गर्भधारण का निश्चय हो जाने के पश्चात् शिशु को पुंसवन नामक
संस्कार के द्वारा अभिषिक्त किया जाता था। इसका अभिप्राय-पुं-पुमान् (पुरुष) का
सवन (जन्म हो)।
पुमान्
प्रसूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् - बीरमित्रोदय
गर्भधारण का निश्चय हो जाने के तीसरे मास से चतुर्थ मास तक इस
संस्कार का विधान बताया जाता है। अधिकांश स्मृतिकारों ने तीसरा माह ही गृहीत किया
है।
तृतीये
मासि कर्तव्यं गृष्टेरन्यत्रा शोभनम्।
गृष्टे चतुर्थमासे तु षष्ठे मासेऽथवाष्टये। -वीरमित्रोदय
गृष्टे चतुर्थमासे तु षष्ठे मासेऽथवाष्टये। -वीरमित्रोदय
यह संस्कार चन्द्रमा के पुरुष नक्षत्रा में स्थित होने पर करना
चाहिए। सामान्य गणेशार्चनादि करने के बाद गर्भिणी स्त्राी की नासिका के दाहिने
छिद्र मे गर्भ-पोषण संरक्षण के लिए लक्ष्मणा, बटशुङ्ग,
सहदेवी आदि औषधियों का रस छोड़ना चाहिए। सुश्रत नें सूत्र स्थान में
कहा है-
''सुलक्ष्मणा-वटशुङ्रग, सहदेवी
विश्वदेवानाभिमन्यतमम् क्षीरेणाभिद्युष्टय त्रिचतुरो वा विन्दून दद्यात्
दक्षिणे-नासापुटे''-सुश्रत संहिता।
उपर्युक्त प्रक्रिया से जाहिर है कि इस संस्कार में वैज्ञानिक
विधि का आश्रय है जिससे शिशु की पूर्णता प्राप्त हो और सर्वाङ्ग रक्षा हो।
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