संस्कार शब्द सम् पूर्वक कृ-धातु से घञ् प्रत्यय करके
निष्पन्न होता है। संस्कार शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। संस्कृत
वाङ्मय में इसका प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण
संबंधी शुद्धि, संस्करण, परिष्करण,
शोभा आभूषण, प्रभाव, स्वरूप,
स्वभाव, क्रिया, फलशक्ति,
शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि विधान, अभिषेक, विचार भावना, धारणा,
कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता आदि
व्यापक अर्थों में किया जाता है। अतः संस्कार शब्द अपने विशिष्ट अर्थ समूह को
व्यक्त करता और उक्त सम्पूर्ण अर्थ इस
शब्द में समाहित हो गये हैं। अतः संस्कार, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शुद्धि के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों का श्रेष्ठ
आचार है। इस अनुष्ठान प्रक्रिया से मनुष्य की बाह्याभ्यन्तर शुद्धि होती है जिससे
वह समाज का श्रेष्ठ आचारवान् नागरिक बन सके।
हिन्दू संस्कारों में अनेक वैचारिक और धार्मिक विधियां
सन्निविष्ट कर दी गयी हैं जिससे बाह्य परिष्कार के साथ ही व्यक्ति में सदाचार की
पूर्णता का भी विकास हो सके। सविधि संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में
विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता हैङ्क
आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो
विहित क्रियाजन्योऽतिशय विशेषः संस्कारः
वीर मित्रोदय पृ. 191
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च म. स्मृ. 2/26
संस्कारों
की संखया-संस्कारों के शास्त्रीय प्रयोग के सम्बन्ध में गृह्यसूत्रों को ही प्रमाण
माना गया है। प्राचीन गृह्य सूत्रों में पारस्कर गृह्य सूत्र, अश्वलायन गृह्य सूत्र,बोधायन गृह्य सूत्र विशेष रूप
से प्रामाणिक रूप से संस्कारों के अनुष्ठानों का विवरण, महत्त्व
और मंत्रों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। इनके अतिरिक्त पुराण सहित्य और विभिन्न
स्मृतियां भी संस्कारों के आचार के संबंध तथा उनके महत्त्व का प्रतिपादन करती हैं।
धर्म सूत्रों और धर्मशास्त्राों में भी इनके समन्वित रूपों का प्रतिपादन किया गया
है। विभिन्न गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में संस्कारों की संखया में मतैक्य नहीं
हैं तदपि परवर्ती काल में संस्कारों की संखया का निर्धारण कर दिया गया। इन
संस्कारों में जन्मपूर्व सलेकर बाल्यकाल के 10 संस्कार और
शेष 6 शैक्षणिक तथा अन्त्येष्टि पर्यन्त के संस्कार परिगणित
हैं ङ्क
1. गर्भाधान 2. पुंसवन
3. सीमन्तोन्नयन 4. जात कर्म
5. नामकरण 6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन 8. चूड़ाकरण
9. कर्णवेध 10. विद्यारम्भ
11. उपनयन 12. वेदारंभ
13. केशान्त 14. समावर्तन
15. विवाह 16. अन्त्येष्टि
कालक्रमानुसार प्राप्तभेद से अनुष्ठान पद्धतियों की रचना हो
गई है। श्री दयानन्द सरस्वती के अनुयायियों एवं अन्य मतावलम्बियों ने भी अपने
सम्प्रदायानुसार पद्धतियां बना ली हैं किन्तु देशज प्रक्रिया में भिन्नता रहते हुए
भी शास्त्रीय विधि और मंत्रा प्रयोग यथावत् मिलते हैं।
अनेक संस्कार काल वाह्य भी हो गये हैं तदपि उनकी कौल परम्परा अभी जीवित है। अतः इन
संस्कारों का संक्षिप्त रूप से विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दू संस्कारों
के समय मुहूर्त निर्धारण में ज्योतिष की भी मुखय भूमिका रहती है अतः प्रत्येक
संस्कार के लिए नक्षत्रा योग के अनुसार ज्योतिष शास्त्रा में मुहूर्तों का
निर्धारण कर दिया है प्रचलित पद्द्रचाङ्गों में चक्रानुक्रम से
उसका विवरण उपलब्ध रहता है। ज्योतिष के संक्षिप्त संकलन ग्रंथ भी इसमें सहायक हैं।
संस्कारों के मुहूर्तों से सम्बन्धित सारिणी भी संलग्न कर दी जा रही है जिसमें
संक्षेप में मुहूर्तों का विवरण है। मनु ने 'जन्मना जायते
शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते' कहकर संस्कार की महत्ता का
प्रतिपादन कर दिया है। संस्कार से ही द्विजत्व प्राप्त होता है। इसी वाक्य को आधार
मानकर आर्य समाज के अधिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सम्पूर्ण आर्य जाति को
संस्कार से द्विजत्व प्राप्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। षोडश संस्कारों के
सबंध में संक्षिप्त परिचय, शास्त्रीय विधान का विवरण दिया जा
रहा है विशेष विवरण विभिन्न पद्धतियों से जानना चाहिये।
1. प्राक्
जन्म संस्कार
गृह्य सूत्र गर्भाधान के साथ ही संस्कारों का प्रारंभ करते हैं
क्योंकि जीवन का प्रारम्भ इसी संस्कार से शुरू होता है -निषिक्तो यत्प्रयोगेण
गर्भः संधार्यते स्त्रिया।
तद्ᅠगर्भालम्भनंᅠनाम
कर्म प्रोक्तं मनीषिभिः। वीर मित्रोदय।
स्त्री-पुरुष के संयोग रूप इस संस्कार की विस्तृत विवेचना
शास्त्रों में मिलती है जिसमें अनेक विधि-निषेधों की चर्चा है जो मानव जीवन के लिए
और आगे आने वाले संतति परम्परा की शुद्धि के लिए अत्यावश्यक है। दिव्य सन्तति की
प्राप्ति के लिए बताये गये शास्त्रीय प्रयोग सफल होते हैं सन्तति-निग्रह भी होता
है।
(2) पुंसवन
गर्भधारण का निश्चय हो जाने के पश्चात् शिशु को पुंसवन नामक
संस्कार के द्वारा अभिषिक्त किया जाता था। इसका अभिप्राय-पुं-पुमान् (पुरुष) का
सवन (जन्म हो)।
पुमान्
प्रसूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् - बीरमित्रोदय
गर्भधारण का निश्चय हो जाने के तीसरे मास से चतुर्थ मास तक इस
संस्कार का विधान बताया जाता है। अधिकांश स्मृतिकारों ने तीसरा माह ही गृहीत किया
है।
तृतीये
मासि कर्तव्यं गृष्टेरन्यत्रा शोभनम्।
गृष्टे चतुर्थमासे तु षष्ठे मासेऽथवाष्टये। -वीरमित्रोदय
यह संस्कार चन्द्रमा के पुरुष नक्षत्रा में स्थित होने पर करना
चाहिए। सामान्य गणेशार्चनादि करने के बाद गर्भिणी स्त्री की नासिका के दाहिने
छिद्र मे गर्भ-पोषण संरक्षण के लिए लक्ष्मणा, बटशुङ्ग,
सहदेवी आदि औषधियों का रस छोड़ना चाहिए। सुश्रत नें सूत्र स्थान में
कहा है-
''सुलक्ष्मणा-वटशुङ्रग, सहदेवी
विश्वदेवानाभिमन्यतमम् क्षीरेणाभिद्युष्टय त्रिचतुरो वा विन्दून दद्यात्
दक्षिणे-नासापुटे''-सुश्रत संहिता।
उपर्युक्त प्रक्रिया से जाहिर है कि इस संस्कार में वैज्ञानिक
विधि का आश्रय है जिससे शिशु की पूर्णता प्राप्त हो और सर्वाङ्ग रक्षा हो।
(3) सीमन्तोन्नयन
गर्भ का तृतीय संस्कार सीमतोन्नयन था। इस संस्कार में गर्भिणी
स्त्री के केशों (सीमन्त) को ऊपर करना'' सीमन्त उन्नीयते
यस्मिन् कर्मणि तत् सीमन्तोन्नयनम्-वी.मि.
विधि-किसी पुरुष नक्षत्र में चन्द्रमा के स्थित होने पर स्त्री-पुरुष
को उस दिन फलाहार करके इस विधि को सम्पन्न किया जाता है। गणेशार्चन, नान्दी, प्राजापत्य आहुति देना चाहिए। पत्नी अग्नि
के पश्चिम आसन पर आसीन होती है और पति गूलरके कच्चे फलों का गुच्छ, कुशा, साही के कांटे लेकर उससे पत्नी के केश संवारता
है -महाव्याहृतियों का उच्चारण करते हुए।
अयभूर्ज्ज स्वतो वृक्ष ऊर्ज्ज्वेव फलिनी भव - पा.गृ. सूत्र
इस अवसर पर मंगल गान, ब्राह्मण भोजन
आदि कराने की प्रथा थी।
बाल्यावस्था के संस्कार
(4) जातकर्म
जातक के जन्मग्रहण के पश्चात् पिता पुत्र मुख का दर्शन करे
और तत्पश्चात् नान्दी श्राद्धावसान जातकर्म विधि को सम्पन्न करे-
जातं
कुमारं स्वं दृष्ट्वा स्नात्वाऽनीय गुरुम् पिता।
नान्दी श्राद्धावसाने तु
जातकर्म समाचरेत्
विधि-पिता स्वर्णशलाका या अपनी चौथी अंगुली से जातक को जीभ
पर
मधु और घृत महाव्याहृतियों के उच्चारण के साथ चटावे। गायत्राी
मन्त्रा के साथ ही घृत बिन्दु छोड़ा जाय। आयुर्वेद के ग्रंथों में जातकर्म-विधि का
विधान चर्चित है कि पिता बच्चे के कान में दीर्घायुष्य मंत्रों का जाप करे। इस
अवसर पर लग्नपत्र बनाने और जातक के ग्रह नक्षत्रा की स्थिति की जानकारी भी प्राप्त
करने की प्रथा है और तदनुसार बच्चे के भावी संस्कारों को भी निश्चित किया जाता है।
(5) नामकरण
नामकरण एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
संस्कार है जीवन में व्यवहार का सम्पूर्ण
आधार नाम पर ही निर्भर होता है
नामाखिलस्य
व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः
नाम्नैव कीर्तिं लभेत
मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म।-बी.मि.भा. 1
उपर्युक्त
स्मृतिकार बृहस्पति के वचन से प्रमाणित है कि व्यक्ति संज्ञा का जीवन में सर्वोपरि
महत्त्व है अतः नामकरण संस्कार हिन्दू जीवन में बड़ा महत्त्व रखता है।
शतपथ
ब्राह्मण में उल्लेख है कि ङ्क
तस्माद् पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्
पिता नाम करोति
एकाक्षरं द्वक्षरंत्रयक्षरम् अपरिमिताक्षरम् वेति-वी.मि.
द्वक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं
ब्रह्मवर्चसकामः
प्रायः
बालकों के नाम सम अक्षरों में रखना चाहिए। महाभाष्यकार ने व्याकरण के महत्व का
प्रतिपादन करते हुए नामकरण संस्कार का उल्लेख किया ङ्क
याज्ञिकाः
पठन्ति-''दशम्युतरकालं जातस्य नाम विदध्यात्
घोष
बदाद्यन्तरन्तस्थमवृद्धं त्रिापुरुषानुकम
नरिप्रतिष्ठितम्।
तद्धि
प्रतिष्ठितमं भवति। द्वक्षरं चतुरक्षरं वा नाम कुर्यात् न तद्धितम् इति। न
चान्तरेण व्याकरणकृतस्तद्धिता वा शक्या विज्ञातुम्।-महाभाष्य
उपर्युक्त
कथन में तीन महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है-
(1) शब्द रचना (2) तीन पुस्त के पुरखों के अक्षरों का
योग (3) तद्धितान्त नहीं होना चाहिए अर्थात् विशेषणादि नहीं
कृत् प्रत्यान्त होना चाहिए।
विधि-विधान-गृह्य
सूत्रों के सामान्य नियम के अनुसार नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के पश्चात् दसवें
या बारहवें दिन सम्पन्न करना चाहिए -
द्वादशाहे दशाहे वा जन्मतोऽपि त्रायोदशे।
षोडशैकोनविंशे वा
द्वात्रिंशेवर्षतः क्रमात्॥
संक्रान्ति, ग्रहण, और श्राद्धकाल में संस्कार मंगलमय नही माना
जाता। गणेशार्चन करके संक्षिप्त व्याहृतियों से हवन सम्पन्न कराकर कांस्य पात्रा
में चावल फैलाकर पांच पीपल के पत्तों पर पांच नामों का उल्लेख करते हुए उनका
पद्द्रचोपचार पूजन करे। पुनः माता की गोद में पूर्वाभिमुख बालक के दक्षिण कर्ण में
घरके बड़े पुरुष द्वारा पूजित नामों में से निर्धारित नाम सुनावे। हे शिशोᅠ! तव नाम अमुक शर्म-वर्म गुप्त दासाद्यस्ति''
आशीर्वचन निम्न ऋचाओं का पाठ-
''वेदोऽसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन मह्यां वेदो भूयाः। अङ्गादङ्गात्संभवसि
हृदयादधिजायते आत्मा वै पुत्रा नामासि सद्द्रजीव शरदः शतम्'।
गोदान-छाया दान आदि कराया जाय। लोकाचार के अनुसार अन्य आचार सम्पादित किये जायें।
बालिकाओं के नामकरण के लिए तद्धितान्त नामकरणकी विधि है। बालिकाओं
के नाम विषमाक्षर में किये जायें और वे आकारान्त या ईकारान्त हों। उच्चारण में
सुखकर, सरल, मनोहर मङ्गलसूचक
आशीर्वादात्मक होने चाहिए।
स्त्रीणां
च सुखम्क्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्।
मत्त्ल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्। - वी.मि.
(6) निष्क्रमण
प्रथम बार
शिशु के सूर्य दर्शन कराने के संस्कार को निष्क्रमण कहा गया है।
ततस्तृतीये कर्तव्यं
मासि सूर्यस्य दर्शनम्।
चतुर्थे मासि
कर्तव्य शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्
अनेक स्मृतिकारों ने चतुर्थ मास स्वीकार किया है। इस संस्कार के
बाद बालक को निरन्तर बाहर लाने का क्रम प्रारंभ किया जाता है।
विधि-भलीभांति अलंकृत बालक को माता गोद में लेकर बाहर आये और
कुल देवता के समक्ष देवार्चन करे। पिता पुत्र को-तच्चक्षुर्देव ........आदि मंत्र
का जाप करके सूर्य का दर्शन करावे -
ततस्त्वलंकृता धात्राी बालकादाय पूजितम्।
बहिर्निष्कासयेद्
गेहात् शङ्ख पुण्याहनिः स्वनैः। - विष्णुधर्मोत्तर
आशीर्वाद - अप्रमत्तं
प्रमत्तं वा दिवारात्रावथापि वा।
रक्षन्तु
सततं सर्वे देवाः शक्र पुरोगमाः॥
गीत, मंगलाचरण और बालक के मातुल द्वारा भी
आशीर्वाद दिलाया जाय।
(7) अन्नप्राशन
विधिपूर्वक
बालक को प्रथम भोजन कराने की प्रथा अत्यन्त प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में भी
एतत् सम्बन्धी मंत्र उपलब्ध होते हैं। माता के दूध से पोषित होने वाले बालक को
प्रथम बार अन्नप्राशन कराने का प्रचलन प्रायः प्राचीन काल से ही है जो एक विशेष
उत्सव के रूप में सम्पन्न किया जाता है।
जन्मतो मासि षष्ठे स्यात सौरेणोत्तममन्नदम्
तदभावेऽष्टमे मासे
नवमे दशमेऽपि वा।
द्वादशे
वापि कुर्वीत प्रथमान्नाशनं परम्
संवत्सरे वा
सम्पूर्णे केचिदिच्छन्ति पण्डिताः॥ - नारद, वी.मि.
षण्मासद्द्रचैनमन्नं प्राशयेल्लघु हितञ्च - सुश्रुत (शं. स्थान)
विधि-विधान-अन्नप्राशन संस्कार के दिन सर्वप्रथम यज्ञीय भोजन
के पदार्थ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ पकाये जायें। भोजन विविध प्रकार के
हों तथा सुस्वादु हों। मधु-घृत-पायस से बालक को प्रथम कवल (ग्रास) दिया जाय।
पद्धतियों में एतत्
संबंधी मंत्रा उपलब्ध हैं। गणेशार्चन करके व्याहृतियों से आहुति
देकर एतत् संबंधी ऋचाओं से हवन करके तत्पश्चात् बालक को मंत्रापाठ के साथ
अन्नप्राशन कराया जाय पुनः यथा लोकाचार उत्सव सम्पन्न किया जाय।
(8) चूड़ाकरण (मुण्डन)
मुण्डन संस्कार के संदर्भ में वैदिक ऋचाओं, गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में मंत्रा,
विधि प्रयोग, समय निर्धारण के सम्बन्ध में
व्यापक चर्चा मिलती है। पद्धतियों में इसका समावेश किया गया है। तदपि लोकाचार
कुलाचार से अनेक भेद दिखाई देते हैं। अनेक
कुलों में मनौती के आधार पर मुण्डन किये जाते हैं किन्तु मुहूर्त
निर्णय के लिए सभी ज्योतिष का आधार प्रायः स्वीकार करते हैं। मुण्डन में विधि
पूर्वक शास्त्रीय आचार केवल उपनयन कराने वाले कुलों में उसी समय किया जाता है जबकि
शास्त्रीय
विधान दूसरे वर्ष से बताया गया है यथा -
प्राङ्वासवे
सप्तमे वा सहोपनयनेन वा। (अश्वलायन)
तृतीये वर्षे
चौलं तु सर्वकामार्थसाधनम्।
सम्बत्सरे तु
चौलेन आयुष्यं ब्रह्मवर्चसम्। - वी. मि.
पद्द्रचमे
पशुकामस्य युग्मे वर्षे तु गर्हितम्
निषिद्ध काल-गर्भिण्यां मातरि शिशोः क्षौर कर्म न कारयेत्-इसके
अतिरिक्त भी मुहूर्त निर्णय के समय-निषिद्ध काल को त्यागना चाहिए।
शिखा की व्यवस्था
मुण्डन संस्कार के कौल और शास्त्रीय आचार तो किये जाते हैं
किन्तु शिखा रखने की प्रथा का प्रायः उच्चाटन होता जा रहा है। जबकि शिखा का
वैज्ञानिक महत्त्व है और शास्त्राों में शिखाहीन होना गंभीर प्रायश्चित्त कोटि में
आता है ङ्क
शिखा
छिन्दन्ति ये मोहात् द्वेषादज्ञानतोऽपि वा।
तप्तकृच्च्रेण
शुध्यन्ति त्रायो वर्णा द्विजातयः-लघुहारित
चूड़ाकरण का शास्त्रीय आधार था दीर्घायुष्य की प्राप्ति। सुश्रुत
ने (जो विश्व के प्रथम शीर्षशल्य चिकित्सक थे) इस सम्बन्ध में बताया है कि -
(11) मस्तक
के भीतर ऊपर की ओर शिरा तथा सन्धि का सन्निपात है वहीं रोमावर्त में अधिपति है।
यहां पर तीव्र प्रहार होने पर तत्काल मृत्यु संभावित है। शिखा रखने से इस कोमलांग
की रक्षा होती है।
-मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् शिरासम्बन्धिसन्निपातो
रोमावर्त्तोऽधिपतिस्तत्राापि
सद्यो मरणम्-सुश्रुत श. स्थान
विधि-विधान-गणेशार्चन अग्निस्थापन-पद्द्रचवारूणीहवन-नन्दी के
बाद पिता केशों का संस्कार यथाविधि करके स्वयं मंत्रा पाठ करता हुआ केश कर्त्तन
करता है और उनका गोमयपिन्ड में उत्सर्ग करता है पुनः दही उष्णोदक शीतोदक से केशों
को भिगोता और छुरे को अभिमन्त्रित करके नापित को वपन (मुण्डन) का आदेश देता है।
क्रमशः
क्क यत् क्षुरेण मज्जयता सुपेशसावप्त्वा वापयति
केशाद्द्रिछन्धिशिरो माऽस्यायुः प्रमोषी॥1॥
क्क अक्षण्वं परिवप॥2॥
येना वपत् सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन
ब्रह्मणो वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथासत्॥3॥
येन भूरिश्चरा दिवंज्योक् च पश्चाद्धि सूर्यम्। तेन ते
वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुलोक्याय स्वस्तये॥4॥
(9) कर्ण वेध
आभूषण पहनने के लिए विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा संपूर्ण
संसार की असभ्य तथा अर्द्धसभ्य जातियों में प्रचलित है। अतः इसका उद्भव अति
प्राचीन काल में ही हुआ होगा। - हिन्दू संस्कार पू. 129
आभूषण धारण और वैज्ञानिक रूप से कर्ण छेदन का महत्त्व होने के
कारण इस प्रक्रिया को संस्कार रूप में स्वीकारा गया होगा। कात्यायन सूत्रों में ही
इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। सुश्रुत ने इसके वैज्ञानिक पक्ष में कहा है कि
कर्ण छेद करने से अण्डकोष वृद्धि, अन्त्रा वृद्धि आदि का
निरोध होता है अतः जीवन के आरंभ में ही इस क्रिया को वैद्य द्वारा सम्पादित किया
जाना चाहिए।
शङ्खो
परि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीयम्
व्यत्यासाद्वा शिरां
विध्येद् अन्त्राबृद्धि निवृत्तये-सुश्रुत चि. स्थान
भिषग् वामहस्तेन-विध्येत्-सुश्रुत संहिता में षष्ठ अथवा
सप्तम मास में शुक्ल पक्ष में शुभ दिन में वैद्य द्वारा माता की गोद में मधुर खाते
बालक का अत्यन्त निपुणता से कर्ण वेध करना चाहिए। जब कि वृहस्पति जन्म से 10-12-16वें दिन करने को कहते हैं।
विधि विधान-वर्तमान बालिकाओं का कर्णवेध तो आभूषण धारण के लिए
अनिवार्यतः होता है किन्तु पुरुष वर्ग के वेध का प्रतीकात्मक ही संस्कार हो पाताᅠहै।
गणेशार्चन, हवन आदि करके निम्न मंत्रों
से क्रमशः दक्षिण-वाम कर्णों की
वेध की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है - क्क भद्रं
कर्णेभिः.............आदि मंत्रों से सम्पन्न किया जाय।
(10) विद्यारंभ या अक्षरारंभ
इस महत्त्वपूर्ण संस्कार के संबंध में गृह्य सूत्रों में काफी
स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता और न ही किसी
विशेष विधि-विधान की चर्चा ही मिलती है। किन्तु अनेक आकर ग्रंथों, प्राचीन काव्य नाटकों में इसका स्पष्ट उल्लेख आता है। कौटिल्य का
अर्थशास्त्र रघुवंश, उत्तररामचरित आदि में इसकी चर्चा है
इससे स्पष्ट है कि उपनयन और वेदारंभ
के पूर्व अक्षरों का सम्यक् ज्ञान अपेक्षित था और अक्षर ज्ञान
के समय कुलाचार के अनुसार विधि-विधान किये जाते थे।
विधि-परवर्ती संग्रह ग्रंथों में इसकी विधि व्यवस्था प्राप्त
है।
उत्तरायण सूर्य होने पर ही शुभ मुहूर्त में गणेश-सरस्वती-गृह
देवता का अर्चन करके गुरु के द्वारा अक्षरारंभ कराया जाय।
द्वितीय जन्मतः पूर्वामारभेदक्षरान् सुधीः।
-बी.मि. (बृहस्पति)
''पद्द्रचमे सप्तमेवाद्वे''-संस्कारप्रकाश-भीमसेन
तण्डुल प्रसारित पट्टिका पर-
श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वत्यै
नमः, गृह देवताभ्योनमः श्री लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः लिखकर
उसका पूजन कराया जाय और गुरु पूजन किया जाय और गुरु स्वयं बालक का दाहिना हाथ
पकड़कर पट्टिका पर अक्षरारंभ करा दे। गुरु को दक्षिणा दान किया जाय।
(11) उपनयन
भारतीय
मनीषियों ने जीवन की समग्र रचना के लिए जिस आश्रम व्यवस्था की स्थापना की जिससे
मनुष्य को सहज ही पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति हो, किया गया प्रतीत होता है। ब्रह्मचर्य काल में
धर्म का अर्जन एवं गृहस्थ जीवन में अर्थ-काम का उपभोग गीता के शब्दों में 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'' धर्म-नियंत्रित
अर्थ और काम तभी संभव था जब प्रारंभ में ही धर्म-तत्वों से मनुष्य दीक्षित हो जाय।
इसके बाद जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए भी यौवन काल में अभ्यस्त
धर्म ही सहायक होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय और आश्रम चतुष्टय में
अन्योन्याश्रय प्रतीत होता है या दोनों आधाराधेय भाव से जुड़े हैं।
वर्तमान युग में उपनयन संस्कार प्रतीकात्मक रूप धारण करता जा
रहा है। विरल परिवारों में यथाकाल विधि-व्यवस्था के अनुरूप उपनयन संस्कार हो पाते
हैं। एक ही दिन कुछ घण्टों में चूड़ाकरण, कर्णवेध,
उपनयन, वेदारंभ और केशान्त कर्म के साथ
समावर्तन संस्कार की खानापूरी करदी जाती है। बहुसंखय परिवारों में विवाह से पूर्व
उपनयन संस्कार कराकर वैवाहिक संस्कार करा दिया जाता है जबकि गृह्यसूत्रों के
अनुसार विभिन्न वर्णों के लिए आयु की सीमा का निर्धारण किया गयाᅠहै-
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं
विप्रस्य पद्द्रचमे
राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे
वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे। -मनुस्मृति 2 अ. 37
सत्राहवीं शताब्दी के निबन्धकारों ने परिस्थितियों के अनुरूप
ब्राह्मण का 24 क्षत्रिाय का 33 और
वैश्य का 36 तक भी उपनयन स्वीकार कर लेते हैं। - बी.मि.भा. 1
(347)
यौवन के पदार्पण करने के पूर्व किशोरावस्था में संस्कारित और
दीक्षित करने का अनुष्ठान सार्वकालिक और विश्वजनीन है। सभी सम्प्रदायों में किसी न
किसी रूप में दीक्षा की पद्धति चलती है और उसके लिए विशेष प्रकार के विधि विधानों
के कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं। इन विधि-विधानों के माध्यम से संस्कारित
व्यक्ति ही समाज में श्रेष्ठ नागरिक की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी उद्देश्य
से उपनयन संस्कार की परम्परा भारतीय मनीषा में स्थापित की थी।
'हिन्दू संस्कार'-वास्तव
में उपनयन संस्कार आचार्य के समीप दीक्षा के लिए अभिभावक द्वारा पहुंचना ही इस
संस्कार का उद्देश्य था। इसी लिए इसके कर्मकाण्ड में कौपीन; मौञ्जी,
मृगचर्म और दण्ड धारण करने का मंत्रों के साथ संयोजन है। सावित्री
मंत्रा धारण द्विज को अपने ब्रह्मचारी वेष में अपनी माता से पहली भिक्षा और फिर
समाज के सभी वर्ग से भिक्षाटन करने का अभ्यास इस संस्कार का वैशिष्ट्य है। इस
व्यवस्था से ब्रह्मचारी को व्यष्टि से समष्टि और परिवार से बृहत् समाज से जोड़ा
जाता था जिससे व्यक्ति अपनी सत्ता को समष्टि में समाहित करें और अपनी विद्या
बुद्धि शक्ति का प्रयोग समाज की सेवा के लिए करें।
वास्तव में यज्ञोपवीत के सूत्र धारण करने को ब्रतवंध कहते हैं
जिससे ब्रह्मचारी की पहचान और उसको धारण करने वाले को अपनी दीक्षा संकल्प का सदा
स्मरण रहे। सूत्र धारण कराकर उत्तरीय रखने की अनिवार्यता बताई गई है।
विधि विधान-उपनयन संस्कार से संबंधित प्रान्तीय और विभिन्न
सम्प्रदायों के स्तर पर उपनयन पद्धतियां प्रचुर मात्राा में उपलब्ध हैं तदनुसार
उनका आश्रय लेकर संस्कारों का संयोजन सम्पादन करना चाहिए।
(12) वेदारंभ
वेदारंभ उपनयन संस्कार के बाद किया जाता है जो अब प्रतीकात्मक
ही रह गया है। वास्तव में यह संस्कार मुखय रूप से वेद की विभिन्न शाखाओं की रक्षा
के लिए उसके अभ्यास की परम्परा से जुड़ा है। अपनी कुल परम्परा के अनुसार वेद, शाखा सूत्र आदि के स्वाध्याय की पद्धति थी। जिसे अनिवार्य रूप से
द्विजातियों को उसका अभ्यास
करना पड़ता था। कालान्तर में मात्रा पुरोहितों के कुलों में
सीमित हो गई और अब उसका प्रायः लोप हो गया है। यही कारण है कि वेद की बहुत सी
शाखायें उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि श्रुति परम्परा से ही इसकी रक्षा की जाती थी।
महर्षि पतद्द्रजलि ने भी महाभाष्य में इसकी चर्चा करते हुए कहा है कि अनेक शाखा-सूत्रों
का लोप हो गया है।
वर्तमान पद्धतियों में चतुर्वेदों के मंत्राों का संग्रह कर
दिया गया है जिसे उपनयन के बाद सावित्राी-सरस्वती-लक्ष्मी गणेश की अर्चना के बाद
उपनीत बटु से उसका औपचारिक उच्चारण मात्रा करा दिया जाता है। अतः अब यह संस्कार
उपनयन का अंगभूत भाग रह गया है।
(13) केशान्त
केशान्त का अर्थ लम्बी अवधि तक केशधारण करने वाले युवा
ब्रह्मचारी का केश वपन। विधि पूर्वक मंत्रोच्चारण के साथ यह गोदान के साथ सम्पन्न
होता था। इस संस्कार के बाद ही 'युवक' को
गृहस्थ जीवन के योग्य शारीरिक और व्यावहारिक योग्यता की दीक्षा दी जाती थी।
आगोदानकर्मणः-ब्रह्मचर्यम्-भा. यू.सू.
(14) समावर्त्तन
समावर्त्तन का अर्थ है विद्याध्ययन प्राप्त कर ब्रह्मचारी युवक
का गुरुकुल से घर की ओर प्रत्यावर्त्तन।
तत्र समावर्त्तनं नाम वेदाध्यनानन्तरं गुरुकुलात् स्वगृहागमनम्-वीर मित्रोदय
विष्णुस्मृति के अनुसार-कुब्ज, वामन,
जन्मान्ध, बधिर, पंगु
तथा रोगियों को यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में रहने की व्यवस्था है-
कुब्जवामनजात्यन्धक्लीब
पङ्वार्त रोगिणाम्
ब्रतचर्या भवेत्तेषां यावज्जीवमनंशतः।
समावर्त्तन संस्कार गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देता है।
उपनयन संस्कार से प्रारंभ होने वाली शिक्षा की पूर्णता के बाद ब्रह्मचर्य का कठोर
जीवन व्यतीत करने वाले संस्कारित युवक को इस संस्कार के माध्यम से गार्हस्थ्य जीवन
जीने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे संस्कारित युवक की स्नातक संज्ञा थी। स्नातक तीन
प्रकार के होते थे (1) विद्या स्नातक (2) व्रत
स्नातक (3) विद्याव्रत स्नातक। इनमें तीसरे प्रकार के स्नातक
को ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकार मिलता था। क्योंकि ऐसा ही ब्रह्मचारी
विद्या की पूर्णता के साथ ब्रह्मचर्य्य व्रत की भी पूर्णता प्राप्त कर लेता था।
वर्तमान काल में भले 10-12 वर्ष के बालक का उपनयन संस्कार के
तत्काल समावर्त्तन का अधिकारी बना दिया जाताᅠहै।
आश्रमहीन रहना दोषपूर्ण होता है अतः समावर्त्तन के बाद गृहस्थ
बनना अथ च दारपरिग्रह अपरिहार्य है, अन्यथा
प्रायश्चित्त होता है।
अनाश्रमी
न तिष्ठेच्च ᅠ क्षणमेकमपि
द्विजः।
आश्रमेण विना तिष्ठन्
प्रायश्चित्तीयते हि सः॥ दक्षस्मृति (10)
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समावर्त्तन संस्कार अति
महत्वपूर्ण आचार प्रक्रिया थी जिससे संस्कारित और दीक्षित होकर युवक एक श्रेष्ठ
गृहस्थ की योग्यता प्राप्त करता था। वर्तमान काल में उपनयन संस्कार के साथ ही कुछ
घंटों में इसकी भी खानापूरी कर दी जाती है। इसके विधि विधान का विवरण उपनयन
पद्धतियों से यथा प्राप्त सम्पन्न कराना चाहिए।
(15) विवाहᅠ
विवाह संस्कार हिन्दू संस्कार पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण
संस्कार है। प्रायः सभी सम्प्रदायों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह शब्द का
तात्पर्य मात्रा स्त्री-पुरुष के मैथुन सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है अपितु
सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का
निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है।
शास्त्राों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के
अधिकारों के अयोग्य माना गया है-
अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः- वै.प्रा.
मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और
तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है-जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्
जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया
पितृभ्यः-तै. सं. 6-3
गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा
के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम
है -
यथा
वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः
तथा
गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।
यस्मात्
त्रायोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मा ज्येष्ठाश्रमो गृही। -मनुस्मृति (3)
विवाह अनुलोम रीति से ही करना चाहिए-प्रातिलोम्य विवाह सुखद
नहीं होता अपितु परिणाम में कष्टकारी होता हैᅠ-
त्रायाण्यमानुलोम्यं
स्यात् प्रातिलोम्यं न विद्यते
प्रातिलौम्येन यो याति
न तस्मात् पापकृत्तरः। द. स्म्. (9)
अपत्नीको नरो
भूप कर्मयोग्यो न
जायते।
ब्राह्मणः क्षत्रिायो
वापि वैश्यः शूद्रोऽपि वा नरः।
विवाह के प्रकार
प्राचीन काल से ही यौन सम्बन्धों में विविधता के वृत्त प्रचुर
मात्रा में उपलब्ध हैं अतः स्मृतियों ने इस प्रकार के विवाहों को आठ भागों में
विभक्त कियाᅠहै।
(1) ब्राह्म (2) दैव (3)
आर्ष (4) प्राजापत्य (5) आसुर (6) गान्धर्व
(7) राक्षस (8) पैचाश।
इनमें प्रथम चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त की श्रेणी में रखे गये
हैं। प्रथम चार में भी ब्राह्म विवाह सर्वोत्तम और समाज में प्रशंसनीय था शेष तरतम
भाव से ग्राह्य थे। किन्तु दो सर्वथा अग्राह्य थे।
अप्रशस्त
- निन्दनीय
(1) पैशाच-सोती रोती कन्या का बलात्
अपहरण।
(2) राक्षस-अभिभावकों को मारपीट कर
बलात् छीनकर रोती बिलखती कन्या का अपहरण इस कोटि का निन्दनीय विवाह था।
(3) गान्धर्व-जब कन्या और वर कामवश होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं
तो ऐसा विवाह गान्धर्व विवाह होता है। म. स्मृति (3)
(4) जिस विवाह में कन्या के पक्ष को यथेष्ट धन-सम्पत्ति देकर
स्वच्छन्दतापूर्वक कन्या से विवाह किया जाता है ऐसा विवाह आसुर संज्ञक है।
(5) वर स्वयं प्र्रस्ताव करके कन्या के पिता से विवाह का निवेदन करता और
सन्तानोत्पादन के लिए विवाह स्वीकार किया जाता। ऐसा विवाह प्राजापत्य कोटि का था।
(6) आर्ष विवाह में कन्या का पिता वर से यज्ञादि कर्म के लिए दो गो मिथुन
प्राप्त करके धर्म कार्य सम्पन्न कर लेता था और उसके बदले में कन्यादान करता था।
(7) दैव
(8) ब्राह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय विधि
मानी जाती है जिसमें कन्या का पिता योग्य वर को सब प्रकार सुसज्जित यथाशक्ति
अलंकृत कन्या को गार्हस्थ्य जीवन की समस्त उपयोगी वस्तुओं के साथ समर्पित करता था।
आच्छाद्य
चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्
आहूय दानं
कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः। मनु. (3)
सक्षेप में विवाह संस्था के उद्देश्य और उसके प्रकार का विवरण
दिया गया है। विवाह के विविध-विधान के लिए देश-काल-प्रान्तभेद से पद्धतियां उपलब्ध
हैं तदनुसार वैवाहिक संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए।
(16) अन्त्येष्टि
हिन्दू जीवन के संस्कारों में अन्त्येष्टि ऐहिक जीवन का
अन्तिम अध्याय है। आत्मा की अमरता एवं लोक परलोक का विश्वासी हिन्दू जीवन इस लोक
की अपेक्षा पारलौकिक कल्याण की सतत कामना करता है। मरणोत्तर संस्कार से ही
पारलौकिक विजय प्राप्त होती है -
जात
संस्कारेणेमं लोकमभिजयति
मृतसंस्कारेणामुं
लोकम् - वी.मि. 3-1
विधि-विधान, आतुरकालिक दान, वैतरणीदान, मृत्युकाल में भू शयनव्यवस्था
मृत्युकालिक स्नान, मरणोत्तर स्नान, पिण्डदान,
(मलिन षोडशी) के 6 पिण्ड दशगात्रायावत् तिलाञ्जलि,
घटस्थापन दीपदान, दशाह के दिन मलिन षोडशी के
शेष पिण्डदान एकादशाह के षोडश श्राद्ध, विष्णुपूजन शैय़्यादान
आदि। सपिण्डीकरण, शय्यादान एवं लोक व्यवस्था के अनुसार उत्तर
कर्म आयोजित कराने चाहिए। इन सभी कर्मों के लिए प्रान्त देशकाल के अनुसार
पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार उन कर्मों का आयोजन किया जाना चाहिए।