भारतीय मनीषियों ने जीवन की समग्र रचना के लिए आश्रम व्यवस्था की
स्थापना की। इसका मूल उद्येश्य मनुष्य को सहज ही पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति
कराना था। ब्रह्मचर्य काल में धर्म का अर्जन एवं गृहस्थ जीवन में अर्थ-काम का
उपभोग गीता के शब्दों में 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'' धर्म-नियंत्रित अर्थ और काम तभी संभव था जब प्रारंभ में ही धर्म-तत्वों से
मनुष्य दीक्षित हो जाय। इसके बाद जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए भी
यौवन काल में अभ्यस्त धर्म ही सहायक होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय और
आश्रम चतुष्टय में अन्योन्याश्रय प्रतीत होता है या दोनों आधाराधेय भाव से जुड़े
हैं।
उपनयन संस्कार का काल निर्धारण
पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष के पूर्व, क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष के पूर्व, और वैश्य का बारह वर्ष के पूर्व की अवस्था में किया जाता था।
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे
राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे। -मनुस्मृति 2 अ. 37
अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। ।
ब्राह्मण बालक के उपनयन संस्कार की अंतिम अवधि सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय कुमार की अंतिम अवधि बाइस वर्ष और वैश्य कुमार के उपनयन की अन्तिम अवधि चौबीस वर्ष की है ।
अत ऊर्ध्वं पतितसावित्रीका भवन्ति ।।पा-गृ२/५/३९।।
सत्रहवीं शताब्दी के निबन्धकारों ने परिस्थितियों के अनुरूप ब्राह्मण का 24 क्षत्रिय का 33 और वैश्य का 36 तक भी उपनयन स्वीकार कर लेते हैं। - बी.मि.भा. 1 (347)
नक्षत्र विचार :- क्षिप्र संज्ञक नक्षत्र (हस्त, अश्विनी, पुष्य), ध्रुव संज्ञक (तीनों उत्तरा और रोहिणी), आश्लेषा, चर संज्ञक (स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष), मूल, मृदुसंज्ञक (मृगशिरा, रेवती, चित्रा), तीनों पूर्वा, आर्द्रा नक्षत्रों में, रवि, बुध, गुरु, शुक्र और सोम वासरों में, २, ३, ५, ११, १२, १० तिथियों में, शुक्ल पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष के प्रथम विभाग में (प्रतिपदा से पंचमी तक), व्रतबन्ध शुभ होता है। अपराह्न (दोपहर बाद ) मे उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिए ।
सूर्य के दक्षिणायन होने पर (कर्क संक्रान्ति से धनु संक्रान्ति के अन्त तक ) व्रतबन्ध, देवप्रतिष्ठा, जलाशयप्रतिष्ठा, विवाह, अग्निहोत्र धारण, गृहप्रवेश, मुण्डन, राज्याभिषेक आदि कर्म शुभकारक नहीं होते । अतः सूर्य के दक्षिणायन में इन शुभ कार्यों का सम्पादन नहीं करना चाहिए ।
बाल्यावस्था, अस्तंगत एवं वृद्धावस्था का गुरु और शुक्र भी शुभफलदायक नहीं होता। अतः उपरोक्त संस्कारों में गुरु और शुक्र की शुभकारी स्थिति ही स्वीकारणीय है। उपनयन के लिए अपने पुरोहित से ग्रहों की अवस्था का विचार कराकर ही तिथि निर्धारित करें।
ग्रहों के शुभाशुभ भाव विचार:- व्रतबन्ध में लग्न से छठें, आठवें, भाव में शुक्र, गुरु, चन्द्रमा और लग्नेश अशुभ होते हैं। चंद्र और शुक्र बारहवें भाव में अशुभ होते हैं । साथ ही अशुभ ग्रह लग्न, अष्टम एवं पंचम भावों में अशुभ होते हैं ।
लग्नशुद्धि :- व्रतबन्ध काल में लग्न से ८, ६, १२ भावों को छोड़कर शेष भावों में शुभग्रह, ३, ६, ११ भावों में पाप ग्रह तथा लग्नस्थ पूर्ण चन्द्रमा वृष अथवा कर्क राशि में स्थित हो तब शुभ होता है।
वर्णानुसार ग्रह विचार :- जातक का वर्ण जान कर उनसे सम्बंधित ग्रह-स्वामी साथ ही वेद का भी विचार अवश्य करना चाहिए। ब्राह्मण वर्ण के स्वामी गुरु और शुक्र, क्षत्रियों के स्वामी सूर्य और भौम, वैश्यों के चन्द्रमा, शूद्रों के बुध और अंत्यजों (चण्डालिकों) के शनि हैं।
ऋग्वेद के स्वामी गुरु, यजुर्वेद के शुक्र, सामवेद के भौम और अथर्ववेद के स्वामी बुध होते हैं।
वेद शाखाओं के स्वामी ग्रहों के वार तथा लग्न के बलवान रहने पर व्रतबन्ध उत्तम होता है। वेदशाखा का स्वामी ग्रह, सूर्य, चंद्र और गुरु बलवान हो तो व्रतबन्ध शुभकारक होता है।
यदि गुरु या शुक्र शत्रुग्रह की राशि में हो, किसी ग्रह से पराजित हो अथवा अपनी नीच राशि में होकर स्थित हो तब ऐसी स्थिति में ब्रतबन्ध शुभफल प्रदाता नहीं हो सकता, बटुक वेद-शास्त्र की विधियों से अनभिज्ञ होता है। अतः आचार्य को ऐसे मुहूर्त में व्रतबन्ध को सम्पादित नहीं करना चाहिए। अशुभ मुहूर्त में संस्कार संपादित कराने वाला आचार्य दोष का भागी होता है।
विधि विधान-
उपनयन संस्कार से संबंधित प्रान्तीय और विभिन्न सम्प्रदायों के स्तर पर उपनयन पद्धतियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं तदनुसार उनका आश्रय लेकर संस्कारों का संयोजन सम्पादन करना चाहिए।
उपनयन संस्कार का काल निर्धारण
पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष के पूर्व, क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष के पूर्व, और वैश्य का बारह वर्ष के पूर्व की अवस्था में किया जाता था।
आषोडशाद्वर्षाद् ब्राह्मणस्यानतीतः
कालो भवति ।। पा-गृ२/५/३६।।
आद्वाविंशाद्
राजन्यस्य।।पा-गृ२/५/३७।।
आचतुर्विंशाद्
वैश्यस्य।।पा-गृ२/५/३८।।
तीव्र बुद्धि पाने की इच्छा से ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की
अवस्था में यह संस्कार करने का विधान है। ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे
राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे। -मनुस्मृति 2 अ. 37
अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। ।
ब्राह्मण बालक के उपनयन संस्कार की अंतिम अवधि सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय कुमार की अंतिम अवधि बाइस वर्ष और वैश्य कुमार के उपनयन की अन्तिम अवधि चौबीस वर्ष की है ।
आषोडशाद्वर्षाद् ब्राह्मणस्यानतीतः
कालो भवति ।। पा-गृ२/५/३६।।
आद्वाविंशाद्
राजन्यस्य।।पा-गृ२/५/३७।।
आचतुर्विंशाद्
वैश्यस्य।।पा-गृ२/५/३८।।
मनु ने मनुस्मृति में पारस्करादि गृह्यसूत्रों के सिद्धान्तों को इस प्रकार उल्लेख किया है-
आषोडशाद् ब्राह्मणस्य सावित्री
नातिवर्तते ।
आद्वाविंशेः क्षत्रबन्धोः
आचतुर्विंशतेर्विशः ।।मनु२।।
गृह्यसूत्रों के मत से ऊपर कही गयी अवधि के बाद वे पतितसावित्री वाले
हो जातें है ।अत ऊर्ध्वं पतितसावित्रीका भवन्ति ।।पा-गृ२/५/३९।।
नैनानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न
याजयेयुर्न चैभिर्व्यवहरेयुः ।।पा-गृ२/५/४०।।
कोई आचार्य व्रात्य प्रायश्चित् के बिना इन पतित सावित्री वालें
कुमारों का उपनयन-संस्कार न कराए। इन्हें वेदादि न पढाए, इनसे यज्ञादि न कराए और इन लोगों के साथ किसी तरह का व्यवहार न करे ।सत्रहवीं शताब्दी के निबन्धकारों ने परिस्थितियों के अनुरूप ब्राह्मण का 24 क्षत्रिय का 33 और वैश्य का 36 तक भी उपनयन स्वीकार कर लेते हैं। - बी.मि.भा. 1 (347)
नक्षत्र विचार :- क्षिप्र संज्ञक नक्षत्र (हस्त, अश्विनी, पुष्य), ध्रुव संज्ञक (तीनों उत्तरा और रोहिणी), आश्लेषा, चर संज्ञक (स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष), मूल, मृदुसंज्ञक (मृगशिरा, रेवती, चित्रा), तीनों पूर्वा, आर्द्रा नक्षत्रों में, रवि, बुध, गुरु, शुक्र और सोम वासरों में, २, ३, ५, ११, १२, १० तिथियों में, शुक्ल पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष के प्रथम विभाग में (प्रतिपदा से पंचमी तक), व्रतबन्ध शुभ होता है। अपराह्न (दोपहर बाद ) मे उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिए ।
सूर्य के दक्षिणायन होने पर (कर्क संक्रान्ति से धनु संक्रान्ति के अन्त तक ) व्रतबन्ध, देवप्रतिष्ठा, जलाशयप्रतिष्ठा, विवाह, अग्निहोत्र धारण, गृहप्रवेश, मुण्डन, राज्याभिषेक आदि कर्म शुभकारक नहीं होते । अतः सूर्य के दक्षिणायन में इन शुभ कार्यों का सम्पादन नहीं करना चाहिए ।
बाल्यावस्था, अस्तंगत एवं वृद्धावस्था का गुरु और शुक्र भी शुभफलदायक नहीं होता। अतः उपरोक्त संस्कारों में गुरु और शुक्र की शुभकारी स्थिति ही स्वीकारणीय है। उपनयन के लिए अपने पुरोहित से ग्रहों की अवस्था का विचार कराकर ही तिथि निर्धारित करें।
ग्रहों के शुभाशुभ भाव विचार:- व्रतबन्ध में लग्न से छठें, आठवें, भाव में शुक्र, गुरु, चन्द्रमा और लग्नेश अशुभ होते हैं। चंद्र और शुक्र बारहवें भाव में अशुभ होते हैं । साथ ही अशुभ ग्रह लग्न, अष्टम एवं पंचम भावों में अशुभ होते हैं ।
लग्नशुद्धि :- व्रतबन्ध काल में लग्न से ८, ६, १२ भावों को छोड़कर शेष भावों में शुभग्रह, ३, ६, ११ भावों में पाप ग्रह तथा लग्नस्थ पूर्ण चन्द्रमा वृष अथवा कर्क राशि में स्थित हो तब शुभ होता है।
वर्णानुसार ग्रह विचार :- जातक का वर्ण जान कर उनसे सम्बंधित ग्रह-स्वामी साथ ही वेद का भी विचार अवश्य करना चाहिए। ब्राह्मण वर्ण के स्वामी गुरु और शुक्र, क्षत्रियों के स्वामी सूर्य और भौम, वैश्यों के चन्द्रमा, शूद्रों के बुध और अंत्यजों (चण्डालिकों) के शनि हैं।
ऋग्वेद के स्वामी गुरु, यजुर्वेद के शुक्र, सामवेद के भौम और अथर्ववेद के स्वामी बुध होते हैं।
वेद शाखाओं के स्वामी ग्रहों के वार तथा लग्न के बलवान रहने पर व्रतबन्ध उत्तम होता है। वेदशाखा का स्वामी ग्रह, सूर्य, चंद्र और गुरु बलवान हो तो व्रतबन्ध शुभकारक होता है।
यदि गुरु या शुक्र शत्रुग्रह की राशि में हो, किसी ग्रह से पराजित हो अथवा अपनी नीच राशि में होकर स्थित हो तब ऐसी स्थिति में ब्रतबन्ध शुभफल प्रदाता नहीं हो सकता, बटुक वेद-शास्त्र की विधियों से अनभिज्ञ होता है। अतः आचार्य को ऐसे मुहूर्त में व्रतबन्ध को सम्पादित नहीं करना चाहिए। अशुभ मुहूर्त में संस्कार संपादित कराने वाला आचार्य दोष का भागी होता है।
वर्तमान युग में उपनयन संस्कार
प्रतीकात्मक रूप धारण करता जा रहा है। विरल परिवारों में यथाकाल विधि-व्यवस्था के
अनुरूप उपनयन संस्कार हो पाते हैं। एक ही दिन कुछ घण्टों में चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ और
केशान्त कर्म के साथ समावर्तन संस्कार की खानापूरी कर दी जाती है। बहुसंख्य
परिवारों में विवाह से पूर्व उपनयन संस्कार कराकर वैवाहिक संस्कार करा दिया जाता
है। यह अनुचित है।
यौवन के पदार्पण करने के पूर्व
किशोरावस्था में संस्कारित और दीक्षित करने का अनुष्ठान सार्वकालिक और विश्वजनीन
है। सभी सम्प्रदायों में किसी न किसी रूप में दीक्षा की पद्धति चलती है और उसके
लिए विशेष प्रकार के विधि विधानों के कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं। उपनयम
संस्कार के बाद वेदारम्भ करने का विधान किया गया है। इन विधि-विधानों के माध्यम से
संस्कारित व्यक्ति ही समाज में श्रेष्ठ नागरिक की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी
उद्देश्य से उपनयन संस्कार की परम्परा भारतीय मनीषा में स्थापित की थी।
'संस्कार का उद्देश्य' –
वास्तव में उपनयन संस्कार आचार्य के
समीप दीक्षा के लिए अभिभावक द्वारा पहुंचना ही इस संस्कार का उद्देश्य था। इसी लिए
इसके कर्मकाण्ड में कौपीन; मौद्जी, मृगचर्म और दण्ड धारण
करने का मंत्रों के साथ संयोजन है। उपनयन संस्कार का पूरा विवरण गृह्यसूत्रों और
स्मृतियों में मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता है, जो तीनों वर्णों के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई है। ब्राह्मण बालक मूंज
की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की मेखला
धारण करता है। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते हैं। ब्राह्मण ढाक या बेल का,
क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का दंड धारण करता है । वह यज्ञोपवीत
भी धारण करता है। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता है कि क्या वह वास्तव में अध्ययन
करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों
बातों का पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाते हैं। आचार्य कहता
है कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री
मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाते हैं।
इस संस्कार के बाद बालक "द्विज' कहलाता है, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा
जन्म समझा जाता है। ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते ),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता
है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा
वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में
जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता है।
वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट
अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का
परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधान करता है, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षा प्रदान करता है, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता
है।
आचार्यो दशसाहस्रं गायत्रीं
प्रजपेत्तहै के आदेश से उपनयन के पहले
आचार्य को पहले ससंकल्प १०००० गायत्री जप करके ही गायत्री-उपदेश के
आचार्यत्वाधिकार प्राप्त करना होता हैं। वस्त्रमवगुण्ठ्य उपदेशं माणवकाय दद्यात्
की आज्ञा से कोई सुन न सके इस तरह वेदिका के उत्तरी भाग में वस्त्र में आचार्य और
माणवक रहकर माणवक को सरहस्य (ऋषि छंद देवता के साथ) गायत्री प्रदान करते हैं। इसके
बाद बालक भिक्षा माँगता है, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में
प्राप्त भोजन वह गुरु को देता है और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन
शेष बचता है, उसे वह स्वयं खाता है।
सावित्री मंत्रधारी द्विज अपने ब्रह्मचारी वेष
में अपनी माता से पहली भिक्षा और फिर समाज के सभी वर्ग से भिक्षाटन करने का अभ्यास
इस संस्कार का वैशिष्ट्य है। इस व्यवस्था से ब्रह्मचारी को व्यष्टि से समष्टि और
परिवार से बृहत् समाज से जोड़ा जाता था, जिससे व्यक्ति अपनी सत्ता को समष्टि में समाहित करें
और अपनी विद्या बुद्धि शक्ति का प्रयोग समाज की सेवा के लिए करें।
यज्ञोपवीत संस्कार नाम से कोई
संस्कार नहीं होता। गृह्यसूत्रों में उपनयन संस्कार के साथ अथवा अन्य किसी
स्वतंत्र संस्कार के रुप में यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उपवीत सूत्र धारण करने का
कहीं कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है। वस्तुतः इसके नाम, यज्ञोपवीत, से ही व्यक्त है कि इसका सम्बन्ध यज्ञ
में यजमान के द्वारा धारण किये जाने वाले उत्तरीय से है, जो
कि गोभिल के अनुसार सूत्र, वस्र या कुशरज्जु कुछ भी हो सकता
है। कुश के यज्ञोपवीत (यज्ञोत्तरीय) के सम्बंध में देवल का कहना है कि इसे वस्र के
अभाव में धारण किया जा सकता है। आप० घ० सू० (2/2/4/22-23 ) का भी कहना है कि यज्ञ
कार्य उत्तरीय के साथ किया जाना चाहिए। उसके अभाव में केवल सूत्र से भी काम चलाया
जा सकता है।
किन्तु आधुनिक युग तक
आते-आते उपनयन संस्कार का रुप इतना बदल गया कि जनेऊ धारण करना ही उपनयन हो गया।
इससे सम्बद्ध वैदिक अनुष्ठान बिल्कुल पीछे छूट गये और यह एक परम्परा का अनुपालन
मात्र बन कर रह गया। उपनयन में यज्ञोपवीत के सूत्र धारण करने से ब्रतबंध का आरम्भ
हो जाता हैं, जिससे ब्रह्मचारी की पहचान और उसको धारण करने वाले
को अपनी दीक्षा संकल्प का सदा स्मरण रहे। सूत्र धारण कराकर उत्तरीय रखने की
अनिवार्यता बताई गई है।विधि विधान-
उपनयन संस्कार से संबंधित प्रान्तीय और विभिन्न सम्प्रदायों के स्तर पर उपनयन पद्धतियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं तदनुसार उनका आश्रय लेकर संस्कारों का संयोजन सम्पादन करना चाहिए।
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