संस्कार शब्द सम् पूर्वक कृ-धातु से घञ् प्रत्यय करके
निष्पन्न होता है। संस्कार शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। संस्कृत
वाङ्मय में इसका प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण
संबंधी शुद्धि, संस्करण, परिष्करण,
शोभा आभूषण, प्रभाव, स्वरूप,
स्वभाव, क्रिया, फलशक्ति,
शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि विधान, अभिषेक, विचार भावना, धारणा,
कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता आदि
व्यापक अर्थों में किया जाता है। अतः संस्कार शब्द अपने विशिष्ट अर्थ समूह को
व्यक्त करता और उक्त सम्पूर्ण अर्थ इस
शब्द में समाहित हो गये हैं। अतः संस्कार, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शुद्धि के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों का श्रेष्ठ
आचार है। इस अनुष्ठान प्रक्रिया से मनुष्य की बाह्याभ्यन्तर शुद्धि होती है जिससे
वह समाज का श्रेष्ठ आचारवान् नागरिक बन सके।
हिन्दू संस्कारों में अनेक वैचारिक और धार्मिक विधियां
सन्निविष्ट कर दी गयी हैं जिससे बाह्य परिष्कार के साथ ही व्यक्ति में सदाचार की
पूर्णता का भी विकास हो सके। सविधि संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में
विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता हैङ्क
आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो
विहित क्रियाजन्योऽतिशय विशेषः संस्कारः
वीर मित्रोदय पृ. 191
वीर मित्रोदय पृ. 191
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च म. स्मृ. 2/26
संस्कारों
की संख्या-
संस्कारों के शास्त्राीय प्रयोग के सम्बन्ध में गृह्यसूत्रों को ही
प्रमाण माना गया है। प्राचीन गृह्य सूत्रों में पारस्कर गृह्य सूत्र, अश्वलायन गृह्य सूत्र,बोधायन गृह्य सूत्र विशेष रूप
से प्रामाणिक रूप से संस्कारों के अनुष्ठानों का विवरण, महत्त्व
और मंत्राों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। इनके अतिरिक्त पुराण सहित्य और विभिन्न स्मृतियां
भी संस्कारों के आचार के संबंध तथा उनके महत्त्व का प्रतिपादन करती हैं। धर्म सूत्रों
और धर्मशास्त्राों में भी इनके समन्वित रूपों का प्रतिपादन किया गया है। विभिन्न
गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में संस्कारों की संखया में मतैक्य नहीं हैं तदपि
परवर्ती काल में संस्कारों की संखया का निर्धारण कर दिया गया। इन संस्कारों में
जन्मपूर्व सलेकर बाल्यकाल के 10 संस्कार और शेष 6 शैक्षणिक तथा अन्त्येष्टि पर्यन्त के संस्कार परिगणित हैं
1. गर्भाधान 2. पुंसवन
3. सीमन्तोन्नयन 4. जात कर्म
5. नामकरण 6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन 8. चूड़ाकरण
9. कर्णवेध 10. विद्यारम्भ
11. उपनयन 12. वेदारंभ
13. केशान्त 14. समावर्तन
15. विवाह 16. अन्त्येष्टि
कालक्रमानुसार प्राप्तभेद से अनुष्ठान पद्धतियों की रचना हो
गई है। श्री दयानन्द सरस्वती के अनुयायियों एवं अन्य मतावलम्बियों ने भी अपने सम्प्रदायानुसार
पद्धतियां बना ली हैं किन्तु देशज प्रक्रिया में भिन्नता रहते हुए भी शास्त्राीय
विधि और मंत्रा प्रयोग यथावत् मिलते हैं। अनेक संस्कार
काल वाह्य भी हो गये हैं तदपि उनकी कौल परम्परा अभी जीवित है। अतः इन संस्कारों का
संक्षिप्त रूप से विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दू संस्कारों के समय मुहूर्त
निर्धारण में ज्योतिष की भी मुखय भूमिका रहती है अतः प्रत्येक संस्कार के लिए
नक्षत्रा योग के अनुसार ज्योतिष शास्त्र में मुहूर्तों का निर्धारण कर दिया है प्रचलित पञ्चाङ्गों में चक्रानुक्रम से
उसका विवरण उपलब्ध रहता है। ज्योतिष के संक्षिप्त संकलन ग्रंथ भी इसमें सहायक हैं।
संस्कारों के मुहूर्तों से सम्बन्धित सारिणी भी संलग्न कर दी जा रही है जिसमें
संक्षेप में मुहूर्तों का विवरण है। मनु ने 'जन्मना जायते
शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते' कहकर संस्कार की महत्ता का
प्रतिपादन कर दिया है। संस्कार से ही द्विजत्व प्राप्त होता है। इसी वाक्य को आधार
मानकर आर्य समाज के अधिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सम्पूर्ण आर्य जाति को
संस्कार से द्विजत्व प्राप्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। षोडश संस्कारों के
सबंध में संक्षिप्त परिचय, शास्त्रीय विधान का विवरण दिया
जा रहा है। विशेष विवरण विभिन्न पद्धतियों से जानना चाहिये।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें