समावर्त्तन का अर्थ है विद्याध्ययन प्राप्त कर ब्रह्मचारी युवक
का गुरुकुल से घर की ओर प्रत्यावर्त्तन।
तत्र समावर्त्तनं नाम वेदाध्यनानन्तरं गुरुकुलात् स्वगृहागमनम्- वीर मित्रोदय
विष्णुस्मृति के अनुसार-कुब्ज, वामन,
जन्मान्ध, बधिर, पंगु
तथा रोगियों को यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में रहने की व्यवस्था है-
कुब्जवामनजात्यन्धक्लीब
पङ्वार्त रोगिणाम्
व्रतचर्या भवेत्तेषां यावज्जीवमनंशतः।
व्रतचर्या भवेत्तेषां यावज्जीवमनंशतः।
समावर्त्तन संस्कार गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देता है।
उपनयन संस्कार से प्रारंभ होने वाली शिक्षा की पूर्णता के बाद ब्रह्मचर्य का कठोर
जीवन व्यतीत करने वाले संस्कारित युवक को इस संस्कार के माध्यम से गार्हस्थ्य जीवन
जीने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे संस्कारित युवक की स्नातक संज्ञा थी। स्नातक तीन
प्रकार के होते थे
(1) विद्या स्नातक
(2) व्रत
स्नातक
(3) विद्याव्रत स्नातक।
इनमें तीसरे प्रकार के स्नातक
को ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकार मिलता था। क्योंकि ऐसा ही ब्रह्मचारी
विद्या की पूर्णता के साथ ब्रह्मचर्य्य व्रत की भी पूर्णता प्राप्त कर लेता था।
वर्तमान काल में भले 10-12 वर्ष के बालक का उपनयन संस्कार
कर तत्काल समावर्त्तन का अधिकारी बना दिया जाताᅠहै।
आश्रमहीन रहना दोषपूर्ण होता है अतः समावर्त्तन के बाद गृहस्थ
बनना अथ च दारपरिग्रह अपरिहार्य है, अन्यथा
प्रायश्चित्त होता है।
अनाश्रमी
न तिष्ठेच्च ᅠ क्षणमेकमपि
द्विजः।
आश्रमेण विना तिष्ठन् प्रायश्चित्तीयते हि सः॥ दक्षस्मृति (10)
आश्रमेण विना तिष्ठन् प्रायश्चित्तीयते हि सः॥ दक्षस्मृति (10)
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समावर्त्तन संस्कार अति
महत्वपूर्ण आचार प्रक्रिया थी जिससे संस्कारित और दीक्षित होकर युवक एक श्रेष्ठ
गृहस्थ की योग्यता प्राप्त करता था। वर्तमान काल में उपनयन संस्कार के साथ ही कुछ
घंटों में इसकी भी खानापूरी कर दी जाती है। इसके विधि विधान का विवरण उपनयन
पद्धतियों से यथा प्राप्त सम्पन्न कराना चाहिए।
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