लघुसिद्धान्तकौमुदी (समासान्ताः)

                                               अथ समासान्‍ताः

९९६ ऋक्‍पूरब्‍धूःपथामानक्षे
अ अनक्षे इतिच्‍छेदः । ऋगाद्यन्‍तस्‍य समासस्‍य अप्रत्‍ययोऽन्‍तावयवोऽक्षे या धूस्‍तदन्‍तस्‍य तु न । अर्धर्चः । विष्‍णुपुरम् । विमलापं सरः । राजधुरा । अक्षे तु अक्षधूः । दृढधूरक्षः । सखिपथः । रम्‍यपथो देशः ।।
ऋच्, पुर्, अप्, धुर्, और पथिन् ये शब्द जिसके अन्त में हों, ऐसे समास से समासान्त अ प्रत्यय हो परन्तु अन्तिम अक्ष शब्द वाले को नहीं हो।
अ अनक्ष इतिच्छेदः-  सूत्र में स्थित आनक्षे इस पद में अ + अनक्षे ऐसा परच्छेद है। अनक्षे का निषेध केवल धुर्, शब्द के लिए है, क्योंकि उसी में योग्यता है, औरों में नहीं।  अक्ष (रथ के चक्के का मध्यमभाग) में जो धुर्(धुरा), उसको बताने वाला धुर् शब्द अन्तिम हो तो अ प्रत्यय नहीं होगा।
अर्धर्चः। ऋचः अर्धम् लौकिकविग्रह और ऋच् ङस् + अर्ध सु अलौकिक विग्रह है। यहाँ अर्धं नपुंसकम् से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने पर ऋच + अर्ध बना। प्रथमानिर्दिष्ट अर्ध की उपसर्जनसंज्ञा, उसका पूर्वनिपात करके अर्ध + ऋच् बना। आद्गुणः से गुण होकर अर्धर्च् बना। अब ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर अर्धर्च बना। सु, रुत्वविसर्ग करने पर अर्धर्चः सिद्ध हुआ।
विष्णुपुरम्। विष्णोः पूः लौकिकविग्रह और विष्णु ङस् + पुर् सु अलौकिक विग्रह है। षष्ठी से तत्पुरूषसमास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके विष्णुपुर् बना। प्रथमानिर्दिष्ट विष्णु की उपसर्जनसंज्ञा, उसका पूर्वनिपात। अब ऋक्पूरब्धूः- पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर विष्णुपुर् + अ बना। वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकत्वेन सु, नपुंसक होने के कारण सु के स्थान पर अम् आदेश एवं पूर्वरूप करके पर विष्णुपुरम् सिद्ध हुआ।

विमलापं सरः। विमला आपो यस्य लौकिकविग्रह और विमला जस् + अप् जस् अलौकिक विग्रह है। अनेकमन्यपदार्थे से बहुव्रीहिसमास करके प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके विमला-अप् बना। सवर्णदीर्घ होकर विमलाप् बना। अब ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर विमलाप् + अ बना। वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकत्वेन सु, सरः नपुंसक होने के कारण इसका विशेषण विमलाप भी नपुंसक ही हुआ। सु के स्थान पर अम् आदेश एवं पूर्वरूपक रने पर विमलापं सरः सिद्ध हुआ।

अक्षे तु अक्षक्षूः। सूत्र में अनक्षे का विग्रह करके अ अनक्षे इस प्रकार पढ़ कर अक्ष शब्द के साथ सम्बद्ध जो धुर्, तदन्त से अच् प्रत्यय का निषेध किया है। अतः अक्षस्य धूः षष्ठी करने के बाद अच् से रहित अक्षधूः ही बनेगा। इसी तरह दृढधूरक्षः में दृढा धूः यस्य में बहुव्रीहि समास करने के बाद समासान्त अच् प्रत्यय नहीं हुआ। अतः दृढधूः ही बनेगा।
९९७ अक्ष्णोऽदर्शनात्
अचक्षुःपर्यायादक्ष्णोऽच् स्‍यात्‍समासान्‍तः । ‘गवामक्षीव गवाक्षः’ ।।
जो अक्षि शब्द नेत्रवाचक न हो उस अक्षिशब्दान्त से समासान्त अच् प्रत्यय होता है।

गवाक्षः। गवाम् अक्षि इव लौकिक विग्रह और गो आम् अक्षि सु अलौकिक विग्रह है। यहाँ पर अक्षि शब्द नेत्र का वाचक नहीं है अपितु नेत्र की तरह छिद्र वाली खिड़की का वाचक है। षष्ठी सूत्र के द्वारा षष्ठीतत्पुरूष समास होने के पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा, विभक्ति का लुक् करके गो + अक्षि बना। यहाँ पर अवङ् स्फोटायनस्य से अवङ् आदेश, सवर्णदीर्घ होकर गवाक्षि + अ बना। अक्ष्णोऽदर्शनात् से समासान्त अच् प्रत्यय होकर गवाक्ष बना। स्वादिकार्य करके गवाक्षः सिद्ध होता है। 
९९८ उपसर्गादध्‍वनः
प्रगतोऽध्‍वानं प्राध्‍वो रथः ।।
उपसर्ग से परे अध्वन् शब्द को समासान्त अच् प्रत्यय हो।

प्राध्वो रथः। प्रगतः अध्वानम् लौकिक विग्रह और प्र + अध्वन् अम् अलौकिक विग्रह में अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया इस वार्तिक से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने पर प्र + अध्वन् बना है। उपसर्गादध्वनः से अच् प्रत्यय हुआ।  प्र + अध्वन् + अ हुआ। नस्तद्धिते से अध्वन् के अन् इस टिसंज्ञक का लोप होने पर प्र + अध्व् + अ बना। प्र + अध्व् के मध्य सवर्णदीर्घ और अध्व् + अ का वर्णसम्मलेन करने पर प्राध्व बना। स्वादिकार्य करके प्राध्वः सिद्ध हुआ।
९९९ न पूजनात्
पूजनार्थात्‍परेभ्‍यः समासान्‍ता न स्‍युः । सुराजा । अतिराजा ।।
इति समासान्‍ताः ।।


लघुसिद्धान्तकौमुदी में तत्पुरुष, बहुव्रीहि आदि प्रकरणों  में समासान्त प्रत्ययों का उल्लेख कर दिया गया है। वहाँ से अवशिष्ट समासान्त प्रत्ययों का उल्लेख करने के लिए यह प्रकरण पृथक् से निर्मित है। अध्येताओं को चाहिए कि समासान्त प्रत्ययों के विचार के समय उन सूत्रों को भी स्मरण में रखे। वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी में एकशेषसमास, अलुक्समास आदि के लिए भी अलग से प्रकरण निर्मित गये हैं, किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी में उन प्रकरणों का निर्माण नही किया गया। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों को समास अध्ययन के समय समास की स्पष्टता के लिए वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी का भी अवलोकन करना चाहिए।

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लघुसिद्धान्तकौमुदी (द्वन्द्व-समासः)

                          अथ द्वन्‍द्वः



द्वन्द्व समास के लिए एक ही सूत्र है- चार्थे द्वन्द्वः। इस समास में समस्यमान पद प्रायः प्रथमान्त ही होते हैं और कहीं कहीं अन्य विभक्तियाँ भी हो सकती हैं किन्तु प्रथमान्त में ही समास अधिक प्रचलित है।
९८८ चार्थे द्वन्‍द्वः

अनेकं सुबन्‍तं चार्थे वर्तमानं वा समस्‍यते स द्वन्‍द्वः । समुच्‍चयान्‍वाचयेत रेतरयोगसमाहाराश्‍चार्थाः । तत्र ‘ईश्वरं गुरुं च भजस्‍व’ इति परस्‍परनिरपेक्षस्‍यानेक स्‍यैकस्‍मिन्नन्‍वयः समुच्‍चयः । ‘भिक्षामट गां चानय’ इत्‍यन्‍यतरस्‍यानुषङि्गकत्‍वेन अन्‍वयो ऽन्‍वाचयः । अनयोरसामर्थ्यात्‍समासो न । ‘धवखदिरौ छिन्‍धि’ इति मिलितानामन्‍वय इतरेतरयोगः । ‘संज्ञापरिभाषम्’ इति समूहः समाहारः ।।
चकार के अर्थ में अनेक सुबन्तों का समास होता है और उसकी द्वन्द्वसंज्ञा होती है।
 चार्थे द्वन्द्वः में पठित च इस निपात के 4 अर्थ है।
1.समुच्चय 2. अन्वाचय 3. इतरेतरयोग और 4. समाहार ।
समुच्चय- जब परस्पर (एक दूसरे से) निरपेक्ष अनेक पद किसी एक पद में अन्वित होते हैं तो उसे समुच्चय नामक चार्थ कहा जाता है। जैसे- ईश्वरं गुरुं च भजस्व यहाँ ईश्वर और गुरू दोनों परस्पर निरपेक्ष हैं। इन दोनों का भजन क्रिया के साथ अन्वय हो रहा है । अतः यहाँ पर समुच्चय नामक चार्थ है।
अन्वाचयः- जिनका समुच्चय हो रहा हो, ऐसे पदार्थो में एक का गौणरूप से अन्वय हो, तब उसे अन्वाचय नामक चार्थ कहा जाता है। जैसे भिक्षाम् अट गां चानयइस वाक्य में भिक्षार्थ अटन अनिवार्य है और गाय को लाना आनुषंगिक (गौण) कर्म है। इस लिए यह अन्वाचय है।
इतरेतरयोग- जब दो या अधिक पदार्थ परस्पर में मिलकर आगे अन्वित होते हैं, तब उसे इतरेतरयोग चार्थ कहा जाता है। जैसे- धवखदिरौ छिन्धि। यहाँ पर धव और खदिर दोनों मिलकर छिन्धि क्रिया में अन्वित हो जाते हैं। यह इतरेतरयोग है। 

समाहार- समूह का नाम समाहार है। इतरेयोग की तरह इसमें पदार्थों का अन्य पदार्थ के साथ पृथक् – पृथक् अन्वय नहीं होता अपितु समूहात्मक अर्थ का अन्वय होता है। उसे समाहार नामक चार्थ कहा जाता है। जैसे- सञ्ज्ञापरिभाषम्। सञ्ज्ञा और परिभाषा का समूह। संज्ञा च परिभाषा च अनयोः समाहारः में चार्थे द्वन्द्वः से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु का लुक्, संज्ञापरिभाषा बना। समाहार होने पर स नपुंसकम् से नपुंसकलिंग और समूहार्थ के एक होने से एकवचन मात्र होता है। सु विभक्ति करके ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य से परिभाषा के आकार को ह्रस्व करने पर संज्ञापरिभाष बना। सु के स्थान पर अम् आदेश, पूर्वरूप करने पर सञ्ज्ञापरिभाषम् बना। 

विशेष - द्वन्द्व समास में समस्यमान दोनों पदों के अर्थ प्रधान होते हैं।  समास करने वाले सूत्र चार्थे द्वन्द्वः में अनेकम् ऐसा अनुवृत्त प्रथमान्त पद से निर्दिष्ट सभी शब्द होते हैं। अतः सभी की उपसर्जनसंज्ञा होकर पूर्वप्रयोग प्राप्त होता है। अतः द्वन्द्व समास में इच्छानुसार किसी भी पद को पहले रखा जा सकता है। कहीं कहीं इसके लिए विशेष नियम हैं अतः वहाँ निर्दिष्ट नियम के अनुसार ही पूर्वप्रयोग किया जा सकता है। विशेष नियम आगे के सूत्रों में दिये जा रहे हैं।

९८९ राजदन्‍तादिषु परम्

एषु पूर्वप्रयोगार्हं परं स्‍यात् । दन्‍तानां राजानो राजदन्‍ताः । 
राजदन्त आदि में पूर्व प्रयोगार्ह (जिसका पूर्व में प्रयोग प्राप्त हो) के योग्य पद का पर में प्रयोग होता है।
राजन्ताः। दन्तानां राजा यहाँ षष्ठी सूत्र से तत्पुरूष समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके पष्ठी इस प्रथमान्तपद से निर्दिष्ट दन्त की उपसर्जनसंज्ञा होकर उसका उपर्सजनं पूर्वम् से पूर्वनिपात प्राप्त था, उसे बाधकर के राजदन्तादिषु परम् से परप्रयोग हुआ- राजन् + दन्त बना। राजन् के नकार का नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से लोप, जस् विभक्ति राजदन्त + अस् हुआ। सवर्ण दीर्घ, सकार को रूत्वविसर्ग करके राजदन्ताः सिद्ध हुआ।
(धर्मादिष्‍वनियमः) । अर्थधर्मौ । धर्मार्थावित्‍यादि ।।

धर्मादिष्वनियमः। यह वार्तिक राजदन्‍तादिषु परम् का अपवाद है। धर्म आदि गणपठित शब्दों में पूर्वनिपात या परनिपात का कोई निश्चित नियम नहीं है। अर्थात् इस गण में पढ़े गये सभी शब्दों में से किसी भी शब्द का पूर्वप्रयोग किया जा सकता है। अतः धर्मश्च अर्थश्च में द्वन्द्व समास करके धर्मार्थौ या अर्थधर्मौ दोनों प्रयोग बन सकते हैं।

९९० द्वन्‍द्वे घि

द्वन्‍द्वे घिसंज्ञं पूर्वं स्‍यात् । हरिश्‍च हरश्‍च हरिहरौ ।।
हरिहरौ। हरिश्च हरश्च लौकिक विग्रह तथा हरि सु + हर सु अलौकिक विग्रह में चार्थे द्वन्द्वः से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु का लुक्, हरि + हर बना। द्वन्द्वे घि सूत्र से घिसंज्ञक शब्द का पूर्वप्रयोग हरि का पूर्वप्रयोग हुआ हरिहर बना। यदि हरश्च हरिश्च विग्रह एस प्रकार का विग्रह न करके द्वन्द्वे घि को देखते हुए विग्रह में ही घिसंज्ञक का पूर्वप्रयोग किया जाता है। हरिहर में दो शब्द है अतः द्विवचन का औ विभक्ति आया। अकारान्त बालक की तरह हरिहरौ सिद्ध हुआ।

विशेष- शेषो घ्यसखि से हृस्व इकारान्त और हृस्व उकारान्त की घिसंज्ञा होती है।  ऐसे घिसंज्ञक शब्द का आदि में अर्थात् पूर्व में प्रयोग होने का विधान किया गया।

९९१ अजाद्यदन्‍तम्

द्वन्‍द्वे पूर्वं स्‍यात् । ईशकृष्‍णौ ।।
द्वन्द्व समास में अजादि और अदन्त शब्द का पूर्व में प्रयोग करना चाहिए।

ईशकृष्णौ। ईशश्च कृष्णश्च लौकिक विग्रह और ईश सु + कृष्ण सु अलौकिक विग्रह में चार्थ द्वन्द्वः से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु का लुक्, ईश + कृष्ण बना। अजाद्यदन्तम् सूत्र से अजादि और अदन्त ईश शब्द का पूर्वप्रयोग हुआ। द्विवचन में औ, वृद्धि आदि करके ईशकृष्णौ सिद्ध हुआ।

९९२ अल्‍पाच्‍तरम्

शिवकेशवौ ।।
द्वन्द्व समास में सभी शब्दों में जो अपेक्षाकृत कम अच् वाला शब्द हो, उसका ही पूर्वप्रयोग हो।

शिवकेशवौ। शिवश्च केशवश्च लौकिक विग्रह और शिव सु + केशव सु अलौकिक विग्रह में चार्थे द्वन्द्वः से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु का लुक्, शिवकेशव बना। शिव में दो अच् हैं और केशव में तीन अच् हैं। दोनों में से अपेक्षाकृत कम अच् वाला शब्द शिव शब्द है, इसलिए अल्पाच्तरम् से शिव का पूर्वप्रयोग हुआ। द्विवचन में औ विभक्ति, वृद्धि आदि करके शिवकेशवौ सिद्ध हुआ।

९९३ पिता मात्रा

मात्रा सहोक्तौ पिता वा शिष्‍यते । माता च पिता च पितरौमातापितरौ वा ।।
मातृ शब्द के साथ उच्चारित पितृ शब्द विकल्प से शेष रहता है।
पितरौ, मातापितरौ वा।  माता च पिता च लौकिक विग्रह और मातृ सु पितृ सु अलौकिक विग्रह है। चार्थे द्वन्द्वः से समास होने के पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् हुआ। मातृ पितृ बना। पिता मात्रा सूत्र से पितृ का शेष और मातृ का लोप हो जाता है। यहाँ पितृ से मातृ का भी कथन हो रहा है अतः द्विवचन में पितृ शब्द से पितरौ बना। एकशेष कार्य विकल्प से होता है। एकशेष न होने के पक्ष में द्वन्द्वसमास हुआ। अभ्यर्हितं च वार्तिक से मातृ के ऋकार के स्थान पर आनङ् आदेश होने पर मातापितृ बना। द्वित्व की विवक्षा में द्विवचन औ विभक्ति हुआ। ऋतो ङिसर्वनामस्थानयोः से गुण करके मातापितरौ सिद्ध होता है।   
विशेष- पिता मात्रा सूत्र एकशेष समास का सूत्र है। यहाँ मातृ और पितृ इन दो शब्दों को समास में एकयोग करने पर केवल पितृ शब्द शेष रहता है और मातृ का लोप होता है। सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ एक विभक्ति में सरूप दिखने वाले में से एक का शेष करता है, जबकि यह दो असरूप शब्दों, केवल माता पिता में से पिता को शेष रखता है। जहाँ शेष किया जाता है, वह लुप्त हुए शब्द के अर्थ का भी परिचायक होता है।  यः शिष्यते स लुप्यमानार्थाभिधायी । अतः एकशेष में लुप्त पदों के अर्थ का भी ज्ञान हो जाता है।
इस सूत्र का कार्य द्वन्द्व समास के इतर एकशेष करना है। एकशेष द्वन्द्व से पृथक् एक स्वतन्त्र कार्य हैं। एकशेष विकल्प से होता है अतः यहाँ द्वन्द्व समास भी किया जाता है। द्वन्द्व के स्थान पर सीधे एकशेष भी किया जा सकता है।

मातृ और पितृ में मातृ शब्द पिता  दशगुण अधिक अभ्यर्हित अर्थात् गौरवमयी होती है अतः मातृ का पूर्वप्रयोग होता है।  स्मृतिशास्त्र में पितुर्दशगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते इत्यादि वचन कहे गये हैं।

९९४ द्वन्‍द्वश्‍च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम्

एषां द्वन्‍द्व एकवत् । पाणिपादम् । मार्दङि्गकवैणविकम् । रथिकाश्वारोहम् ।।
प्राणी, तूर्य (वाद्य विशेष) और सेना शब्दों के अंगवाचक शब्दों का द्वन्द्व समास एकवचन (समाहार) का हो।
पाणिपादम्। पाणी च पादौ च तेषां समाहारद्वन्द्वः। यहाँ चार्थे द्वन्द्वः समास करने के बाद द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् से एकवचन का विधान हुआ। सु विभक्ति आई और समाहार होने के कारण स नपुंसकम् से नपुंसक हुआ। अतः अम् आदेश, पूर्वरूप करके पाणिपादम् सिद्ध हुआ। यह प्राणी के अंग का उदाहरण है।

विशेष- प्राणी, तूर्य (वाद्ययन्त्र) और सेना इनके अङ् के वाचक शब्दों का द्वन्द्व एकवचनान्त होता है। एकवद्धाव (एकवचनान्त) करने का तात्पर्य यह है कि इनका समाहार अर्थ में ही द्वन्द्वसमास होता है, इतरेतरयोग में नहीं। अनेक मिलकर जब समूह का निर्माण करते हैं तब वह एक हो जाता है, अतः समाहार द्वन्द्व एकवचनान्त होता है।  अतः समास के विग्रह बनाते समय ही समाहार का विग्रह बनाना चाहिए।

९९५ द्वन्‍द्वात्-चु-द-ष-हान्‍तात्‍समाहारे

चवर्गान्‍ताद्दषहान्‍ताच्‍च द्वन्‍द्वाट्टच् स्‍यात्‍समाहारे । वाक् च त्‍वक् च वाक्‍त्‍वचम् । त्‍वक्‍स्रजम् । शमीदृषदम् । वाक्‍त्‍विषम् । छत्रोपानहम् । समाहारे किम् ? प्रावृट्शरदौ ।।
चवर्गान्त, दकारान्त, षकारान्त और हकारान्त शब्द से समाहार द्वन्द्व में समासान्त टच् प्रत्यय होता है ।
वाक्त्वचम्। वाक् च त्वक् च तयोः समाहारः लौकिकविग्रह और वाच् सु त्वच् सु अलौकिक विग्रह है। चार्थे द्वन्द्वः से द्वन्द्वसमास करके प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने पर वाच् + त्वच् बना। वाच् के चकार को चोः कुः से कुत्व होकर वाक् + त्वच् बना। अब द्वन्‍द्वाच्‍चुदषहान्‍तात्‍समाहारे से चवर्गान्त मानकर समासान्त टच् हुआ। अनुबन्ध लोप होकर अ शेष बचा। वाक्त्वच् + अ बना। वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिक मानकर सु, समाहार में नपुंसक एवं एकवचन होकर वाक्त्वचम् सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी दे रहे हैं-
त्वक् च स्रक् च - त्‍वक्‍स्रजम् ।
शमी च दृषद् च - शमीदृषदम् ।
वाक् च त्विट् च - वाक्‍त्‍विषम् ।
छत्रं च उपानत् च - छत्रोपानहम् ।

समाहारे किम्? प्रावृट्शरदौ। यदि इस सूत्र में समाहार में हो, ऐसा नहीं कहते तो दकारान्त शरद् से इतरेतर योग द्वन्द्व में भी टच् हो जाता, वह  न हो, इसके लिए सूत्र में समाहारे लिखा गया।

इति द्वन्‍द्वः ।। ५ ।।
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लघुसिद्धान्तकौमुदी (बहुव्रीहि- समासः)


अथ बहुव्रीहिः


९६८ शेषो बहुव्रीहिः

अधिकारोऽयं प्राग्‍द्वन्‍द्वात् ।।

द्वन्द्व समास से पूर्व तक बहुव्रीहि समास का अधिकार है। 

यह अधिकारसूत्र हैं  इसका अधिकार तेन सहित तुल्ययोगे  (2.3.28)तक रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि शेषो बहुव्रीहिः से लेकर तेन सहित तुल्ययोगे  तक के सूत्रों द्वारा किया जाने वाला समास बहुव्रीहि संज्ञक होता है। इसी सूत्र के अधिकार में होने वाले समास को बहुव्रीहिसमास कहा जाता है। उक्तादन्यः शेषः कहने के बाद जो  शेष बचेउसे शेष कहते है। जो अव्ययीभावतत्पुरूष से बचा हुआ है किन्तु द्वन्द्व नहीं है, वह बहुव्रीहि है।

९६९ अनेकमन्‍यपदार्थे

अनेकं प्रथमान्‍तमन्‍यस्‍य पदस्‍यार्थे वर्तमानं वा समस्‍यते स बहुव्रीहिः ।।

अन्यपद के अर्थ में विद्यमान समस्त पदों से भिन्न एक से अधिक प्रथमान्त पद परस्पर में विकल्प से समास को प्राप्त हों और उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं।  समास में आये पद यदि अपने से अतिरिक्त किसी अन्य पद का बोध कराते हों तो वह बहुव्रीहि समास होता है। बहुव्रीहि समास में भी प्रातिपदिकसंज्ञासुप् का लुक्सु आदि विभक्ति की उत्पति आदि पूर्ववत् होंगे। 
९७० सप्‍तमीविशेषणे बहुव्रीहौ

सप्‍तम्‍यन्‍तं विशेषणं च बहुव्रीहौ पूर्वं स्‍यात् । अत एव ज्ञापकाद्व्‍यधिकरणपदो बहुव्रीहिः ।।

बहुव्रीहि समास में सप्तम्यन्त शब्द तथा विशेषण शब्द का पूर्व में प्रयोग होता है 
अतः समस्यमान शब्दों में जो शब्द विशेषण बना हुआ है उसका और जो शब्द सप्तमी विभक्ति से युक्त हैउसका पूर्व में प्रयोग करना चाहिए। चुँकि इस सूत्र से सप्तम्यन्त का पूर्वप्रयोग हुआ हैअतः यह ज्ञात होता है कि कभी कभी बहुव्रीहिसमास में समानाधिकरण अर्थात् समान विभक्ति के अतिरिक्तभिन्न भिन्न विभक्ति वाले पदों का भी समास होता है ।
दो पदों में प्रथमान्त निर्दिष्ट पद की उपसर्जन संज्ञा तथा उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जन संज्ञक का पूर्व प्रयोग होने का विधान है। इस विधान के अनुसार अनेकमन्यपदार्थे सूत्र में अनेकम् पद प्रथमान्त है। अतः उपसर्जन संज्ञक होने से उपसर्जनं पूर्वम् से उसका पूर्वप्रयोग प्राप्त होता है। किन्तु अनेकम्’ पद से समास के सभी पदों का बोध होता हैइसीलिए यह निर्णय नहीं हो पाता कि किस पद को पहले रखा जाय। इसी समस्या को हल करने के लिए सप्तमी विशेषणे बहुव्रीहौ सूत्र से सप्तम्यन्त और विशेषणवाचक पद को पहले प्रयोग का विधान किया गया है। उदाहरण के लिए पीतम् अम्बरम्’ - इस विग्रह में ‘पीतम्’ और अम्बरम्’ दोनों ही प्रथमान्त हैअतः उपसर्जन-संज्ञक होने से  उपसर्जनं पूर्वम् से दोनों का ही पूर्वप्रयोग प्राप्त होता है। किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका बा होकर विशेषण-वाचक पद प्राप्तम्’ का पहले प्रयोग होता है। इसी प्रकार कण्ठे कालो यस्य’ इस विग्रह में सप्तम्यन्त पद कण्ठे’ का पहले प्रयोग होगा।

९७१ हलदन्‍तात्‍सप्‍तम्‍याः संज्ञायाम्

हलन्‍ताददन्‍ताच्‍च सप्‍तम्‍या अलुक् । कण्‍ठेकालः। प्राप्‍तमुदकं यं स प्राप्‍तोदको ग्रामः । ऊढरथोऽनड्वान् । उपहृतपशू रुद्रः । उद्धृतौदना स्‍थाली । पीताम्‍बरो हरिः । वीरपुरुषको ग्रामः ।

हलन्त और हृस्व अकारान्त शब्दों से परे संज्ञा अर्थ में उत्तरपद के परे रहते सप्तमी विभक्ति का लुक् नहीं होता है
बहुव्रीहिसमास में समस्यमान दोनों शब्द प्रायः प्रथमान्त ही होते हैं किन्तु उपर्युक्त दो सूत्रों में बहुव्रीहि के साथ सप्तमी शब्द का उच्चारण करके सप्तमी के अलुक् के विधान से दोनों पदों में भिन्न भिन्न विभक्ति होने पर भी कहीं कहीं समास हो जाता हैयह ज्ञापन होता है। अत एव कण्ठेकालः में कण्ठे कालः यस्य इस विग्रह में पूर्व पद कण्ठ ङि सप्तम्यन्त है और उत्तरपद काल सु प्रथमान्त है। इस तरह समानाधिकरण न होकर व्यधिकरण हुआ। ऐसी स्थिति में व्यधिकरण में भी उक्त ज्ञापक के द्वारा समास होता है। 

कण्ठेकालः।  कण्ठे कालः यस्य लौकिक विग्रह और कण्ठ ङि + काल सु अलौकिक विग्रह है। इस भिन्न विभक्ति अर्थात् व्यधिकरण में उक्त ज्ञापक के द्वारा समास हुआ। सप्तम्यन्त पद कण्ठ ङि का सप्तमीविशेषणे बहुव्रीहौ से पूर्वप्रयोग हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञासुप् का लुक् प्राप्त था किन्तु हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम् से सप्तमी विभक्ति ङि के लोप का निषेध हुआ। इस स्थिति में उत्तरपद में विद्यमान सु के लुक् में कोई बाधा भी नहीं हुई। इस तरह कण्ठेकाल बना। स्वादिकार्य करके कण्ठेकालः सिद्ध हो गया।

प्राप्तोदकः। अन्यपदार्थ के अर्थ का उदाहरण - प्राप्तम् उदकं यं ( ग्रामम् ) लौकिक विग्रह और प्राप्त सु + उदक सु इस अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से दोनों सु का लोप होकर प्राप्त + उदक बना। प्राप्त + उदक में गुण करने पर प्राप्तोदक बना। इसका अन्यपदार्थ - ग्राम होने के कारण ग्राम के लिंग के समान पुँल्लिंग बनता है। एकदेशविकृतन्यायेन प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति, रूत्वविसर्ग करके प्राप्तोदकः सिद्ध हो जाता है। 

पीताम्बरः। अन्यपदार्थ (विष्णु) के अर्थ का उदाहरण। पीतम् अम्बरम् (अस्ति) यस्य (विष्णोः) लौकिक विग्रह और पीत सु + अम्बर सु अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से सु का लोप करने पर पीत + अम्बर बना। अन्यपदार्थ विष्णु के लिंग के समान पुँल्लिग रूप होगा। प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति, रूत्व, विसर्ग करके पीताम्बरः विष्णुः सिद्ध हो जाता है। इसका विग्रह बहुवचन में भी किया जाता है- पीतानि अम्बराणि यस्य। पीत जस् + अम्बर जस्=पीताम्बरः।

इस प्रकार तृतीयार्थ, चतुर्थ्यर्थ का क्रमशः उदाहरण दे रहे हैं।
तृतीयार्थ – ऊढो रथो येन । ऊढरथः अनड्वान्।
चतुर्थ्यर्थ – उपहृतः पशुः यस्मै- उपहृतपशुः।
पञ्चम्यर्थ – उद्धृतः ओदनो यस्याः – उद्धृतौदना स्थाली।
षष्ठ्यर्थ – पीतानि अम्बराणि यस्य – पीताम्बरः।
सप्तम्यर्थ – वीराः पुरुषाः सन्ति यस्मिन् ग्रामे – वीरपुरुषकः ग्रामः।
वीरपुरुषकः में अन्यपदार्थ ग्राम के अर्थ में वीराः पुरूषाः सन्ति यस्मिन् ( ग्रामे ) लौकिक विग्रह और वीर जस् + पुरुष जस् अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। यहाँ पर पीताम्बरो, पुरुषको उदाहरण में दिया गया है। आपने हशि च सूत्र पढ़ा होगा। यहाँ पर बाद के शब्द के अनुसार सु, रूत्व, उत्व, गुण करके  पीताम्बरो आदि लिखा है।

(वा.) प्रादिभ्‍यो धातुजस्‍य वाच्‍यो वा चोत्तरपदलोपः) । प्रपतितपर्णःप्रपर्णः ।
प्र आदियों से परे धातुज (कृदन्त) का समर्थ सुबन्त के साथ अन्यपदार्थ के साथ समास होता है तथा विकल्प से उत्तरपद का लोप भी होता है।
प्रपर्णः। प्रपतितानि पर्णानि यस्मात् सः प्रपर्णः। प्रकर्षेण पतितः विग्रह में प्र का पतित के साथ कुगतिप्रादयः से समास होकर प्रपतितः बना। प्रपतित में प्र पूर्वपद और पतित उत्तरपद है। समास होने के बाद प्रपतित एक पद हुआ। अब प्रपतितानि पर्णानि यस्मात् इस लौकिक विग्रह और प्रपतित जस् पर्ण जस् अलौकिक विग्रह किया। अनेकमन्यपदार्थे से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके प्रपतित पर्ण बना। यहाँ पूर्वपद प्र है तथा उत्तर पद पतित है। अब प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः से पूर्वपद प्र के उत्तर पद का लोप विकल्प से हुआ। प्र + पर्ण, प्रपर्ण बना। स्वादिकार्य स प्रपर्णः सिद्ध हुआ। उक्त वार्तिक से लोप के अभाव पक्ष में प्रपतितपर्णः बनेगा। इसी तरह विगतो धवो यस्याः सा विधवा, निर्गता जना यस्मात् स निर्जनो प्रदेशः, निर्गता गुणा यस्मात् स निर्गुणः, निर्गतं फलं यस्मात् तत् निष्फलं कर्म, निर्गतोऽर्थो यस्मात् तत् निरर्थकम् आदि अनेक शब्द बनाये जा सकते है।

विशेष- समास में पूर्वपद और उत्तरपद रहता है, किन्तु इस वार्तिक के लिए पूर्वपद भी ऐसा होना चाहिए, जिसका दूसरे पद के साथ में समास हो चुका हो। अर्थात् प्र आदि के साथ कुगतिप्रादयः से प्रादि समास हो चुका हो और उसके बाद बहुव्रीहिसमास में एक अन्य पद के साथ अन्वित हो रहा हो। 

(वा.) नञोऽस्‍त्‍यर्थानां वाच्‍यो वा चोत्तरपदलोपः) अविद्यमानपुत्रःअपुत्रः ।।
नञ् से परे विद्यमान अर्थ का वाचक जो पद, तदन्त का समर्थ सुबन्त के साथ अन्यपदार्थ में समास तथा उत्तरपद का लोप विकल्प से होता है।
यह भी समास किये हुए पूर्वपद में विद्यमान उत्तरपद का ही विकल्प से लोप करता है किन्तु वह उत्तरपद अस्ति के अर्थ विद्यमानता आदि वाले अर्थ वाला हो तथा वह शब्द नञ् के साथ समास को प्राप्त हो चुका हो।

अविद्यमानः पुत्रः अपुत्रः। न विद्यमानः में नञ् तत्पुरूष समास होकर अविद्यमान बना। अब अविद्यमान सु पुत्र सु में अनेकमन्यपदार्थे से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके अविद्यमान पुत्र बना। यहाँ पूर्वपद है - नञ् का अ तथा उत्तरपद है - विद्यमान, इस विद्यमान का नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः से लोप होकर  अपुत्र बना। अपुत्र से स्वादिकार्य करने पर अपुत्रः बना। लोप के अभाव पक्ष में अविद्यमानपुत्रः बनेगा। इसी तरह अविद्यमानो नाथो यस्य स अनाथः, अविद्यमानः क्रोधो यस्य स अक्रोधः आदि अनेक इस वार्तिक के द्वारा सिद्ध किये जा सकते हैं। 

९७२ स्‍त्रियाः पुंवद्भाषितपुंस्‍कादनूङ्समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु

उक्तपुंस्‍कादनूङ् ऊङोऽभावोऽस्‍यामिति बहुव्रीहिः । निपातनात्‍पञ्चम्‍या अलुक् षष्‍ठ्यश्‍च लुक् । तुल्‍ये प्रवृत्तिनिमित्ते यदुक्तपुंस्‍कं तस्‍मात्‍पर ऊङोऽभावो यत्र तथाभूतस्‍य स्‍त्रीवाचकशब्‍दस्‍य पुंवाचकस्‍येव रूपं स्‍यात् समानाधिकरणे स्‍त्रीलिङ्गे उत्तरपदे न तु पूरण्‍यां प्रियादौ च परतः । गोस्‍त्रियोरिति ह्रस्‍वः । चित्रगुः । रूपवद्भार्यः । अनूङ् किम् ? वामोरूभार्यः ।। पूरण्‍यां तु –

प्रवृत्तिनिमित्त समान होते हुए उक्त पुंस्क शब्द, उससे परे ऊङ् प्रत्यय जहाँ न किया गया हो ऐसे स्त्रीवाचक शब्द का पुंवाचक शब्द के समान रूप होता है, समान विभक्तिक स्त्रीलिंग उत्तरपद परे रहते, किन्तु पूरणार्थक प्रत्ययान्त शब्दों तथा प्रिया आदि शब्दों के परे न हो तो। 
पुवंत् का अर्थ- पुँल्लिंग की तरह रूप बन जाना।
भाषितपुंस्क - जिस विशेषता के कारण कोई शब्द अपने अर्थ को प्रकट करता है, उस शब्द की वह विशेषता ही उसका प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर अन्य लिंग में भी प्रवृत्त हो तो उसे भाषितपुंस्क कहते हैं। जैसे- घट शब्द में घड़े को बोध कराने का निमित्त घटत्व है, यदि उसमें घटत्व नहीं मिलता तो उसे कोई घट नहीं कहता। प्रत्येक शब्द का अपने अर्थ का बोधन कराने के लिए कोई न कोई निमित्त अवश्य ही होता है। उस निमित्त को प्रवृत्तिनिमित्त कहते है।
अनूङ् - ऐसे भाषितपुंस्क शब्द से परे ऊङ्-प्रत्यय न हुआ हो।
पूरणीप्रियादि- प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि क्रमवाचक विशेषणों को पूरणी करहा जाता है। मट्, डट् आदि पूरणार्थक प्रत्यय हैं। प्रिय आदि एक गण है।

इस तरह सूत्रार्थ हुआ- पूरणी और प्रियादि शब्दों को छोड़कर अन्य समानाधिकरण स्त्रीलिंग उत्तरपद परे होने पर ऊङ् प्रत्ययान्त भिन्न स्त्रीवाचक भाषितपुंस्क पद के रूप पुँल्लिग के समान होते हैं। यह सूत्र पुंवद्धाव करता है। 
चित्रगुः। चित्राः गावः यस्य में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। यहाँ गो शब्द के बाद जस् विभक्ति है और चित्रा में भी जस् विभक्ति है, दोनो में समान ही विभक्ति लगी है, इसलिए समानविभक्तिक या समानाधिकरण हैं। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से जस् का लोप करके चित्रा + गो बना।  चित्रा + गो में ऊङ् प्रत्यय नहीं हुआ है तथा पूरणी अर्थ के वाचक प्रत्यय वाले शब्द और प्रियादि शब्द भी पर में नहीं है। स्त्रीलिंग है और गायों का वाचक चित्रा स्त्रीलिंग है तथा भाषितपुंस्क भी,क्योंकि इसका  पुँल्लिंग  चित्रः, चित्रौ आदि भी बनता है । अतः स्त्रियाः पुंवद्धाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु से गो शब्द के परे होने पर चित्रा को पुंवत् ( पुंवद्धाव ) हुआ अर्थात् पुँल्लिंग की तरह चित्र के रूप में परिवर्तन हुआ।, चित्र + गो बना। इसके बाद गोस्त्रियो. से गो के ओकार को ह्रस्व हो गया। चित्रगु बना। स्मरणीय है कि ओकार को ह्रस्व उकार होता है। अतः गो से गु बना। चित्रा और गो दोनों शब्द स्त्रीलिंग के थे किन्तु समास करने से समासशक्ति के बल पर समस्त शब्द पुँल्लिंग में हो गया। प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति, रुत्वविसर्ग करके चित्रगुः सिद्ध हुआ। 
रूपवद्भार्यः। रूपवती भार्या यस्य लौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा हुई और सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से दोनों सु का लोप करके रूपवती + भार्या बना। रूपवती स्त्रीलिंग है और भार्या भी स्त्रीलिंग है, दोनों में समान ही विभक्ति लगी थी, इसलिए समानविभक्तिक भी हैं। रूपवती शब्द पुँल्लिंग में रूपवान् ऐसा बनता है, इसलिए भाषिकपुंस्क भी है। अतः स्त्रियाः पुंवद्धाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु से भार्या शब्द परे होने पर रूपवती को पुंवत् (पुंवद्भाव) हुआ। अतः पुँल्लिग की तरह रूपवत् हुआ। रूपवत् + भार्या बना। भार्या के भकार के परे होने पर झलां जशोऽन्ते से जश्त्व होकर दकार बन गया, रूपवद् + भार्या बना, वर्णसम्मलेन हुआ- रूपवद्धार्या बना। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य से भार्या में स्त्रीप्रत्यय के टाप् ते आकार को ह्रस्व होकर रूपवद्धार्य बना। प्रकृत सूत्र से समस्त शब्द पुँल्लिंग में बदल गया। रूपवती भार्या है जिस पुरुष की, वह पुरुष। सु विभक्ति रुत्वविसर्ग करके रूपवद्धार्थः सिद्ध हुआ।

अनूङ् किमिति? स्त्रियाः पुंवद्धाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु में भाषितपुंस्क से परे ऊङ् न हो ऐसा क्यों कहा ? उत्तर देते है- वामोरूभार्यः। यहाँ वाम शब्द पूर्वक ऊरु शब्द से संहितशफलक्षणवामादेश्च से ऊङ् प्रत्यय हुआ है। उसके बाद वामोरूः भार्या यस्य में समास तथा उपसर्जनसंज्ञक भार्या शब्द को ह्रस्व होकर दीर्घ उकार वाला वामोरूभार्यः बनता है। यदि भाषितपुंस्क से परे ऊङ् न हो ऐसा नहीं कहते तो इसमें भी उक्त सूत्र से पुंवद्भाव होकर ह्रस्व उकार वाला वामोरुभार्यः ऐसा अनिष्ट रूप बनने लगता। 

९७३ अप्‍पूरणीप्रमाण्‍योः

पूरणार्थप्रत्‍ययान्‍तं यत्‍स्‍त्रीलिङ्गं तदन्‍तात्‍प्रमाण्‍यन्‍ताच्‍च बहुव्रीहेः अप्स्‍यात् । कल्‍याणी पञ्चमी यासां रात्रीणां ताः कल्‍याणी पञ्चमा रात्रयः । स्‍त्री प्रमाणी यस्‍य स स्‍त्रीप्रमाणः । अप्रियादिषु किम् ? कल्‍याणीप्रिय इत्‍यादि ।।

पूरणार्थक प्रत्ययान्त जो स्त्रीलिंग शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से तथा प्रमाणीशब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त अप् प्रत्यय हो। कल्याणीपञ्चमा रात्रयः। कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणाम् में पञ्चन् इस संख्यावाचक शब्द से पूरणार्थक प्रत्यय होकर स्त्रीलिंग में पञ्चमी बना है। अनेकमन्यपदार्थे से समास होकर, सुप् के लुक् होने के बाद कल्याणी पञ्चमी बना। यहाँ पर समानाधिकरण स्त्रीलिंग के उत्तरपद परे होने पर भी अपूरणीप्रियादिषु से निषेध होने के कारण स्त्रियाः पुंवद्धाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु से पुंवद्भाव नहीं हुआ किन्तु अप् पूरणीप्रमाण्योः से समासान्त अप् प्रत्यय होकर कल्याणीपञ्चमी अ बना। यस्येति च से ईकार का लोप, वर्णसम्मलेन होकर कल्याणीपञ्चम् बना। अब अजाद्यतष्टाप् से टाप्, अनुबन्धलोप, दीर्घ होकर कल्याणीपञ्चमा बना। जस् विभक्ति का रूप कल्याणीपञ्चमाः सिद्ध हुआ। 
स्त्रीप्रमाणः। स्त्री प्रमाणी यस्य सः में समास, सुप् के लक् होने के बाद स्त्रीप्रमाणी बना । यहाँ पर स्त्री शब्द भाषितपुंस्क नहीं है। अतः पुंवद्धाव प्राप्त नहीं है। यहाँ अप् पूरणीप्रमाण्योः से समासान्त अच् प्रत्यय होकर स्त्रीप्रमाणी अ बना। यस्येति च से ईकार का लोप, वर्णसम्मलेन होकर स्त्रीप्रमाण बना। सु रुत्व, विसर्ग करने पर स्त्रीप्रमाणः सिद्ध हुआ।
अप्रियादिषु किम्? कल्याणीप्रियः। यह पूर्वसूत्र में दिये अपूरणी-प्रियादिषु का प्रत्युदाहरण है। वहाँ पूरणार्थक प्रत्ययान्त शब्द तथा प्रियादि शब्द के  परे रहने पर पुंवद्धाव का निषेध किया गया है। स्त्रियाः पुंवद्धाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्‍त्रियामपूरणीप्रियादिषु में यदि अप्रियादिषु यह नहीं कहते तो प्रिय आदि के परे होने पर भी पूर्व विद्यमान स्त्रीलिंग शब्द में पुंवद्भाव होकर कल्याणप्रियः ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता।
विशेष - एकस्य पूरणः प्रथमः, द्वयोः पूरणो द्वितीयः, त्रयाणां पूरणः तृतीयः, आदि में संख्यावाचक शब्दों से तद्धित पूरणार्थक प्रत्यय होते हैं। ऐसे शब्दों के साथ में समास होने पर पुंवद्भाव न होकर समासान्त अप् प्रत्यय इस सूत्र के द्वारा किया जाता है। 

९७४ बहुव्रीहौ सक्‍थ्‍यक्ष्णोः स्‍वाङ्गात्‍षच्

स्‍वाङ्गवाचिसक्‍थ्‍यक्ष्यन्‍ताद्बहुव्रीहेः षच् स्‍यात् । दीर्घसक्‍थः । जलजाक्षी । स्‍वाङ्गात्‍किम् ? दीर्घसिक्‍थ शकटम् । स्‍थूलाक्षा वेणुयष्‍टिः । अक्ष्णोऽदर्शनादिति वक्ष्यमाणोऽच् ।।
स्वाङ्गवाची सक्थि या अक्षि शब्द जिसके अन्त में हो, ऐसे बहुव्रीहि से समासान्त षच् प्रत्यय हो।
दीर्घसक्थः। दीर्घे सक्थिनी यस्य में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लोप करने पर दीर्घ + सक्थि बना। सक्थि शरीर का अंग है। अतः बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच् से समासान्त षच् प्रत्यय हुआ। षकार की षः प्रत्ययस्य से इत्संज्ञा और चकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो जाने पर अ शेष बचा। दीर्घ + सक्थि + अ हुआ। यस्येति च से सक्थि के इकार के लोप होने पर  दीर्घसक्थ् + अ हुआ। परस्पर वर्णसम्मलेन होकर दीर्घसक्थ बना। दीर्घ और सक्थि दोनों शब्द नपुंसकलिंग के थे किन्तु समास करने से समासशक्ति के बल पर समस्त शब्द पुँल्लिंग में बदल गया। एकदेशविकृतन्यायेन प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति, रूत्वविसर्ग करके दीर्घसक्थः सिद्ध हुआ।
जलजाक्षी। जलजे इव अक्षिणी यस्याः में समास आदि कार्य करने के बाद बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच् से षच् हुआ । अनुबन्धलोप, यस्येति च से अक्षि के इकार का लोप करने पर जलजाक्ष शब्द बना। स्त्रीत्व की विवक्षा में षिदन्त मानकर षिद्गौरादिभ्यश्च से ङीष् प्रत्यय, अनुबन्ध लोप, पुनः यस्येति च से जलजाक्ष के अन्त्य अकार को लोप करके जलजाक्षी बना। प्रातिपदिक मानकर सु, हल्ङयादि लोप करके जलजाक्षी सिद्ध हुआ।

स्वाङ्गात् किम्? दीर्घसक्थि शकटम्। स्थूलाक्षा वेणुयुष्टिः। बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच् में यदि स्वाङ्गात् न कहते तो दीर्घसक्थि शकटम् ( लम्बे फड़ वाली गाड़ी, ) और स्थूलाक्षा वेणुयष्टिः ( मोटी ग्रन्थियों वाली बाँस की छड़ी ) यहाँ पर भी षच् होता और दीर्घसक्थम् तथा स्थूलाक्षी  ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता। अतः उक्त सूत्र में स्वाङ्गात् कहा गया। स्वाङ्गात् कहने से षच् प्रत्यय तथा षित्वात् ङीष् भी नहीं हुआ।  स्थूलाक्षा में अक्ष्णोऽदर्शनात् सूत्र से अ प्रत्यय होकर अजाद्यतष्टाप् से टाप् होता है।  

९७५ द्वित्रिभ्‍यां ष मूर्ध्‍नः
आभ्‍यां मूर्ध्‍न षः स्‍याद्बहुव्रीहौ । द्विमूर्धः । त्रिमूर्धः ।।
बहुव्रीहि समास में द्वि तथा त्रि शब्द से परे मूर्धन् शब्द को समासान्त ष प्रत्यय हो।
द्विमूर्धः। । द्वौ मूर्धानौ यस्य सः में अनेकमन्यपदार्थे से समास होकर द्विमूर्धन् बना। द्वित्रिभ्यां ष मूर्ध्नः से समासान्त षच् प्रत्यय, अनुबन्ध लोप करने पर द्विमूर्धन् + अ बना। द्विमूर्धन् के अन् भाग की टि संज्ञा, नस्तद्धिते से टिसंज्ञक अन् का लोप करने पर द्विमूर्ध् + अ हुआ। वर्णसंयोग होने पर द्विमूर्ध हुआ। इससे सु प्रत्यय करके द्विमूर्धः बना। स्त्रीत्व विवक्षा में षित्त्वात् षिद्गौरादिभ्यश्च से ङीष् होकर द्विमूर्ध्नी बनता है।

 त्रिमूर्धः। द्विमूर्धः की तरह ही त्रिमूर्धः बनेगा।

९७६ अन्‍तर्बहिभ्‍यां च लोम्‍नः

आभ्‍यां लोम्‍नोऽप्‍स्‍याद्बहुव्रीहौ । अन्‍तर्लोमः । बहिर्लोमः ।।

बहुव्रीहि समास में अन्तर् और बहिस् इन अव्यय शब्दों से परे लोमन् शब्द से समासान्त अप् प्रत्यय हो।
अन्तर्लोमः। अन्तर्लोमानि यस्य सः लौकिक विग्रह और अन्तर् + लोमन् जस् अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास होकर अन्तर्लोमन् बना। अन्‍तर्बहिभ्‍यां च लोम्‍नः से समासान्त अप् प्रत्यय करके अन्तर्लोमन् + अ बना। नस्तद्धिते से टिसंज्ञक अन् का लोप करके अन्तर्लोम  बना। इससे सु प्रत्यय, रुत्व, विसर्ग करके अन्तर्लोमः रूप बना।

बहिर्लोमः। बहिर्लोमानि यस्य सः लौकिक विग्रह और बहिस् + लोमन् जस् अलौकिक विग्रह में समास तथा समासान्त अप् प्रत्यय, टिलोप आदि कार्य करके अन्तर्लोमः की तरह बहिर्लोमः बनता है।

९७७ पादस्‍य लोपोऽहस्‍त्‍यादिभ्‍यः

हस्‍त्‍यादिवर्जितादुपमानात्‍परस्‍य पादशब्‍दस्‍य लोपः स्‍याद्बहुव्रीहौ । व्‍याघ्रस्‍येव पादावस्‍य व्‍याघ्रपात् । अहस्‍त्‍यादिभ्‍यः किम् ? हस्‍तिपादः । कुसूलपादः ।।

हस्ती आदि शब्दों को छोड़कर उपमानवाचक शब्द से परे पाद शब्द का समासान्त लोप होता है बहुव्रीहि समास में।
व्याघ्रपात्। व्याघ्रपादौ इव पादौ यस्य में अनेकमन्यपदार्थे के अन्तर्गत सप्तम्युपमानपूर्वपदोत्तरलोपश्च इस वार्तिक से समास और पूर्वपद व्याघ्रपादौ के उत्तरपद पाद का लोप करके प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने के बाद व्याघ्रपाद बना। पादस्‍य लोपोऽहस्‍त्‍यादिभ्‍यः से अलोऽन्त्यस्य की सहायता से पाद के अकार का समासान्त लोप करके व्याघ्रपाद् बना। इससे सु आदि विभक्तियाँ आती हैं और वैकल्पिक चर्त्व होकर व्याघ्रपात् ,व्याघ्रपाद् रूप सिद्ध हुआ। 
अहस्त्यादिभ्यः किम्? हस्तिपादः, कुसूलपादः।  पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः इस सूत्र में अहस्त्यादिभ्यः कहा गया है। इस प्रकार का प्रत्युदाहरण देकर ग्रन्थकार सूत्र का विश्लेषण करते हैं। यहाँ यह उपबन्ध नहीं रखा जाता तो हस्तिपाद, कुसूलपाद आदि शब्दों में भी पाद के अकार का लोप होकर हस्तिपात्, कुसूलपात् ऐसे अनिष्ट रूप बनने लगते। अतः अहस्त्यादिभ्यः कहा।

९७८ संख्‍यासुपूर्वस्‍य

पादस्‍य लोपः स्‍यात्‍समासान्‍तो बहुव्रीहौ । द्विपात् । सुपात् ।।

सङ्ख्यावाचक और सु अव्यय पूर्वक पाद शब्द का समासान्त लोप हो, बहुव्रीहि समास में।
द्विपात्। द्वौ पादौ यस्य में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने के बाद द्विपाद बना। सङ्ख्यासुपूर्वस्य से पाद के अकार का समासान्त लोप प्राप्त हुआ। यहाँ अलोऽन्त्यस्य नियम के अनुसार अन्त्य अल् का लोप होगा। द्विपाद के अंतिम अकार का लोप करके द्विपाद् बना। इससे सु आदि विभक्ति कार्य होकर द्विपाद् बना। दकार को वैकल्पिक चर्त्व करने पर द्विपात् द्विपाद् दोनों रूप सिद्ध होते हैं।
सुपात्। सु शोभनौ पादौ यस्य सः में अनेकमन्यपदार्थे से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् सङ्ख्यासुपूर्वस्य से समासान्त पाद के अकार का लोप करके सुपाद् बना। यहाँ द्विपात् की तरह चर्त्व होता है। 

९७९ उद्विभ्‍यां काकुदस्‍य

लोपः स्‍यात् । उत्‍काकुत् । विकाकुत् ।।
बहुव्रीहि समास में उद् और वि उपसर्गों से परे काकुद शब्द का समासान्त लोप होता है ।

उत्काकुत्। उद्गतं / उन्नतं काकुदं यस्य सः में अनेकमन्यपदार्थे से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने के बाद उत्काकुद बना। अलोऽन्त्यस्य परिभाषा से उद्विभ्यां काकुदस्य के द्वारा समासान्त काकुद के अकार का लोप होने पर उत्काकुद् बना। उत्काकुद् से सु विभक्ति में द्विपात् द्विपाद् की तरह वैकल्पिक चर्त्व होकर उत्काकुत्,  उत्काकुद्, रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार वि उपसर्ग से विकाकुत्, विकाकुद् सिद्ध होगा।

९८० पूर्णाद्विभाषा

पूर्णकाकुत् । पूर्णकाकुदः ।।
बहुव्रीहि समास में पूर्ण शब्द से परे काकुद शब्द का विकल्प से समासान्त लोप होता है ।

पूर्णकाकुत्, पूर्णकाकुदः। पूर्णं काकुदं यस्य में अनेकमन्यपदार्थ से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने के बाद पूर्णकाकुद बना। पूर्णाद्विभाषा के  द्वारा अलोऽन्त्यस्य की सहायता से समासान्त काकुद के अकार का विकल्प से लोप करके पूर्णकाकुद् बना। पूर्णकाकुद् से सु विभक्ति में वैकल्पिक चर्त्व होकर पूर्णकाकुत्  और लोप न होने के पक्ष में पूर्णकाकुदः बनता है।

९८१ सुहृद्दुर्हृदौ मित्रामित्रयोः

सुदुर्भ्यां हृदयस्‍य हृद्भावो निपात्‍यते । सुहृन्‍मित्रम् । दुर्हृदमित्रः ।।
बहुव्रीहि समास में क्रमशः मित्र और अमित्र अर्थों में सु और दुर् से परे हृदय शब्द के स्थान पर हृद् आदेश का निपातन किया जाता है।

सुहृन्त्रिमम्। सु शोभनं हृदयं यस्य लौकिक विग्रह तथा सु + हृदय सु अलौकिक विग्रह में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ।  प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके सुहृदय बना। सुहृद्दुर्हृदौ मित्रामित्रयोः  से हृदय से स्थान पर हृद् आदेश का निपातन होकर सृहृदय बना। इस सुहृदय प्रातिपदिक से सु, उसका हल्ङ्यादिलोप, विकल्प से दकार को चर्त्व तकार होने पर सुहृत्, सुहृद् बना। सुहृत् के आगे मित्रम् का मकार है अतः यहाँ तकार को यरोऽनुनासिकेनुनासिको वा से अनुनासिक होकर सुहृन्मित्रम् बना।

९८२ उरः प्रभृतिभ्‍यः कप्
बहुव्रीहिसमास में उरस् प्रभृति से समासान्त कप् प्रत्यय हो।

विशेष- कप् में पकार की इत्संज्ञक होने पर क शेष रहता है। यहाँ ककार की इत्संज्ञा नहीं हो सकती क्योंकि लशक्वतद्धिते में अतद्धिते कहा गया है। उरः प्रभृतिभ्यः से किया जाने वाला कप् तद्धित का है। अतः  तद्धित के ककार की इत्संज्ञा नहीं होती है। उरः प्रभृति में उरस्, सर्पिस्, उपानह्, पुमान्, अनड्वान्, पयः, नौ, लक्ष्मी, दधि, मधु आदि शब्द पढ़े गये हैं। 

९८३ सोऽपदादौ

पाशकल्‍पककाम्‍येषु विसर्गस्‍य सः ।।
पाश, कल्प, क या काम्य परे हो तो विसर्ग के स्थान पर स आदेश हो।

विशेष- सोऽपदादौ में अपदादौ को कुप्वोः का विशेषण बनाया जाता है। इस तरह अपदाद्योः कुप्वोः ऐसा बन जाता है। इसका अर्थ होगा अपदादि कवर्ग और पवर्ग के परे होने पर। अपदादि कवर्ग और पवर्ग के परे रहना केवल पाश, कल्प, , काम्य इन चार प्रत्ययों में ही सम्भव है। अतः अपदाद्योः कुप्वोः का अर्थ पाश, कल्प क, काम्य प्रत्ययों के परे होने पर करना चाहिए। लघुसिद्धान्तकौमुदी के कतिपय संस्करण में भूलवश कल्पक प्रत्यय लिखा मिलता है। यह सूत्र कुप्वोः से प्राप्त जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का बाधक है। 

९८४ कस्‍कादिषु च

एष्‍विण उत्तरस्‍य विसर्गस्‍य षोऽन्‍यस्‍य तु सः । इति सः । व्‍यूढोरस्‍कः ।।
कस्क आदि गणपठित शब्दों में इण् प्रत्याहार से परे विसर्ग को षकार हो, अन्यत्र सकार आदेश हो।
स्पष्टार्थ- कहाँ सकार आदेश और षकार आदेश होगा इसे दूसरी तरह से समझें। जहाँ विसर्ग से पूर्व में इण् प्रत्याहार का वर्ण हैं, वहाँ मूर्धन्य षकार और जहाँ इण् नहीं है वहाँ दन्त्य सकार आदेश होगा।

व्यढोरस्कः। व्यूढम् उरः यस्य (पुरुषस्य) लौकिक विग्रह और व्यूढ सु + उरस् सु अलौकिक विग्रह में समास, प्रातिपदिकसंज्ञा सु का लोप करके व्यूढ + उरस् बना। आद्गुणः से गुण होकर व्यूढोरस् बना। उरःप्रभृतिभ्यः कप् से समासान्त कप् प्रत्यय होने पर व्यूढोरस् + कप् हुआ। पकार का अनुबन्धलोप तथा व्यढोरस् के सकार का ससजुषोः रुः  से रूत्व एवं खरवसानयोर्विसर्जनीयः से विसर्ग हुआ। व्यूढोरस्कः रूप सिद्ध हुआ। 
कालिदास के रघुवंश में प्रयोग द्रष्टव्य- 
         व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः ।

         आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रितः । ।

९८५ इणः षः

इण उत्तरस्‍य विसर्गस्‍य षः पाशकल्‍पककाम्‍येषु परेषु । प्रियसर्पिष्‍कः ।।
इण् से परे विसर्ग के स्थान पर षकार आदेश होता है पाश, कल्प, , काम्य के परे रहते।

प्रियसर्पिष्कः। प्रियम् सर्पिः यस्य में अनेकमन्यपदार्थे से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से दोनों सु का लोप करके प्रिय + सर्पिस् बना। सर्पिस् भी उरः प्रभृति में आता है, अतः उरः प्रभृतिभ्यः कप् से समासान्त कप् प्रत्यय हुआ- प्रियसर्पिस् + क बना। सकार को रुत्व विसर्ग करके विसर्ग के स्थान पर इणः षः से षकार आदेश हुआ प्रियसर्पिष्कः बना। सु विभक्ति, रुत्वविसर्ग करके प्रियसर्पिष्कः सिद्ध हुआ। 

९८६ निष्‍ठा

निष्‍ठान्‍तं बहुव्रीहौ पूर्वं स्‍यात् । युक्तयोगः ।।
बहुव्रीहि समास में निष्ठान्त शब्द का पूर्व में निपात होता है।
युक्तयोगः। युक्तो योगो यस्य में युज् धातु से क्त प्रत्यय होकर युक्त बना है। युक्त सु योग सु में अनकेमन्यपदार्थे से समास तथा निष्ठा से क्त प्रत्ययान्त युक्त का पूर्वनिपात हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके युक्तयोग बना। सु विभक्ति में युक्तयोगः सिद्ध हुआ।

विशेष- क्तक्तवतु निष्ठा से क्त और क्तवतु प्रत्ययों की निष्ठा संज्ञा होती है। प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम् अर्थात् प्रत्यय के ग्रहण में प्रत्ययान्त का ग्रहण होता है। इस नियम के अनुसार यहाँ सूत्रार्थ में क्त या क्तवतु प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण हुआ। बहुव्रीहि समास में क्त प्रत्ययान्त एवं क्तवतु प्रत्ययान्त का पूर्वनिपात हो जाता है।

९८७ शेषाद्विभाषा

अनुक्तसमासान्‍ताद्बहुव्रीहेः कब्‍वा । महायशस्‍कःमहायशाः ।।
अनुक्त समासान्त बहुव्रीहि से कप् प्रत्यय होता है विकल्प से।
महायशस्कः, महायशाः। महद् यशः यस्य (पुरुषस्य) में अनेकमन्यपदार्थे से समास, प्रातिपदिकसंज्ञा, सु का लोप करके महत् + यशस् बना। आन्महतः समानाधिकरणजातीययोः से महत् के तकार के स्थान पर आकार आदेश होकर मह + आ हुआ। सवर्णदीर्घ तथा वर्णसम्मेलन करने पर महायशस् बना। महायशस् से बहुव्रीहि में कोई भी समासान्त प्रत्यय का विधान नहीं किया गया है। अतः यह शेष है। इसलिए शेषाद्विभाषा से विकल्प से समासान्त कप् प्रत्यय होकर महायशस् + क बना। अब एकदेशविकृतन्याय से महायशस्क को प्रातिपदिक मानकर सु, रूत्वविसर्ग करने पर महायशस्कः सिद्ध हुआ। कप् प्रत्यय विकल्प से होता है। जब यह प्रत्यय नहीं होगा उस पक्ष में महायशस् से सु हुआ। सु के सकार का हल्ङ्याभ्यो दीर्घात् सुतिस्पृक्तं हल् से सु के सकार का लोप, अत्वसन्तस्य चाधातोः से उपधादीर्घ करके महायशास् बना। सकार को रूत्वविसर्ग करके महायशाः बन गया।

विशेष-  उक्तादन्यः शेषः। जिन शब्दों का बहुव्रीहि में कोई समासान्त प्रत्यय नहीं कहे गये हैं, ऐसे शब्द शेष कहलाते है।

सारांश- लघुसिद्धान्तकौमुदी के बहुव्रीहि समास में अनेकमन्यपदार्थे से अनेक स्थलों पर समास किया जाता है।  यहाँ एक ही सूत्र निर्दिष्ट है। यह सामान्य नियम है। पाणिनीय अष्टाध्यायी में इस समास के लिए चार अन्य सूत्र भी हैं। वे विशेष नियम हैं। वे सूत्र कुछ शब्दों में ही समास करते हैं।

इति बहुव्रीहिः ।। ४ ।।

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