विवाह

विवाह संस्कार हिन्दू संस्कार पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार है। प्रायः सभी सम्प्रदायों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह शब्द का तात्पर्य मात्रा स्त्री-पुरुष के मैथुन सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है अपितु सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है। शास्त्रों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के अधिकारों के अयोग्य माना गया है-
अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः-वै.प्रा.
मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है-जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्‌ जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः-तै. सं. 6-3
गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम है -
            यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः
            तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।
            यस्मात्‌ त्रायोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्‌
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मा ज्येष्ठाश्रमो गृही। -मनुस्मृति (3)
विवाह अनुलोम रीति से ही करना चाहिए-प्रातिलोम्य विवाह सुखद नहीं होता अपितु परिणाम में कष्टकारी होता है-
      त्रायाण्यमानुलोम्यं स्यात्‌ प्रातिलोम्यं न विद्यते
      प्रातिलौम्येन यो याति न तस्मात्‌ पापकृत्तरः। द. स्म्‌. (9)
      अपत्नीको  नरो  भूप  कर्मयोग्यो    जायते।
      ब्राह्मणः क्षत्रिायो वापि वैश्यः शूद्रोऽपि वा नरः।

विवाह के प्रकार

प्राचीन काल से ही यौन सम्बन्धों में विविधता के वृत्त प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं अतः स्मृतियों ने इस प्रकार के विवाहों को आठ भागों में विभक्त कियाहै।
(1) ब्राह्म (2) दैव (3) आर्ष  (4) प्राजापत्य (5) आसुर (6) गान्धर्व (7) राक्षस (8) पैचाश।
इनमें प्रथम चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त की श्रेणी में रखे गये हैं। प्रथम चार में भी ब्राह्म विवाह सर्वोत्तम और समाज में प्रशंसनीय था शेष तरतम भाव से ग्राह्य थे। किन्तु दो सर्वथा अग्राह्य थे।
(1)  पैशाच-सोती रोती कन्या का बलात्‌ अपहरण।
(2)  राक्षस-अभिभावकों को मारपीट कर बलात्‌ छीनकर रोती बिलखती कन्या का अपहरण इस कोटि का निन्दनीय विवाह था।
 (3) गान्धर्व-जब कन्या और वर कामवश होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं तो ऐसा विवाह गान्धर्व विवाह होता है। म. स्मृति (3)
 (4) जिस विवाह में कन्या के पक्ष को यथेष्ट धन-सम्पत्ति देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्या से विवाह किया जाता है ऐसा विवाह आसुर संज्ञक है।
 (5) वर स्वयं प्र्रस्ताव करके कन्या के पिता से विवाह का निवेदन करता और सन्तानोत्पादन के लिए विवाह स्वीकार किया जाता। ऐसा विवाह प्राजापत्य कोटि का था।
 (6)  आर्ष विवाह में कन्या का पिता वर से यज्ञादि कर्म के लिए दो गो मिथुन प्राप्त करके धर्म कार्य सम्पन्न कर लेता था और उसके बदले में कन्यादान करता था।
(7) दैव
(8) ब्राह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय विधि मानी जाती है जिसमें कन्या का पिता योग्य वर को सब प्रकार सुसज्जित यथाशक्ति अलंकृत कन्या को गार्हस्थ्य जीवन की समस्त उपयोगी वस्तुओं के साथ समर्पित करता था।
               आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्‌
               आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः। मनु. (3)
सक्षेप में विवाह संस्था के उद्देश्य और उसके प्रकार का विवरण दिया गया है। विवाह के विविध-विधान के लिए देश-काल-प्रान्तभेद से पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार वैवाहिक संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए।
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