आभूषण पहनने के लिए विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा संपूर्ण
संसार की असभ्य तथा अर्द्धसभ्य जातियों में प्रचलित है। अतः इसका उद्भव अति
प्राचीन काल में ही हुआ होगा। - हिन्दू संस्कार पू. 129
आभूषण धारण और वैज्ञानिक रूप से कर्ण छेदन का महत्त्व होने के
कारण इस प्रक्रिया को संस्कार रूप में स्वीकारा गया होगा। कात्यायन सूत्रों में ही
इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। सुश्रुत ने इसके वैज्ञानिक पक्ष में कहा है कि
कर्ण छेद करने से अण्डकोष वृद्धि, अन्त्र वृद्धि आदि का
निरोध होता है अतः जीवन के आरंभ में ही इस क्रिया को वैद्य द्वारा सम्पादित किया
जाना चाहिए।
शङ्खो
परि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीयम्
व्यत्यासाद्वा शिरां विध्येद् अन्त्राबृद्धि निवृत्तये-सुश्रुत चि. स्थान
व्यत्यासाद्वा शिरां विध्येद् अन्त्राबृद्धि निवृत्तये-सुश्रुत चि. स्थान
भिषग् वामहस्तेन-विध्येत्-सुश्रुत संहिता में षष्ठ अथवा
सप्तम मास में शुक्ल पक्ष में शुभ दिन में वैद्य द्वारा माता की गोद में मधुर खाते
बालक का अत्यन्त निपुणता से कर्ण वेध करना चाहिए। जब कि वृहस्पति जन्म से 10-12-16वें दिन करने को कहते हैं।
विधि विधान-वर्तमान बालिकाओं का कर्णवेध तो आभूषण धारण के लिए
अनिवार्यतः होता है किन्तु पुरुष वर्ग के वेध का प्रतीकात्मक ही संस्कार हो पाताᅠहै।
गणेशार्चन, हवन आदि करके निम्न
मंत्रों से क्रमशः दक्षिण-वाम कर्णों की वेध की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है - भद्रं
कर्णेभिः.............आदि मंत्रों से सम्पन्न किया जाय।
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