विधिपूर्वक
बालक को प्रथम भोजन कराने की प्रथा अत्यन्त प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में भी
एतत् सम्बन्धी मंत्र उपलब्ध होते हैं। माता के दूध से पोषित होने वाले बालक को
प्रथम बार अन्नप्राशन कराने का प्रचलन प्रायः प्राचीन काल से ही है जो एक विशेष
उत्सव के रूप में सम्पन्न किया जाता है।
जन्मतो मासि षष्ठे स्यात सौरेणोत्तममन्नदम्
तदभावेऽष्टमे मासे नवमे दशमेऽपि वा।
द्वादशे वापि कुर्वीत प्रथमान्नाशनं परम्
संवत्सरे वा सम्पूर्णे केचिदिच्छन्ति पण्डिताः॥ - नारद, वी.मि.
तदभावेऽष्टमे मासे नवमे दशमेऽपि वा।
द्वादशे वापि कुर्वीत प्रथमान्नाशनं परम्
संवत्सरे वा सम्पूर्णे केचिदिच्छन्ति पण्डिताः॥ - नारद, वी.मि.
षण्मासं चैनमन्नं प्राशयेल्लघु हितञ्च - सुश्रुत (शं. स्थान)
छठवें महीने बालक को लघु और हितकर अन्न खिलायें। धर्मशास्त्रों तथा चिकित्सा ग्रन्थों में अन्न प्राशन का विधान छठे मास में किया गया है, परन्तु
जब तक
बालक के दांत नहीं निकल जायें या पूर्ण रूप से दन्त न निकल पाएँ तब तक अन्न का प्राशन न किया जाय
अथवा बहुत थोड़ा किया जाय। शीघ्र अन्न देने से-शिशु का उदर बढ़ जाता है और अनेक रोग
होने की सम्भावना
होती हैं। बालक द्वारा एक बार अन्न खाना प्रारम्भ करने पर उसे रोकना अथवा थोड़ा खाने के लिये बाध्य करना बहुत ही कठिन है । अन्न प्राशन की सामान्य विधि करके जब पूर्ण
रूप से दांत निकल आवे तब अन्न खिलाना चाहिए।
विधि-विधान-अन्नप्राशन संस्कार के दिन सर्वप्रथम यज्ञीय भोजन
के पदार्थ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ पकाये जायें। भोजन विविध प्रकार के
हों तथा सुस्वादु हों। मधु-घृत-पायस से बालक को प्रथम कवल (ग्रास) दिया जाय।
पद्धतियों में एतत् संबंधी मंत्रा उपलब्ध हैं। गणेशार्चन करके व्याहृतियों से आहुति
देकर एतत् संबंधी ऋचाओं से हवन करके तत्पश्चात् बालक को मंत्रपाठ के साथ
अन्नप्राशन कराया जाय पुनः यथा लोकाचार उत्सव सम्पन्न किया जाय।
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