आचारादर्शादि ग्रन्थों में लिखा है कि घर में अमावस्या,
पितृपक्ष, विशेष तिथि श्राद्ध के दिन तिल से तर्पण करें। किन्तु अन्य
दिनों में घर में तिल से तर्पण न करें।
तर्पण का फल सूर्योदय से आधे पहर तक अमृत एक पहर तक मधु,
डेढ़ पहर तक दूध और साढ़े तीन पहर तक जल रूप से पितरों को
प्राप्त होता है। इसके उपरान्त का दिया हुआ जल राक्षसों को प्राप्त होता है।
अग्रैस्तु तर्पयेद्देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।
पितृंस्तु कुशमूलाग्रैर्विधिः कौशो यथाक्रमम्॥
कुशा के अग्र भाग से देवताओं का, मध्य भाग से मनुष्यों का और मूल अग्र भाग से पितरों का
तर्पण करें।
भाद्र पद शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक का समय
पितृ पक्ष कहलाता हैं। इस पक्ष में अपने पितरों के लिए श्राद्ध तथा तर्पण कर्म
किये जाते हैं। जिस ‘मृत व्यक्ति’ के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो
जायें,
उसी की ‘पितर’ संज्ञा हो जाती है।
साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा
हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव
रखता है,
उस व्यक्ति का स्नेहवश तर्पण कर सकता है।
विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का तर्पण कर
सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी तर्पण कर सकता है।
भोजन के लिए जो हविष्यान्न घर में पकाया जाता है उसी से बलिवैश्वदेव करना
चाहिए।
यदि पकाया अन्न सुलभ न हो तो साग,
पत्ता, फल-फूल से यदि यह भी उपलब्ध न हो तो जल से ही
बलिवैश्वदेव करना चाहिए। (वीरमित्रोदय, आ.प्र./शंखलिखित)
कोदो,
चना, उड़द, मसूर, कुल्थी ये अन्न निषिद्ध हैं। (स्मृत्यन्तर)
तर्पण में सोना, चांदी, तांबा अथवा कांसे का पात्र होना चाहिये मिट्टी का नहीं।
देवताओं को एक-एक, मनुष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अञ्जलि जल देना
चाहिये।
स्त्रियों में माता, पितामही, और प्रपितामही आदि को तीन-तीन,
सौतेली मां और आचार्य-पत्नी को दो-दो तथा अन्य सब स्त्रियों
को एक-एक अञ्जलि जल देना चाहिये।
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