के पूर्व अक्षरों का सम्यक् ज्ञान अपेक्षित था और अक्षर ज्ञान
के समय कुलाचार के अनुसार विधि-विधान किये जाते थे।
विधि-परवर्ती संग्रह ग्रंथों में इसकी विधि व्यवस्था प्राप्त
है।
उत्तरायण सूर्य होने पर ही शुभ मुहूर्त में गणेश-सरस्वती-गृह
देवता का अर्चन करके गुरु के द्वारा अक्षरारंभ कराया जाय।
द्वितीय जन्मतः पूर्वामारभेदक्षरान् सुधीः।
-बी.मि. (बृहस्पति)
''पश्चमे सप्तमेवाद्वे''-संस्कारप्रकाश-भीमसेन
तण्डुल प्रसारित पट्टिका पर-
श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वत्यै
नमः, गृह देवताभ्योनमः श्री लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः लिखकर
उसका पूजन कराया जाय और गुरु पूजन किया जाय और गुरु स्वयं बालक का दाहिना हाथ
पकड़कर पट्टिका पर अक्षरारंभ करा दे। गुरु को दक्षिणा दान किया जाय।
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