।

ऋग्वेद और आयुर्वेद- ऋग्वेद में आयुर्वेद के महत्वपूर्ण तथ्यों का यथास्थान विवेचन प्राप्त होता है। इसमें आयुर्वेद का

उद्देश्य वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ आदि, शरीर के विभिन्न अंग, विविध चिकित्साएँ, अग्नि-चिकित्सा,

जलचिकित्सा, वायुचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, हस्तस्पर्श-चिकित्सा, यज्ञचिकित्सा, कुस्वप्न-नाशन आदि का

विशिष्ट वर्णन प्राप्त होता है।

यजुर्वेद और आयुर्वेद- यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बद्ध निम्नलिखित विषयों की सामग्री प्राप्त होती है:- वैद्य के गुण-कर्म

विभिन्न औषधियों के नाम आदि शरीर के विभिन्न अंग, चिकित्सा, दीर्घायुष्य नीरोगता, तेज, वर्चस्, बल, अग्नि और जल

के गुण-कर्म आदि।

सामवेद और आयुर्वेद- सामवेद में आयुर्वेद-विषयक सामग्री अत्यन्त न्यून है। इसमें आयुर्वेद से सम्बद्ध कुछ मंत्र निम्नलिखित विषयों के प्रतिपादक हैंः-वैद्य, चिकित्सा, दीर्घायुष्य, तेज, ज्योति, बल, शक्ति आदि।

अथर्ववेद और आयुर्वेद- आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है। इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी अंगों और

उपांगों का विस्तृत वर्णन मिलता है। अथर्ववेद, आयुर्वेद का मूल आधार है।  इसमें आयुर्वेद से सम्बद्ध निम्नलिखित

विषयों का वर्णन प्राप्त होता है-भिषज् या वैद्य के गुण-कर्म, भैषज्य, शरीरांग, दीर्घायुष्य नीरोगता, तेज, वर्चस्, वशीकरण,

बाजीकरण, रोगनाशक विभिन्न मणियाँ, विविध औषधियों के नाम और गुण-धर्म रोगनाम एवं चिकित्सा, कृमिनाशन, सूर्यचिकित्सा, जलचिकित्सा, विषचिकित्सा, पशुचिकित्सा, प्राण-चिकित्सा शल्य-चिकित्सा आदि।

अथर्ववेद में भी इस वेद को भेषज या भिषग्वेदनाम से पुकारा गया है। गोपथ ब्राह्मण में अथर्ववेद के मंत्रों को आयुर्वेद से

सम्बद्ध बताया गया है और अथर्वा का अर्थ भेषज किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को अथर्वा कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्राणविद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है1।

अथर्ववेद का एक नाम ब्रह्मवेद भी है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्म शब्द भी भेषज और भिषग्वेद का बोधक है जो

अथर्वा है, वह भेषज है, जो भेषज है, वह अमृत है, जो अमृत है, वह ब्रह्म है। अर्थात् भेषज और ब्रह्म शब्द समानार्थक

है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार अंगिरस का सम्बन्ध आयुर्वेद और शरीर विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात तत्वों का जिसमें

वर्णन किया जाता है वह अंगिरस है। अंगों से जो रस निकलता है, वह अंगरस है, उसी को अंगिरस् कहा जाता है।

गोपथ में अन्यत्र वर्णन है कि रस या रसायन-विज्ञान को अंगिरस् कहते हैं। 

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वेद का रचनाकाल तथा शाखायें

 विश्व की रचना दो वर्गों में वर्णित है। ‘‘नाम’’-वेदराशि शब्दात्मक ‘‘रूपं’’ अन्य समस्त विश्ववस्त्वात्मक अर्थ जगत्। एक पद, दूसरा अर्थ; यही अखिल विश्व है। वेद केवल शब्दराशि की नहीं है, अपितु-उस विशिष्ट आनुपूर्वीयुक्त शब्द समूह से जो अन्तर्हित ज्ञान अभिव्यक्त होता है, वेद का वास्तविक यही स्वरूप है। यही ईश्वरीय नित्य ज्ञान, ईश्वरीय प्रेरणा से अभिव्यंजक नित्य शब्दब्रह्म स्वरूप है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, जो किन्हीं नियत शब्दों द्वारा नियतकाल में भगवान की प्रेरणा से जीवात्माओं के सतत कल्याणार्थ अभिव्यक्त होता है।

वेदराशि अनन्त है ‘‘अनन्ता वै वेदाः’’ ऐसी श्रुति है। यह वेदराशि पूर्व (प्रारम्भ) काल में एक ही थी। भगवान वेदव्यास जी ने प्राणियों की मन्दमति का अनुभव कर, उस पूर्ण वेदराशि को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के रूप में चतुर्धा विभक्त किया है।

जिसको सर्वप्रथम क्रमशः (1) पैल (2) वैशम्पायन (3) जैमिनि और (4) सुमन्तु ने ग्रहण किया। इसीसे (वेदानविन्यास) वेद व्यास जी कहलाये। ‘‘चत्वारोवा इमेवेदा, ऋग्वेदो, यजुर्वेद, सामवेदो, ब्रह्मवेद।’’ ये वेद विभाग संहिता शब्द से ख्यात हैं। इस संहिता का प्रचलन त्रेतायुग में हुआ। ‘‘ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति’’ महा.शा.प. 1308 श्लो. गो.ग्रा. 2/16 ऋग्वेद पठनकाल में पैल के वाष्कल और शाकल दो शिष्य थे। जिन्होंने यथाक्रम स्ववेद को चार, पांच भागों में विभक्त किया। गृहीत यजुर्वेद केा वैशम्पायन जी ने अनेक शिष्यों को पढ़ाया; जिनमें एक याज्ञवल्क्य भी थे। किसी प्रकार गुरु-शिष्य विवाद के कारण याज्ञवल्क्य जी ने पढ़े हुए वेद का परित्याग कर दिया। उस समय वैशम्पायन जी एक अन्य शिष्यों ने तित्तिर (पक्षि) रूप धारण कर उसे धारण किया। यह वेदभाग कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता हुई। याज्ञवल्क्य जी ने सूर्योपदेश से वेद का अधिग्रहण किया वह शुक्लयजुर्वेद नाम से ख्यात है। जैमिनि गृहीत सामवेद पाठनान्त सहò नाम से विभक्त हुआ। उनमें पौष्य जी प्रभृति सहस्त्रों शिष्य हुए। वे औदीच्य कहलाए। गृहीत अथर्ववेद को सुमन्तु ने कवन्ध को उपदिष्ट किया। उनके वेददर्श और पत्य दो शिष्य हुए। उपर्युक्त वेद की चारों शाखाएं वेदत्रयी पद या त्रयी पद से वर्णित हैं। इन वेदों का यज्ञार्थ कर्म में साक्षात्संबन्ध है। ये चारों वेदभाग ही मंत्रसंहिता रूप हैं। वस्तुतः वेदराशि मंत्र ब्राह्मणात्मक ‘‘वेदनामधेय’’ है। महर्षि पतञ्जलि के मत से एक शतमध्वर्युशाखा सहस्त्रवर्त्मा सामवेदः एक विंशतिधा ऋग्वेद; नवधा आथर्वणो वेदः। 

ऋक् की 21 शाखाओं में से एक शाकल शाखा ही उपलब्ध है। यही ऋग्वेद के रूप में परिगणित है। यह 10 मण्डल 1028 सूक्तों में वर्णित है।

यजुर्वेद की 101 शाखायें हैं। चरण ब्यूह ग्रंथ में केवल 86 का ही उल्लेख है। इसकी आजकल 6 शाखा ही उपलब्ध हैं। यजुर्वेद के शुक्ल कृष्ण दो भेद हैं। कृष्णयजुर्वेद की काठक संहिता; कापिष्ठल संहिता; मैत्रायणी तथा तैत्तिरीय संहिता ये 4 प्राप्य हैं। शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनी संहिता, काण्वसंहिता ये दो उपलब्ध हैं। 

यज्ञ प्रक्रिया प्रतिपादन परक गद्यरूप वेदभाग यजुर्वेद में है। कृष्ण यजुर्वेद में तैत्तिरीय संहिता में अग्न्याधान प्रभृति; अग्निष्टोम; वाजपेयादि विविध यज्ञों की प्रक्रियायें हैं। ये सभी असाधारण ज्ञान कौशलपूर्ण हैं। जो साङ्गोपाङ्ग विस्तारपूर्ण पठन-पाठन से विस्मय में डाल देने वाली हैं।

शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के 40 अध्याय हैं। इनके प्रथम 25 अध्यायों में महत्वपूर्ण यज्ञ विधियां हैं, 26 से 35 तक अखिल संज्ञक हैं जिनको पूर्णकाध्याय प्राचीन परम्परा में कहा है। 36 से 39 में प्रबन्ध भाग हैं। 40वां ईशोपनिषद हैं। इन दोनों संहिताओं में कर्म और ज्ञान दोनों ही का विवरण है। यज्ञ-प्रसंग में अध्वर्यु यजुर्वेद का ही उपयुक्त माना गया। सामवेद की 1000 शाखाओं में से एक ही शाखा है। उसके 2 भाग हैं। (1) आर्चिक (2) उत्तरार्चिक। दोनों में ऋग्वेद की ही ऋचायें हैं। ऋक् संख्या 1800 में से 1549 ऋग्वेद में से हैं।



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पंचवटी की स्थापना कैसे करें? कहाँ लगायें? वृक्षों के मध्य दूरी कितनी हो?

 पंचवटीकी स्थापना एक आदर्श परिकल्पना है। पंचवटी का सुरम्य वातावरण गोष्ठी हेतु सबसे उपयुक्त स्थल होता है। यहाँ शीतल, पोषक तथा ताजी हवा मिलती है। सामाजिक स्वास्थ्य, विकास  में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।  पंचवटी के नीचे ग्राम सभा तथा इस प्रकार के आयोजन होते रहे हैं, जहाँ शून्य लागत से सभी के लिए छाया तथा प्राणवायु मिलता है। इसे प्रत्येक ग्राम तथा ऐसे स्थान पर स्थापित करना चाहिए, जहाँ पर्याप्त समतल भूमि उपलब्ध हो। सार्वजनिक स्थलों यथा शिक्षण संस्थानों, विकास भवन, रेल प्लेटफार्म के बाहर, मंदिरों तथा उपासना स्थलों के पास लगाया जाय।

पंचवटी कैसे लगायें ?

 पुराण में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन दिया गया है। प्रत्येक में पीपल, बेल, वट, आँवला व सीता अशोक (saraca indica) इन पाँच प्रजातियों की स्थापना विधि एक निश्चित दिशा, क्रम व अन्तर पर बतलाया गया है। पंचवटी सर्वप्रथम किसी समतल स्थान का चयन करना चाहिए। फिर केन्द्र से चारों दिशाओं में बीस-बीस हाथ (10-10 मीटर) पर निशान लगायें तथा पूरब एवं दक्षिण दिशा के मध्य अर्थात अग्नि कोण पर भी बीस हाथ (10 मी.) पर मध्य में एक निशान लगा लें। इन चिन्हित किये गये जगहों पर शीत ऋतु में 60 x 60 x 60 सेमी. का गड्ढा बना लें। फिर पाँच किलो प्रति गड्ढा के हिसाब से गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद डालकर प्रथम वर्षा के उपरान्त गड्ढा पाट दें। अब यह पौध रोपण हेतु पूरी तरह तैयार है।

वर्षा के दिनों में पूरब दिशा में पीपल,

दक्षिण दिशा में आँवला,

उत्तर दिशा में बेल,

पश्चिम दिशा में वट वृक्ष (बरगद) एवं अग्निकोण पर अशोक वृक्ष

का स्थापना पवित्र मन से करें।

रोपण का मुहुर्त-

निम्न मुहुर्त में वृक्षारोपण करना अत्यधिक फलदायी होता है।

शुक्लपक्षे तिथौ शस्ते शुक्रे चन्द्रगुरावपि । तरणा रोपणं शस्तं ध्रुवाक्षिप्रमृदूडुभिः ।। शुक्ल पक्ष के शुभ तिथियों में, शुक्र, चन्द्र तथा गुरु, इन दिनों में ध्रुव संज्ञक (तीनों उत्तरा, रोहिणी और शतभिषा), क्षिप्र संज्ञक नक्षत्र (अश्विनी, पुष्य और अभिजित), मृदु संज्ञक नक्षत्र (चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा और रेवती) इन नक्षत्रों में वृक्षों का रोपण करना शुभ फलदायक होता है।" इन वृक्षों की निराई-गुड़ाई व आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। पाँच वर्ष पश्चात् केन्द्र में चार हाथ लम्बा एवं चार हाथ चौड़ा (2 मी. x 2 मी.) वर्गाकार सुन्दर वेदी का निर्माण करना चाहिए। वेदी सभी ओर से समतल होना चाहिए एवं चारों दिशाओं में इसका मुख होना चाहिए।

वृहद् पंचवटी

यदि अधिक जगह उपलब्ध हो तो वृहद् पंचवटी की स्थापना करें। पौधों का रोपण विधि उपरोक्तानुसार ही होगा। परन्तु इसका परिकल्पना वस्तुतः वृत्ताकार है। सुन्दर वेदी की स्थापना पूर्ववत् ही होगा। सर्वप्रथम केन्द्र से चारों तरफ 5 मी. त्रिज्या, 10 मी. त्रिज्या, 20 मी. त्रिज्या, 25 मी. एवं तीस मीटर त्रिज्या का पाँच वृत (परिधि) बनायें।

अन्दर के प्रथम 5 मी. त्रिज्या के वृत पर चारों दिशाओं में चार वेल के वृक्ष की स्थापना करें।

इसके बाद 10 मी. त्रिज्या के द्वितीय वृत्त पर चारों कोनों में चार बरगद का वृक्ष स्थापित करें।

20 मी. त्रिज्या के तृतीय वृत्त की परिधि पर समान दूरी पर (लगभग 5 मी.) के अन्तराल पर 25 अशोक के करें।

 25 मी. त्रिज्या के चतुर्थ वृत की परिधि पर दक्षिण दिशा के लम्ब वृक्ष का रोपण से पाँच-पाँच मीटर पर दोनों तरफ दक्षिण दिशा में आँवला के दो वृक्ष चित्रानुसार स्थापित करने का विधान है।

आँवला के दो वृक्षों की परस्पर दूरी 10 मी. रहेगी। पाँचवे व अन्तिम 30 मी. त्रिज्या के वृत के परिधि पर चारों दिशाओं में पीपल के चार वृक्ष का रोपण करें। इस प्रकार कुल उन्तालिस (39) वृक्ष की स्थापना होगी। जिसमें चार वृक्ष बेल,

चार वृक्ष बगरद, 25 अशोक,दो वृक्ष आँवला एवं चार वृक्ष पीपल के होंगे।

वृहद् पंचवटी में वृक्षों की संख्या

बाहरी वृत्त पीपल = 4

दूसरा वृत्त-आंवला 2

तीसरा वृत्त-अशोक  = 25

चतुर्थ वृत्त- बरगद = 4

पंचम वृत्त- बेल = 4

योग = 39

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श्री रघुनाथ-शिरोमणिः

   तार्किकशिरोमणिः कल्पनाधिनाथः श्रीरघुनाथः आसीद् बङ्गलादेशनिवासी बङ्गाली ब्राह्मणः । अस्य पितुः शरीरान्तः बाल्यकाले एव जातः इति श्रूयते ।

  एकस्मिन् दिने अयं श्रीशिरोमणिः स्वीयमातुरादेशानुसारं  वह्निमानेतुकामः समीपस्थां  विशालां  पाकशालां  गतवान् । बुद्धिवैभवसम्पन्नः  बालकः  रघुनाथः सरलस्वभावमापन्नः सन् पात्रग्रहणम् अन्तरा एव अग्निं आनेतुम्  गतवान् । तत्र च महानैयायिकस्य सार्वभौमः पाह्व-श्रीवासुदेवस्य विशालां  भोजनशालां  सन्निरीक्ष्य प्रोवाच-मह्यम् अनलं  प्रदीयताम् इति ।

  तदानीन्तनकालावच्छिन्नं  पात्रविहीनं एनं  विचार्य सः अपहासम्  श्रीसार्वभौमशिष्याः  वदन्ति यत् अग्निं  गृहाण । विलक्षणलोकत्तरप्रतिभाशाली च अयं  श्रीरघुनाथः अविलम्बेन एव अधस्ताद् धूलिम् उत्थाप्य व्याजहार, दीयताम् अग्निः इति।

 इदं च समस्तम् अपि दृश्यदर्शनं  विदधान आसन् आसीनः श्रीसार्वभौमः तस्य बालकस्य अलौकिकीं  प्रतिभाम्  मनसा विचारन् बालकस्य अनुगमनं  चकार ।

  बालकस्य गृहगमनानन्तरं  श्रीसार्वभौमः तदीयाम्  मातरं  प्रत्युवाच-हे मातः ते अयं  बालकः च अस्ति महान् बुद्धिमान् प्रतिभावान् प्रत्युत्पन्नम् अतिमान् च इति मे मतिः । अयं च बालकः  महान् एव तार्किकः  भवितुम् अर्हति । यदि भवति इमं  बालकं  मह्यं  चेद् दद्याद् दास्यति वा इति । अयं च मत्तः सर्वम् अपि न्यायशास्त्रं  महान् तार्किकः  भविष्यति इति मे सुदृढः  विश्वासः ।

                       रघुनाथस्य माता सादरं  सविनयं च प्रोवाच -यदयन्तु च अस्ति मदीयः समुपकारः । ततः च तदानीम् एव बालकं आत्मना सह एव स्वगृहम् आनीतवान् महान् विद्वान् श्रीसार्वभौमः । तथा '' '' इत्यादिवर्णानाम् एव प्रारम्भिकीं  शिक्षां  प्रारब्धवान् ।

   प्रश्नः-एकस्मिन् दिने श्रीरघुनाथः स्वीयं  गुरुम्  श्रीसार्वभौमं  प्रति पृष्टवान् यद्- हे गुरः  ! अस्य एव अर्थात् ''

इत्यस्य एव नामधेयं  '' इति कथम् अस्ति कथम्  वा उच्यते ? '' इत्यस्य '' इत्यस्य वा नामकरणम्  '' इति कथम्  न कृतं इत्युच्यताम् ? 

                                                                                  २९

   उत्तरं-श्रीसार्वभौमः समुत्तरयति-'' इति  च अस्ति ब्रह्मा । ब्रह्मा एव च सृष्टेः सर्वतः प्राक् समुत्पन्नः  जातः ।

अतः  एव ब्रह्मा इत्यस्य स्थानीयः '' एव सर्ववर्णेषु '' इति नाम्ना प्रोच्यते 

एवम्भूतं  समाधानं  श्रावणप्रत्यक्षविषयीकृत्य बालकस्य महान् सन्तोषः  जातः तथा गौरवप्रयोज्यायाः गुरुभक्तेः श्रद्धायाः च वास्तविकं  गुरुवरं  श्रीसार्वभौमं  प्रति परमसंवर्धनं अभूत् ।

  तदनन्तरं च श्रीरघुनाथः  महानैयायिकः श्रीवासुदेवसार्वभौमस्य पार्श्वे सकलं  शास्त्रं  समधीत्य अन्ततः  गत्वा विशेषजिज्ञासानिवृत्तये आहोस्वित् परीक्षणम्  कर्तुकामः श्रीपक्षधरस्य महान्यायशास्त्रविदुषः सकाशम्  गतवान्  । श्रीरघुनाथः  एकाक्षिविहीनः 'काण' आसीत् इत्यपि विज्ञेयं ।

 तत्र स्वस्थानभूतं  प्रभूतं  स्वगृहं  समागतं  श्रीरघुनाथं  विलोक्य सर्वे अपि तत्रत्याः खलु अन्तेवसन्तः समुपहसितवन्तः कः  भवान् एकलोचनः इत्यादिना ।

  अर्थात्-

                'आखण्डलः सहस्त्राक्षः विरूपाक्षः त्रिलोचनः ।

                अन्ये द्विलोचनाः सर्वे कः  भवान् एकलोचनः' ।।

कल्पकः श्रीरघुनाथशिरोमणिः उत्तरं  दत्तवान्-

        'आखण्डलः सहस्त्राक्षः विरूपाक्षः त्रिलोचनः ।

        यूयं  विलोचनाः सर्वे अहं  न्यायैकलोचनः' ।।

'कः  भवानेकलोचनः' इत्यस्य अन्यत् अपि उत्तरं  दत्तवान् श्रीरघुनाथशिरोमणिः

   'विदुषां  निवहैरिहैकमत्या यत् अदुष्टं  निरटङ्किं  यत् च दुष्टम् ।

   मयि जल्पति कल्पनाधिनाथे रघुनाथे मनुताम्  तदन्यथा एव ।।

पुनः पक्षधरमिश्रः  ब्रूते-

     'वक्षः जपानकृत काण ! संशये जाग्रति स्फुटे ।

     सामान्यलक्षणा  कस्मात् अकस्मात् अपलप्यते  ।।

  याथार्थ्येन अस्य प्रश्नस्य उत्तरं  दत्तवान् श्रीशिरोमणिः -सामान्यलक्षणायाः

'अत्र वदन्ती'ति कल्पे । अत्र तदुल्लेखः लेखविस्तरभयात् नहि विधीयते ।

   अनुमितिग्रन्थे मङ्गलप्रकरणे सगर्वं  सर्वान् एव नैयायिकान् महानैयायिकान् वा निर्भर्त्सितवान् श्रीरघुनाथशिरोमणिः-

      न्यायमधीते  सर्वः तनुते कुतुकान् निबन्धम् अपि अत्र ।

     अस्य तु किमपि रहस्यं  केचन विज्ञातुमीशते  सुधियः ।।

  अस्य अर्थान्तरं अपि आह-हे सुधियः ! अस्य न्यायशास्त्रस्य किमपि रहस्यम्  केचन नैयायिकाः  विद्वांसः  विज्ञातुम् ईशते किमु ?

नव्यन्यायस्य मूलभूतग्रन्थस्य चिन्तामणौ श्रीरघुनाथशिरोमणेः च अस्ति 'दीधिति'  नाम्नी टीका । इमाम् एव टीकाम् आश्रित्य गादाधरी-टीका, जागदीशीटीकानाम् अपि निर्माणम्  जातम् ।

 नैतावन्मात्रमेव पर्याप्तम् अपि तु श्रीशिरोमणेष्टीका अन्यत्र अपि ग्रन्थान्तरेषु अपि सन्ति निर्माणमापन्नाः । यथा-चिन्तामणिग्रन्थे या अस्ति श्रीपक्षधरस्य 'आलोक' टीका तत्र अपि अस्ति श्रीशिरोमणेः 'दीधिति' नाम्नी टीका । इयम् च टीका मौलिकग्रन्थवत् वर्तते समानमाना इति ।

  एवम्  खण्डनखण्डखाद्यग्रन्थे कुसुमाञ्जलिग्रन्थे, तथा किरणावलिप्रभृतिषु ग्रन्थेषु अपि सन्ति सर्वथा सन्तोषम् आदधानाः टीका अनतिप्रकाशमाना इति ।

  अपि च अस्ति अस्य 'स्वतन्त्रपदार्थसङ्ग्रह' नामकः तावत् कः  ग्रन्थः, यस्मिन् ग्रन्थे अयम्  महानुभावः पृथक्त्वस्य गुणत्वम्  खण्डितवान् । तथा कालदिशोः द्रव्यत्वम्  निराकृतवात्, 'दिक्कालौ न ईश्वरात् अतिरिच्येते' इत्यादिना ।

  अपि च सामान्यलक्षणायाः, केवलान्वयिनः, केवलव्यतिरेकिणः, प्रागभावस्य, अभावविषयकबुद्धित्वावच्छिन्नं  प्रति प्रतियोगिज्ञानस्य कारणतायाः च खण्डनं  कृतवान्, इत्थम् च नानाविधानाम्  पदार्थानाम्  खण्डनम्  मण्डनम् च विहितवान् श्रीशिरोमणिः । एवम्  स्थिते इदम् एव निर्णीये यत् एवं विधं  खण्डनं  मण्डनञ्च विदधानः तथा स्वीयबुद्ध्या न्यायपदार्थकल्पनाम् आश्रित्य एव श्रीरघुनाथः 'शिरोमणि'  इति उपाधिभाजनभूतः अभूतः इति  मन्ये ।

  श्रीगङ्गेशोपाध्यायानन्तरम्  तार्किकनिष्ठमहत्त्वावच्छिन्नत्वेन प्रसिद्धिम्  लभमानः  नैयायिकशिरोमणिः खलु अयम् एव श्रीरघुनाथशिरोमणिः अभूत् इति स्वयम् एव विदाङ्कुर्वन्तु न्यायाम्भोधिभूताः प्रभूताः  विद्वांसः ।

  अस्य नैयायिकशिरोमणेः श्रीरघुनाथस्य जन्म १४७७ ईसवीये नदियाप्रान्ते बभूव । यः च नदियाप्रान्तः  नदिया, नदिया सान्ती पुरीप्रभृतिशब्दावल्यापि समुच्यमाना भवति, भवति स्म च ।

 अन्यत् च अपि-आरम्भवादभावेन भासमाने अस्मिन् संसारसागरे सततम्  पुनः अपि जननम्  पुनः अपि मरणम्  पुनः अपि जननीजठरे शयनम्' इति श्रीशङ्कराचार्योक्तन्यायेन जननमरणप्रबन्धाग्निना दन्दह्यमानानां  जनानाम्  पुनः आगतिशून्यम्  सर्वथा अशून्यमानन्दवनलक्षणलक्षितम्  द्वैतात्मकम्  मार्गम्  समुपदिष्टवान् दर्शितवान् च महानैयायिकशिरोमणिः श्रीशिरोमणिः ।

शशिबाला गौड़ कृत दर्शनशास्त्रस्येतिहासः से साभार

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आचार्य शंकर और उनका अद्वैतवाद

शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।

सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥

 

श्रुतिस्मृतिपुराणानाम् आलयं करुणालयम्।

नमामि भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम् ॥

 

सदाशिव-समारम्भां शङ्कराचार्यमध्यमाम्।

अस्मदाचार्य-पर्यन्तां वन्दे गुरु परम्पराम् ॥

 शंकराचार्य अलौकिक मेधा संपन्न व्यक्ति थे इनके असाधारण तर्क को देख कर आलोचक उनके सम्मुख  नतमस्तक हो जाते हैं। शंकराचार्य का जन्म केरल प्रांत के मालाबार क्षेत्र के कालडी नामक ग्राम में 788 ई. में नम्बूदरी ब्राह्मण के घर में हुआ। इनका जन्म के समय वैदिक वातावरण था, उससे इन्होंने उद्धार किया और जनमानस में वैदिक धर्म को स्थापित किया  वैदिक धर्म की संरक्षा के लिए उन्होंने चारों दिशाओं जोशी, श्रृंगेरी, द्वारिका और पुरी में संरक्षक के तौर पर चार मठों की स्थापना की। इस प्रकार के इनके अद्वितीय और मनीय कर्म को देखकर लोग कहते हैं कि आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के साक्षात अवतार है । शंकरो शंकरः साक्षात्। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में करते हैं जब जब अधर्म का नाश होता है तब मैं आविर्भाव लेता हूं भगवान शंकर स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में वैदिक धर्म के उद्धार के लिए अवतार लिए आप जानते होंगे यदि आचार्य शंकर नहीं होते तो ब्रह्म सूत्र का अर्थबोध भी नहीं हो पाता पूरा का पूरा ब्रह्मसूत्र संकेतात्मक है वह सूत्र रूप में है उसके प्रथम भाष्यकर्ता, प्रथम व्याख्याता शंकराचार्य हुए  शंकराचार्य का जन्म यद्यपि मालाबार केरल के क्षेत्र में हुआ परंतु कर्मक्षेत्र काशी रहा इनके दीक्षागुरु भगत्पा गोविंदाचार्य नर्मदा के ओंकारेश्वर के तट पर थे, जो कि मध्य प्रदेश में अवस्थित है शंकराचार्य केरल से चलकर नर्मदा के तट पर आए वहां पर गोविंदाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य भी थे । गोविंदाचार्य से उन्होंने शिक्षा पायी। आचार्य शंकर के बारे में एक श्लोक प्राप्त होता है-

            अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्‌ ।

            षोडशे कृतवान्‌ भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्‌ ॥

 अष्टवर्षे चतुर्वेदी- जब यह 8 वर्ष के थे तब यह चारों वेद तो जान चुके थे और 12 वर्ष में सभी शास्त्रों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त कर लिया था 16 वर्ष की अवस्था में इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और 32 वर्ष की अवस्था में प्रस्थान कर गए। इन्होंने कम समय में ही अनेक ग्रंथों की रचना की गीता का भाष्य, ब्रह्मसूत्र का भाष्य, विष्णु सहस्त्रनाम पर भाष्य, सनत्सुजातीय, सौंदर्यलहरी, उपदेशसाहस्त्री तथा विवेक चूड़ामणि ग्रंथ पर इन्होंने शांकर भाष्य लिखा इनकी रचनाशैली अद्वितीय है इनकी रचनाओं में अपूर्व साहित्य भी है सौंदर्य लहरी स्तोत्र काव्य का अनुपम उदाहरण है। सौंदर्य लहरी में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक के हजारों उदाहरण देखने को मिलते है  

शंकराचार्य जी के जीवन परिचय तथा कृतियों के संक्षिप्त परिचय कराने के बाद उनके सिद्धान्त की चर्चा की जा रही है।

शंकराचार्य का सिद्धांत - अद्वैतवाद

दर्शन के क्षेत्र में शंकराचार्य के पहले भारत में अद्वैतवाद का सिद्धांत रहा है माध्यमिकों का शून्यवाद, योगाचारों का विज्ञानाद्वैतवाद, शक्त्यद्वैतवाद, भर्तृहरि का शब्दाद्वैत अथवा विवर्तवाद शंकराचार्य के पहले से ही उपलब्ध था शंकराचार्य यह भी जानते थे कि बौद्धों का शून्यवाद अभी प्रचलित है इस विषय में एक श्लोक है, जिसमें बौद्धों के चारों मतों को प्रदर्शित किया गया है।-

मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत् ।

योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः ।।

अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकाः ।

प्रत्यक्षं क्षणभङगुरञ्च सकलं वैभाषिको भाषते ।।                                                                                          -सर्वदर्शन संग्रह, बौद्ध प्र० ।

इस श्लोक के 4 पदों में चार संप्रदाय हैं माध्यमिक आत्मा के कहता है कि कुछ भी नहीं है सब कुछ शून्य है । शून्य के अतिरिक्त और कोई तत्व इस संसार में नहीं है सब असत् है। वह यह नहीं समझा कि जब असत् है तभी सत् है और जब सत् है तभी असत् है प्रतियोगी के कहने से अनुयोगी स्वतः सिद्ध हो जाता है जब हम अभाव कहेंगे तो किस का अभाव? यहीं अपने आप सिद्ध हो जाएगा कि कोई वस्तु है,जिसके अभाव की चर्चा की जा रही है। वह कहते हैं शून्य है और परमार्थिक रूप से कुछ भी नहीं है, जबकि योगाचार्य कहते हैं कि नहीं विज्ञान है वह विज्ञान क्षणिक है और वह विज्ञान ही परमार्थिक सत् है और उसके अलावा कोई पदार्थ नहीं है उन्होंने थोड़ी से सत्ता तो मानी भले ही वह क्षणिक हो सौत्रान्तिक कहते हैं - अर्थ भी है। परन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं है वह अनुमान द्वारा जाना जा सकता है। प्रश्न यह है कि जब कोई पदार्थ प्रथम चरण में उत्पन्न और नष्ट हो जाएगा तब द्वितीय चरण में इंद्रिय जब जाएगी तो वह पदार्थ नष्ट होने के कारण नहीं दिखेगी। इस प्रकार सौत्रान्तिक नुमान के द्वारा पदार्थ की सिद्धि करते हैं इसके बाद वभाषिक कहता है कि वह प्रत्यक्ष भी है परंतु क्षणभंगुर है इस प्रकार बौद्ध के जो चार संप्रदाय हैं, वह शून्य से चलकर पूरे जगत तक आ जाए। जगत् की सत्ता स्वीकार करने लगे। शंकराचार्य इस बात को जानते थे कि इस प्रकार का अद्वैतवाद की स्थापना नहीं हो सकती। वे अद्वैतवाद के इस सिद्धांतों से परिचित थे। भर्तहरि का शब्दार्थवाद जो स्फोट के सिद्धांत को मानते हैं, वे शब्द को ही ब्रह्म मानते हैं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी ये 4 शब्द की स्थितियां हैं। इसमें  परा ब्रह्मा का रूप है अक्षरों की उत्पत्ति से लेकर संसार तक की उत्पत्ति उसी से होती है इन सिद्धांतों से अलग हटकर शंकराचार्य का अद्वैतवाद अभूतपूर्व और द्वितीय है शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवाद में उपनिषद्, गीता, ब्रह्मसूत्र इन तीनों का समन्वय करके जो एक अद्वैतवाद का प्रदर्शन किया वह समन्वयात्मक है वह तर्कपूर्ण और व्यावहारिक है वह वैदिक है वहां परमार्थिक सत्ता की स्वीकृति है इस प्रकार वह वैदिक, व्यवहारिक और समन्वयत्मकता लिये है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद पूर्व के अद्वैतवाद से अलग हुआ जबसे शंकराचार्य का अद्वैतवाद स्थापित हुआ, तभी से सभी विचारों का कंठाहार गया आज शंकर के अद्वैतवाद पर जितने ग्रंथों की उपस्थिति है, उतनी अन्य दर्शनों की समृद्धि नहीं है। शंकराचार्य के अद्वैतवाद की तरह अन्य दार्शनिकों का सिद्धांत प्रचलित नहीं हुआ अद्वैत का अर्थ होता है एक अखंड ब्रह्म उनके विचार तत्व में ब्रह्म ही अखंड तत्व है, उसी की परमसत्ता है वही परमार्थिक सत् है संसार है परंतु वह सत् नहीं है । अब प्रश्न उठता है कि उस ब्रह्म का स्वरूप क्या है? उसके लिए तैत्तिरीय उपनिषद में कहा - सत्यम् ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म वह ब्रह्म सत्य ज्ञान स्वरूप है और अनंत है अनंत का अर्थ है उसका कोई अंत ही नहीं है जब उसका अंत होगा तभी आदि हो सकेगा यहां पर आदि और अनादि की चर्चा नहीं होती यहां 3 शब्द हैं। इनमें बीच का जो ज्ञान शब्द है, उस पर थोड़ा ध्यान दिया जाए ब्रह्म को किसी ने देखा नहीं है इसीलिए ज्ञान पर चर्चा हो यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है, जो निर्गुण, निर्विकार और अखंड रूप है उस ब्रह्म का स्वरूप क्या है? उस स्वरूप को बताने वाला सत् ज्ञान है और अनंत है ज्ञान सभी जीव जंतुओं को होता है, सभी कोई अनुभूति करते हैं यह जगत की अनुभूति है अर्थात ज्ञान हो रहा है यह ज्ञान किसको हो रहा है? इंद्रियों को? मन को? कहा, नहीं इंद्रियां जरा है इंद्रियों को ज्ञान नहीं होता है। यह इंद्रियाँ ज्ञान का आश्रय नहीं है जिसका आंख फूट गया हो वह यही कहेगा कि मैंने यह जाना गूंगा, बहरा भी अपने ज्ञान का अनुभव करता है मन को, बुद्धि को भी ज्ञान नहीं होता है ज्ञान का आश्रय आत्मा है आत्मा इन सभी से भिन्न है आत्मा जिसे चैतन्य कहा जाता है, उसी को ज्ञान होता है ज्ञान का आश्रय आत्मा है वही ज्ञाता है । ज्ञान हमेशा अपने आश्र में रहेगा हम लोग ज्ञान और ज्ञाता को जानते हैं यह ज्ञान और ज्ञाता दोनों नित्य है विषय का जो ज्ञान होता है वह अनित्य होता है सामने देखे जाने वाले वस्तुएं चित्तवृत्ति में अंकित हो जाती है यह जो ज्ञान है यह विषय ज्ञान है यदि स्थान परिवर्तन कर लिया जाए तो दूसरा विषय आ जाए एक विषय समाप्त होकर और दूसरा विषय आ जाता है विषय का जो ज्ञान होता है, वह अन्य होता है वृत्ति का ज्ञान अनित्य है । ज्ञान नित्य है यह संशय नहीं करना चाहिए कि ज्ञाता भी मर जाता है ज्ञाता आत्मा नहीं मरती।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।

आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता। तलवार आदि शस्त्र इसके अङ्गोंके टुकड़े नहीं कर सकते। अग्नि इसको जला नहीं सकता । जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।

यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न गलनेवाला, और न सूखनेवाला है, इसलिये यह नित्य है। सर्वगत है। सर्वव्यापी होने से स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारण से नया उत्पन्न नहीं हुआ है।

आत्मा सनातन है सनातन इसका धर्म है इसी ने धारण किया हुआ है यही आत्मा, यही ज्ञान, यही चैतन्य इस 11 इंद्रियों को धारण कर लिया है। धारण करके शरीर रूपी एक पिंजरे में बंद हो गया है पिंजरा बदलते रहता है, परन्तु आत्मा कहीं भी आता जाता नहीं है । प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य ईश्वर की सिद्धि करते हैं- क्षित्यंकुरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवत्। शंकराचार्य कते हैं -अनुमान प्रमाण के चक्कर में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा, ज्ञान, ब्रह्म स्वयं सिद्ध है हम उसे प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं उसे अनुमान से जानने की क्या आवश्यकता है? ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है वह आत्मा है, वह अजर अमर है यही तत्वमसि, अहम् ब्रह्मास्मि, तक पहुंचने के लिए हमको उपासना करने की आवश्यकता है

हम संसार में जीव और ब्रह्म को अलग-अलग देख रहे हैं वह दो न होकर एक ही है यहां जितने वस्तुएँ हैं यह वह सभी भ्रम नहीं है हम कार्य कारण भाव को जानते हैं प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है कारण के अतिरिक्त कार्य नहीं है ते कार्य है उसका कारण तिल है। यदि तिल नहीं हो तो तेल भी नहीं होगा। तेल का सांख्य यहां आकर रुक जाता है। जैसे मिट्टी अपने स्वरूप में परिवर्तन करके घड़ा बन जाता है. यह मिट्टी ही है जो विभिन्न आकारों में बदल गया है सभी वस्तुओं में एक सामान्य चीज मिट्टी है इस प्रकार यदि देखा जाए तो संसार के समस्त पदार्थों में पांच पदार्थ ही रहते हैं और यह रहना अर्थात् सत्ता के पीछे कारण रहता है वह कारण सत् है उसी परम सत् में कार्य और कारण निहित होते हैं इसी को विवर्त कहा जाता है सांप में रज्जू का भान की तरह। जब तक हम रस्सी को उलट पलट कर देख नहीं लेते हैं तब तक हमें सत् ज्ञान नहीं होता है इसी प्रकार जीवात्मा जैसे ब्रह्म रूप है, वैसे ही जीव जगत ब्रह्म रूप ही है यही अद्वैतवाद है ब्रह्म का एक तटस्थ लक्षण भी है वह तटस्थ लक्षण निर्गुण ब्रह्म का नहीं होगा वह सगुण ब्रह्म का होगा यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते... तद् ब्रह्म। जिस तत्व से इस संसार की उत्पत्ति होती है वह तटस्थ लक्षण है और सगुण ब्रह्म का लक्षण है जैसे सांप रहने पर ही रस्सी में सांप ही भ्रांति होगी यदि सांप होता ही नहीं तो रस्सी में सांप की भ्रांति ही नहीं होती जैसे सांप और रस्सी है, वैसे ही ईश्वर इस संसार को बनाया है जब ईश्वर को आनंद लीला करने की इच्छा होती है अर्थात् माया से युक्त होने की इच्छा होती है तब वह संसार की सृष्टि करता है


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