चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार


मुण्डन संस्कार के संदर्भ में वैदिक ऋचाओं, गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में मंत्र, विधि प्रयोग, समय निर्धारण के सम्बन्ध में व्यापक चर्चा मिलती है। पद्धतियों में इसका समावेश किया गया है। तदपि लोकाचार कुलाचार से अनेक भेद दिखाई्र देते हैं। अनेक कुलों में मनौती के आधार पर मुण्डन किये जाते हैं किन्तु मुहूर्त निर्णय के लिए सभी ज्योतिष का आधार प्रायः स्वीकार करते हैं। मुण्डन में विधि पूर्वक शास्त्रीय आचार केवल उपनयन कराने वाले कुलों में उसी समय किया जाता है जबकि शास्त्रीय विधान दूसरे वर्ष से बताया गया है यथा -
            प्राङ्‌वासवे सप्तमे वा सहोपनयनेन वा। (अश्वलायन)
            तृतीये वर्षे चौलं तु सर्वकामार्थसाधनम्‌।
            सम्बत्सरे तु चौलेन आयुष्यं ब्रह्मवर्चसम्‌। - वी. मि.
            पद्द्रचमे पशुकामस्य युग्मे वर्षे तु गर्हितम्‌
         निषिद्ध काल-गर्भिण्यां मातरि शिशोः क्षौर कर्म न कारयेत्‌-
इसके अतिरिक्त भी मुहूर्त निर्णय के समय-निषिद्ध काल को त्यागना चाहिए।

शिखा की व्यवस्था

मुण्डन संस्कार के कौल और शास्त्रीय आचार तो किये जाते हैं किन्तु शिखा रखने की प्रथा का प्रायः उच्चाटन होता जा रहा है। जबकि शिखा का वैज्ञानिक महत्त्व है और शास्त्राों में शिखाहीन होना गंभीर प्रायश्चित्त कोटि में आता है ङ्क
               शिखा छिन्दन्ति ये मोहात्‌ द्वेषादज्ञानतोऽपि वा।
               तप्तकृच्च्रेण शुध्यन्ति त्रायो वर्णा द्विजातयः-     लघुहारित

चूड़ाकरण का शास्त्रीय आधार था दीर्घायुष्य की प्राप्ति। सुश्रुत ने (जो विश्व के प्रथम शीर्षशल्य चिकित्सक थे) इस सम्बन्ध में बताया है कि -
(11) मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा तथा सन्धि का सन्निपात है वहीं रोमावर्त में अधिपति है। यहां पर तीव्र प्रहार होने पर तत्काल मृत्यु संभावित है। शिखा रखने से इस कोमलांग की रक्षा होती है।
         -मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात्‌       शिरासम्बन्धिसन्निपातो
            रोमावर्त्तोऽधिपतिस्तत्राापि सद्यो मरणम्‌-  सुश्रुत श. स्थान
विधि-विधान-गणेशार्चन अग्निस्थापन-पद्द्रचवारूणीहवन-नन्दी के बाद पिता केशों का संस्कार यथाविधि करके स्वयं मंत्रा पाठ करता हुआ केश कर्त्तन करता है और उनका गोमयपिन्ड में उत्सर्ग करता है पुनः दही उष्णोदक शीतोदक से केशों को भिगोता और छुरे को अभिमन्त्रिात करके नापित को वपन (मुण्डन) का आदेश देता है।
क्क यत्‌ क्षुरेण मज्जयता सुपेशसावप्त्वा वापयति केशाद्द्रिछन्धिशिरो माऽस्यायुः प्रमोषी॥1
क्क अक्षण्वं परिवप2
येना वपत्‌ सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्‌। तेन ब्रह्मणो वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथासत्‌॥3
येन भूरिश्चरा दिवंज्योक्‌ च पश्चाद्धि सूर्यम्‌। तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुलोक्याय स्वस्तये॥4
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